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मुसलमान बीजेपी की जरूरत को पूरा करने के लिए राजी होंगे? 

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प्रेम कुमार

बीजेपी को मुसलमानों के वोटों की ज़रूरत पड़ गयी है। यह बात तभी स्पष्ट हो गयी थी जब पिछले साल 3 जुलाई, 2022 को हैदराबाद में और फिर इस साल 17 जनवरी, 2023 को दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम समुदाय के बोहरा, पसमांदा और पढ़े-लिखे लोगों तक बीजेपी सरकार की नीतियों को पहुंचाने की बात कही। 

मुसलमान वोटों के लिए बीजेपी और खासकर नरेंद्र मोदी के सामने आने को राजनीति में चौंकाने वाली ख़बर के तौर पर देखा गया। मगर, नरेंद्र मोदी ने सिर्फ बयान नहीं दिया था। उन्होंने अपने बयान पर अमल करना-कराना भी शुरू कर दिया है। स्पष्ट है कि मुसलमान वोटों की ज़रूरत को बीजेपी ने समझा है। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि क्या मुसलमान बीजेपी की जरूरत को पूरा करने के लिए राजी होंगे? 

मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी मुसलमानों के बीच जाने लगी है- यही बात मुस्लिम समुदाय को आकर्षित कर सकती है। जो संदेश लेकर बीजेपी मुसलमानों के बीच जा रही है उसकी अनदेखी भी मुस्लिम समुदाय शायद न कर सके। बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों के जख्म को हरा किया है। उस पर मरहम लगाने के लिए खुद को तैयार मोड में खड़ा किया है। अल्पसंख्यक होने का फायदा सवर्ण मुसलमानों ने उठाया जबकि 85 फीसदी पसमांदा मुसलमानों का सिर्फ इस्तेमाल किया गया। नैरेटिव यही है।

शिया मुसलमानों से बीजेपी ने बनायी दूरी

जब मुसलमान दो भागों में बंटेंगे तो बड़ा भाग बीजेपी के साथ खड़ा होगा- ऐसी बीजेपी के रणनीतिकारों ने बयां किया है। अपनी रणनीति पर अमल करने के लिए बीजेपी ने अपनी पार्टी में भी आमूल-चूल परिवर्तन शुरू कर दिया है। अब तक बीजेपी शिया मुसलमानों का इस्तेमाल कर मुस्लिम समुदाय में अपनी उपस्थिति दिखाया करती थी। मगर अब मुख्तार अब्बास नक़वी, शाहनवाज़ हुसैन से दूरी बना चुकी है। बीजेपी ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के तौर पर जिन दो मुस्लिम नेताओं को जगह दी है उनमें से एक यूपी से तारीक मंसूर हैं तो दूसरे केरल से अब्दुल्ला कुट्टी। ये दोनों ही सुन्नी हैं लेकिन पसमांदा मुसलमान हैं।

अल्पसंख्यक के भीतर अल्पसंख्यक समुदाय शिया का समर्थन लेकर बीजेपी मुसलमानों के बीच पैठ नहीं बना सकती थी। लिहाजा परंपरागत नीति से बीजेपी पलट गयी। उत्तर प्रदेश में भी शिया मुस्लिम मंत्री मोहसिन रज़ा की छुट्टी कर दी गयी और उनकी जगह सुन्नी मगर पसमांदा चेहरा दानिश आज़ाद अंसारी को जगह दी गयी। यहां तक कि सेंट्रल माइनॉरिटी कमेटी का नेतृत्व भी शिया मुसलमानों से छीन लिया गया। गैरूल हसन रिज़वी से जिम्मेदारी छीन कर एक सिख को यह जिम्मा सौंप दिया गया।

लाभार्थी मुसलमानों से उम्मीद

बीजेपी उम्मीद कर रही है कि उज्जवला योजना, बिजली कनेक्शन, आवास योजना, डायरेक्ट बैंक ट्रांजैक्शन, राशन योजना आदि के लाभार्थी मुसलमान भी रहे हैं। जो संपन्न मुसलमान हैं उनकी प्राथमिकता में मोदी और बीजेपी-आरएसएस विरोध ज़रूर है लेकिन गरीब मुसलमान लाभार्थी योजना से खुश हैं। ऐसे में पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा को लेकर अगर उनके जख्मों पर मरहम लगाती बीजेपी दिखेगी तो चुनाव में उसका फायदा उसे ज़रूर मिलेगा। 

मुसलमानों को जोड़ने की जरूरत और इसके लिए पहल करने की बीजेपी की रणनीति गलत नहीं है। रणनीति में जो बड़ा छेद है वह स्वयं बीजेपी की मुसलमानों के प्रति रही दुराग्रहपूर्ण नीति है। सुबह-शाम मुसलमानों के लिए नफ़रत फैलाती बीजेपी की टीम और बीजेपी नेता क्या खुद को समझा पाएंगे? मुसलमानों की निष्ठा पर लगातार उठाए जाते रहे सवालों से क्या ये लोग पीछे हट जाएंगे? क्या अपनी ही पार्टी की बदलती नीतियों से वे सहमत हो सकेंगे? यह बड़ा सवाल है। 

नफ़रत की सियासत पड़ेगी भारी

स्वयं मुसलमान भी, चाहे वे पसमांदा क्यों ना हों, क्या अगड़े-पिछड़े में बंटते हुए नरेंद्र मोदी की बीजेपी के लिए लामबंद हो सकेंगे? कब्रिस्तान-श्मशान, दिवाली-रमजान जैसे नारे, मॉब लिंचिंग की घटनाएं और नरेंद्र मोदी की चुप्पी, लव जिहाद, हिजाब विवाद, ज्ञानवापी जैसे मुद्दे, मुसलमानों के खिलाफ बुलडोजर पॉलिसी, मुसलमानों को टिकट ना देने की बीजेपी की नीति क्या सब कुछ भुला देंगे मुसलमान? अगर ऐसा हो सकता है तो 85 प्रतिशत पसमांदा मुसलमानों का अधिकांश वोट एकमुश्त बीजेपी को मिल जाना चाहिए। वोट बैंक का यह ऐसा असेट होगा जो बीजेपी को आने वाले कई सालों तक सत्ता से बाहर नहीं होने देगा।

मुसलमान गुजरात और बिल्किस बानो के उदाहरण को शायद ही भुला सकेंगे। गुजरात का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि गुजरात में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लंबे समय से सरकार रही है और नरेंद्र मोदी ने सीएम से पीएम का सफर भी पदेन रूप में पूरा किया है। गुजरात का पूरा कैबिनेट बदलने का सामर्थ्य नरेंद्र मोदी दिल्ली में बैठे-बैठे ही रखते हैं। गुजरात में बीजेपी ने 1998 में आखिरी बार किसी मुसलमान को विधायक और मंत्री बनाया था। उसके बाद से मुसलमानों को टिकट देने तक से भी मोदी की बीजेपी ने परहेज किया है। गुजरात का यही मॉडल मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में अपनाया है और इसे पूरे देश में लागू कर रही है।

मुसलमानों में बहुसंख्यकवाद का प्रयोग

बहुसंख्यकवाद के जीवंत प्रयोग का दायरा अब बीजेपी मुसलमानों के अंदर भी करना चाहती है। पसमांदा मुसलमानों के सहारे सवर्ण मुसलमानों के प्रतिकार को बढ़ावा देना और इसका चुनावी लाभ उठाना। यह बैक फायर भी हो सकता है। हिन्दुओं में भी अगर ओबीसी और दलित इस रूप में जागे कि आरक्षित होने का फायदा उनके भीतर भी चंद जातियां उठा रही हैं तो यहां भी बहुसंख्यकवाद नये रूप में पनप सकता है। धार्मिक आधार पर बहुसंख्यकवाद से उलट यह स्थिति बीजेपी की सियासत के लिए नुकसानदेह होगी।

पसमांदा मुसलमानों की वकालत बीजेपी की ओर से मुस्लिम समुदाय में बहुसंख्यकवाद का बीजारोपण है। इस समुदाय को भी पसमांदा-गैर पसमांदा में बांटते हुए राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास है। मगर, आम मुसलमान धार्मिक आधार पर बहुसंख्यकवाद के पीड़ित हैं इसलिए अपने भीतर एक अन्य किस्म के बहुसंख्यकवाद के लिए शायद ही तैयार होंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के लिए तो ऐसा वे शायद ही करें। इसलिए मुसलमान बीजेपी को वोट देंगे- इस बात का चाहे जितना डंका पीट लिया है, जमीनी धरातल पर यह आज भी एक सपना है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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