~सुधा गुप्ता
पौराणिक मिथक के अनुसार प्रलय के अनन्तर जब-जब सृष्टि होती है, तब- तब विभिन्न मन्वन्तरों में धर्म और मर्यादा की रक्षाके लिये तथा अपने सदाचरण से लोक को जीवनचर्या की उत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिये सात ऋषि आविर्भूत होते हैं। ये ही सप्तर्षि कहलाते हैं।
इन्हीं की तपस्या, शक्ति, ज्ञान और जीवन-दर्शन के प्रभाव से सारा संसार सुख और शान्ति प्राप्त करता है। ये ऋषिगण अपने एक रूप से जगत में लोकहित में संलग्न रहते हैं और दूसरे रूप में नक्षत्रमण्डल में सप्तर्षि-मण्डल के रूपमें ध्रुव की परिक्रमा करते हुए विचरण करते रहते हैं। प्रलयमें भी ये बने रहते हैं और जीवों के कर्मों के साक्षी तथा द्रष्टा बनते हैं। पुराणों में इनके उदात्त चरित्र का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है।
वायुपुराण (६१।९३-९४ ) में बताया गया है :
१- दीर्घायुष्य, २- मन्त्रकर्तृत्व, ३- ऐश्वर्यसम्पन्नता, ४ दिव्य दृष्टियुक्तता, ५-गुण, विद्या तथा आयुमें वृद्धत्व, ६-धर्मका प्रत्यक्ष साक्षात्कार तथा ७ गोत्रप्रवर्तन.
इन सात गुणों से युक्त सात ऋषियों को सप्तर्षि कहा गया है। इन्हीं से प्रजा का विस्तार होता है तथा धर्म की व्यवस्था चलती है। ये ही महर्षि प्रत्येक युग में सृष्टि के प्रवर्तन होने पर सर्वप्रथम वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था किया करते हैं :
“कृतादिषु युगाख्येषु सर्वेष्वेव पुनः पुनः। वर्णाश्रमव्यवस्थानं क्रियन्ते प्रथमं तु वै।”
~ वायुपुराण (६१।९७)
ये सप्तर्षि मूलतः निवृत्तिमार्गी होते हैं, किंतु अपने सदाचार से लोक को सन्मार्ग में प्रवर्तित करने तथा शास्त्र-मर्यादित जीवनचर्या पर आरूढ़ होने के लिये प्रवृत्ति-मार्गी पथप्रदर्शक बनते हैं।
इसीलिये ये गृहस्थधर्म को स्वीकार करके भी संग्रह-परिग्रह से दूर रहकर भगवान् की भक्ति का उपदेश देते हैं और अपने जीवनदर्शन से यह दिखाते हैं कि लोक में अनासक्त भाव से किस प्रकार गृहस्थ का निर्वाह बहुत उत्तम रीति से हो सकता है।
ये अत्यन्त तपस्वी, तेजस्वी और वेदवेत्ता होते हैं। भगवान में श्रद्धा प्रेम रखना तथा शास्त्रचर्या को अपने जीवन में उतारकर लोकशिक्षण प्रदान करना इनका मुख्य उद्देश्य है।
ब्रह्माजी के एक दिन (कल्प) में चौदह मनु होते हैं। प्रत्येक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं । प्रत्येक मन्वन्तर में देवता, इन्द्र, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र भिन्न-भिन्न होते हैं।
एक मन्वन्तर बीत जाने पर मनु बदल जाते हैं। तो उन्हीं के साथ सप्तर्षि, देवता, इन्द्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं। देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इन्द्र- ये सभी भगवान की ही विभूतियाँ है :
“सर्वे च देवा मनवः समस्ताः सप्तर्षयो ये मनुसूनवश्च।
इन्द्रश्च योऽयं त्रिदशेशभूतो विष्णोरशेषास्तु विभूतयस्ताः॥”
~विष्णुपुराण (३ । १ । ४६)
पहले मनु स्वायम्भुव मनु हैं और इन्हीं के नाम से पहला मन्वन्तर स्वायम्भुव मन्वन्तर कहलाता है. इस स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) मरीचि, (२) अत्रि, (३) अंगिरा, (४) पुलस्त्य, (५) पुलह, (६) क्रतु तथा (७) वसिष्ठ।
ये सप्तर्षि सौरमण्डल में उत्तरदिशा में सप्तर्षिमण्डल के नाम से शकटाकार रूप में स्थित रहते हैं, जो सप्तर्षिमण्डल कहलाता है। स्वायम्भुव मनु के सप्तर्षियों की स्थिति इस प्रकार है :
सबसे पहले मरीचि ऋषि हैं. से पश्चिम दिशा में जो एक बड़ा और एक छोटा तारा है. वे महर्षि वसिष्ठ तथा उनकी पत्नी साध्वी अरुन्धती हैं। उनके पश्चिम में अंगिरा ऋषि हैं। उनके पीछे जो चौकोर चार तारे हैं. उनसे ईशान में अत्रि ऋषि हैं. उनके निकट दक्षिण में पुलस्त्य, उनके पश्चिम में पुलह और उनके उत्तर में क्रतु ऋषि हैं।
~बृहत्संहिता (अ० १३)
इन सप्त ऋषियों के नाम से सप्तर्षि-संवत् प्रचलित है। इसी प्रकार स्वारोचिष, उत्तम आदि पृथक्-पृथक् चौदह मन्वन्तर होते हैं। सबके सप्तर्षि भिन्न-भिन्न नाम वाले ऋषि होते हैं। वर्तमान में सातवाँ वैवस्वत नामक मन्वन्तर चल रहा है। इस मन्वन्तर के सप्तर्षियों के नाम इस प्रकार हैं :
वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज।
“वसिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः।
विश्वामित्र भरद्वाजी सप्त सप्तर्षयोऽभवन्॥”
~विष्णुपुराण (३ । १ । ३२)
“कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रो ऽथ गौतमः।
जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः॥”
~श्रीमद्भागवत (८।१३।५)
गीता (१०।६) में कृष्ण ने इन्हें अपने मन से उत्पन्न तथा भगवान में भक्ति रखने वाले और अपनी विभूति बताते हैं :
“महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥”
प्रातः काल में इन सप्तर्षियों का नामकीर्तन करने से मंगल की प्राप्ति होती है तथा दिनचर्या ठीक से चलती है। भाद्रशुक्ल पंचमी ऋषिपंचमी कहलाती है. इस दिन वसिष्ठपत्नी सतीशिरोमणि महादेवी अरुन्धती सहित इन सप्तर्षियों का विशेषरूप से पूजन होता है। इस व्रत को स्त्री-पुरुष दोनों ही करते हैं, किंतु विशेषरूप से यह स्त्रियों के लिये अवश्यकरणीय है।
रजस्वला- अवस्था में स्त्री को अशौच होता है. इस अवस्था में घर के पात्रादि का स्पर्श हो जाने से जो अकर्म उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञातमें हो जाता है, उसके निवारण के लिये ऋषिपंचमीका व्रत किया जाता है। सुवर्ण से अथवा कुशमयी अथवा पट्टलिखित अरुन्धती सहित सप्तर्षियों की प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा की जाती है।
यह व्रत प्रायः सात वर्षतक किया जाता है। उद्यापन के अनन्तर पुनः व्रतग्रहण कर जीवनपर्यन्त भी किया जाता है।
सप्तर्षियों की कृपा से स्त्रियाँ रजस्वला अवस्था में हुए स्पर्शास्पर्शजनित दोष से मुक्त हो जाती हैं। ऐसे ही सर्वतोभद्रमण्डल में भी सप्तर्षियों का पूजन होता है। सप्तर्षियों के पूजनका वैदिक मन्त्र इस प्रकार है :
“सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्।
सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ।।”
~यजुर्वेद (३४ । ५५)
सप्तर्षियों का लोक पर महान् अनुग्रह है। इनका मर्यादित आचरण नित्यचर्या के लिये आदर्शरूप है। इन्होंने गृहस्थधर्म का अनुवर्तन तो किया ही, इनकी ज्ञान- निष्ठा, तपस्या, अध्यात्मदर्शन, शास्त्र चिन्तन भी अनुपमेय है। ज्योतिश्चक्र में सप्तर्षि-मण्डल की विशेष प्रतिष्ठा है।