डा. प्रेम सिंह
(यह लेख पहले अप्रैल 2019 में प्रकाशित हुआ था. नए पाठकों के लिए फिर से जारी किया गया है.)
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पात्रता के पक्ष में विभिन्न कोनों/स्रोतों से लगातार स्वीकृति और समर्थन हासिल किया है. हालांकि पांच साल प्रधानमंत्री रह चुकने के बाद काफी लोग मोदी-मोह से बाहर आ चुके हैं. फिर भी यह हवा बनाई जा रही है कि अगले प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे. ज्यादातर मतदाता इस हवा के साथ हैं या नहीं, इसका पता 23 मई को चुनाव नतीजे आने पर चलेगा. फिलहाल की सच्चाई यही है कि टीम मोदी, कारपोरेट घराने, आरएसएस/भाजपा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), मुख्यधारा मीडिया और ‘स्वतंत्र’ मोदी-समर्थक उनकी एकमात्र पात्रता के समर्थन में डटे हैं. नरेंद्र मोदी की पात्रता के कोरसगान में खुद नरेंद्र मोदी का स्वर सबसे ऊंचा रहता है. मोदी की पात्रता के प्रति यह जबरदस्त आग्रह अकारण नहीं हो सकता है. इस परिघटना के पीछे निहित जटिल कारणों को सुलझा कर रखना आसान नहीं है. फिर भी मुख्य कारणों का पता लगाने कोशिश की जा सकती है.
उन कमजोर आत्माओं को इस विश्लेषण से अलग गया है, जो अभी भी मोदी को अवतार मानने के भावावेश में जीती हैं. साधारण मेहनतकश जनता को भी शामिल नहीं किया गया है, जो उसका शोषण करने वाले वर्ग द्वारा तैयार आख्यान का अनुकरण करने को अभिशप्त है. इस लेख में मोदी की समस्त गलत बयानियों (जिनमें वैवाहिक स्टेटस से लेकर शैक्षिणक योग्यता तक की गईं गलतबयानियां शामिल हैं), मिथ्या कथनों, अज्ञान, अंधविश्वास और घृणा के सतत प्रदर्शन के बावजूद उनकी पात्रता का समर्थन करने वालों की पड़ताल की कोशिश है. देश-विदेश में फैले ये मोदी-समर्थक समाज के पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोग हैं. या उस पथ पर अग्रसर हैं.
पहले कोरपोरेट घरानों को लें. मोदी का अपने पिछले चुनाव प्रचार में कारपोरेट घरानों के अकूत धन का इस्तेमाल करना, बतौर प्रधानमंत्री अपनी छवि-निर्माण में अकूत सरकारी धन झोंकना, जियो सिम का विज्ञापन करना, नीरव मोदी का विश्व आर्थिक मंच के प्रतिनिधि मंडल में उनके साथ शामिल होना, विजय माल्या और मेहुल चौकसी का सरकारी मशीनरी की मदद से देश छोड़ कर भागना, राजनीतिक पार्टियों को मिलाने वाली कारपोरेट फंडिंग को गुप्त रखने का कानून बनाना, लघु व्यापारियों और छोटे किसानों की आर्थिक कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी करना, महज कागज़ पर मौजूद रिलायंस जियो इंस्टिट्यूट को ‘एमिनेंट’ संस्थान का दर्ज़ा देना, विमान बनाने का 70 साल का अनुभव रखने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान एअरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बजाय राफेल सौदे को हथियाने की नीयत से बनाई गई कागज़ी कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फ़्रांसिसी कंपनी डसाल्ट का पार्टनर बनाना, विभिन्न सरकारी विभागों में संयुक्त सचिव के रैंक पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को बेलगाम रफ़्तार देना … जैसी अनेक छवियां और निर्णय यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कारपोरेट घरानों के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है.
आरएसएस/भाजपा की नज़र में मोदी की पात्रता के बारे में इतना देखना पर्याप्त है कि उनके किसी नेता ने मोदी की कारपोरेटपरस्त नीतियों का परोक्ष विरोध तक नहीं किया है. क्योंकि आरएसएस/भाजपा संतुष्ट हैं कि मोदी ने दिल्ली में एक हजार करोड़ की लागत वाला केंद्रीय कार्यालय बनवा दिया है, नागपुर मुख्यालय गुलज़ार है और बराबर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खबरों में रहता है, वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा के लिए अकूत दौलत का इंतजाम कर दिया है. आरएसएस विचारक मग्न हैं कि मोदी के राज में वे सरकारी पदों-पदवियों-पुरस्कारों के अकेले भोक्ता हैं. पूरे संघ परिवार ने स्वीकार कर लिया है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कमल मोदी के नेतृत्व में भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद के कीचड़ में खिलता है. यह वही आरएसएस/भाजपा हैं जिन्होंने दिवंगत मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर बताने पर लालकृष्ण आडवाणी से पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया था. लेकिन मोदी के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से बिना राजकीय कार्यक्रम के अचानक जाकर मिलने पर कोई एतराज नहीं उठाया. क्योंकि वे समझते हैं कि मोदी ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के लिए नवाज़ शरीफ से मिलने नहीं गए थे. वे जरूर किन्हीं बड़े व्यापारियों का हित-साधन करने गए होंगे!
मोदी के समर्थक पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोगों को गहरा नशा है कि मोदी ने मुसलमानों को हमेशा के लिए ठीक कर दिया. जब मोदी पाकिस्तान और आतंकवादियों को ठिकाने लगा देने की बात करते हैं, तब उनके समर्थकों के जेहन में मोदी की तरह भारतीय मुसलमान ही होते हैं. उन्होंने मोदी से सीख ली है, जिसे वे दुर्भाग्य से अपने बच्चों में भी संक्रमित कर रहे हैं, कि मुसलमानों से लगातार घृणा में जीना ही जीवन में ‘हिंदुत्व’ की उपलब्धि है, और वही ‘सच्ची राष्ट्रभक्ति’ भी है. इन लोगों को मोदी की पात्रता का अंध-समर्थक होना ही है. यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि ‘कांग्रेसी राज’ में शिक्षा, रोजगार और व्यापार की सुविधाएं पाने वाला यह मध्यवर्गीय तबका नवउदारीकरण के दौर में काफी समृद्ध हो चुका है.
थोड़ी बात नरेंद्र मोदी की करें कि वे अपनी पात्रता के बारे में क्या सोचते हैं? इधर एक फिल्म एक्टर को दिए अपने इंटरव्यू में मोदी ने कहा बताते हैं कि वे कभी-कभी कुछ दिनों के लिए जंगल में निकल जाते थे. वहां जाकर वे केवल अपने आप से बातें करते थे. उनका जुमला ‘मेरा क्या है, जब चाहूं झोला उठा कर चल दूंगा’ काफी मशहूर हो चुका है. यानी वे इन बातों से अपने वजूद में वैराग्य भाव की मौजूदगी जताने की कोशिश करते हैं. भारत समेत पूरी दुनिया के चिंतन में वैराग्य की चर्चा मिलती है. ‘शमशान घाट का वैराग्य’ मशहूर है. कुछ ख़ास मौकों और परिस्थितियों में जीवन की निस्सारता का बोध होने पर व्यक्ति में वैराग्य भाव जग जाता है. वैराग्य की भावदशा में व्यक्ति सांसारिकता से हट कर सच्ची आत्मोपलब्धि (रिकवरी ऑफ़ ट्रू सेल्फ) की ओर उन्मुख होता है. हालांकि वह जल्दी ही दुनियादारी में लौट आता है. लेकिन इस तरह का क्षणिक वैराग्य और उस दौरान आत्मोपलब्धि का प्रयास हमेशा निरर्थक नहीं जाता. व्यक्ति अपनी संकीर्णताओं और कमियों से ऊपर उठते हुए, जीवन को नए सिरे से देखने और जीने की कोशिश करता है.
लगता यही है कि नरेंद्र मोदी के आत्मालाप ने उन्हें केवल आत्मव्यामोहित बनाया है. वरना सामान्यत: इंसान के मुंह से कोई गलत तथ्य, व्याख्या अथवा किसी के लिए कटु वचन निकल जाए तो वह बात उसे सालती रहती है. वह अपनी गलती के सुधार के लिए बेचैन बना रहता है. अवसर पाकर अपने ढंग से गलती का सुधार भी करता है. मोदी के साथ ऐसा नहीं है. वे एक अवसर पर अज्ञान, मिथ्यात्व और घृणा से भरी बातें करने के बाद उसी उत्साह से अगले अवसर के आयोजन में लग जाते हैं. ज़ाहिर है, वे अपनी नज़र में अपनी पात्रता को संदेह और सवाल से परे मानते हैं. इसीलिए उन पर संदेह और सवाल उठाने वालों पर उन्हें केवल क्रोध आता है. मोदी ने अपना यह ‘गुण’ अपने समर्थकों में भी भलीभांति संक्रमित कर दिया है. दोनों संदेह और सवाल उठाने वाले ‘खल’ पात्रों को ठिकाने लगाने में विश्वास करते हैं.
मोदी सबसे पहले खुद अपने गुण-ग्राहक हैं. उनकी कामयाबी यह है कि अपने ‘गुणों’ को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए वे अभी तक के सबसे बड़े इवेंट मैनेजर बन कर उभरे हैं. कहना न होगा कि अपने ‘गुणों’ को प्रचारित-प्रसारित करने का यह फन उनके कारपोरेट-परस्त चरित्र से अभिन्न है. मोदी आत्म-मुग्धता में यह मान सकते हैं कि कारपोरेट घराने उनके खिलौने हैं. जबकि सच्चाई यही है कि वे खुद कारपोरेट घरानों के हाथ का खिलौना बनने हुए हैं. साहित्य, विशेषकर यूरोपीय उपन्यास में, आत्म-व्यामोहित नायकों की खासी उपस्थिति मिलती है. अपनी समस्त आत्म-मुग्धता के बावजूद वे वास्तव में यथास्थितिवाद का खिलौना मात्र होते हैं. इन नायकों की परिणति गहरे अवसाद और कई बार आत्महत्या में होती है. बहरहाल, जिस तरह कारपोरेट पूंजीवाद के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है, मोदी के लिए भी वैसा ही है – वे कारपोरेट पूंजीवाद के स्वयंसिद्ध सर्वश्रेष्ठ पात्र हैं.
मोदी की पात्रता की स्वीकृति का एक महत्वपूर्ण कोना/स्रोत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति का है. अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, चीन जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दबदबे वाले देश दुनिया के सत्ता पक्ष और विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं की पूरी जानकारी रखते हैं. ऐसा नहीं है कि ये देश मोदी के इतिहास और विज्ञान के ज्ञान के बारे में नहीं जानते हैं. मोदी के साम्प्रदायिक फासीवादी होने समेत उन्हें सब कुछ पता है. अमेरिका ने गुजरात के 2002 के साम्प्रदायिक दंगों को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन बताते हुए 2005 में मोदी के अपने देश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था. ब्रिटेन ने 2002 के दंगों के बाद गुजरात की मोदी सरकार से 10 साल तक आधिकारिक संबंध तोड़ लिए थे. अन्य कई देशों ने दंगों के लिए नरेंद्र मोदी की तीखी भर्त्सना की थी.
लेकिन जैसे ही मनमोहन सिंह के बाद निगम पूंजीवाद के स्वाभाविक ताबेदार नेता की खोज शुरु हुई, उनकी नज़र मोदी पर गई, जो पहले से गुजरात में नवउदारवाद की विशेष प्रयोगशाला चला रहे थे, और इस नाते कुछ देशी कारपोरेट घरानों की पहली पसंद बन चुके थे. एक विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात की. प्रधानमंत्री बनने पर अमेरिका ने उनका वीजा बहाल कर दिया. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन संबोधित करने के लिए बुलाया और अपने साथ प्राइवेट डिनर का मौका प्रदान किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर ओबामा भारत के गणतंत्र दिवस पर विशिष्ट अतिथि के रूप शामिल हुए. आगे की कहानी सबको मालूम है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में खुदरा से लेकर रक्षा क्षेत्र तक – सब कुछ सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया. दरअसल, नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का एक एजेंडा भारत से साम्राज्यवाद विरोध की चेतना और विरासत को नष्ट करना है. ये शक्तियां जानती हैं आरएसएस और मोदी के सत्ता में रहने से यह काम ज्यादा आसानी और तेजी से हो सकता है. नवसाम्राज्यवादी शक्तियों की नज़र में मोदी की पात्रता का यह विशिष्ट आयाम गौरतलब है.
मोदी की पात्रता की पड़ताल करने वाली यह चर्चा अधूरी रहेगी अगर इसमें प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे की भूमिका को अनदेखा किया जाए. इस विषय में विस्तार में जाए बगैर केवल इतना कहना है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के तत्वावधान में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले सारा सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य गड्ड-मड्ड कर दिया था. उसकी पूरी तफसील ‘भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ’ (वाणी प्रकाशन, 2015) पुस्तक में दी गयी है. नवउदारवाद के वैकल्पिक प्रतिरोध को नष्ट करके उसे (नवउदारवाद को) मजबूती के साथ अगले चरण में पहुँचाने के लक्ष्य से चलाया गया वह आंदोलन नवउदारवाद के अगले चरण के नेता को भी ले आया. विचारधारात्मक नकारवाद के उस शोर में सरकारी कम्युनिस्टों ने केजरीवाल नाम के एक एनजीओ सरगना में लेनिन देख लिया था; और उसे मोदी का विकल्प बनाने में जुट गए थे. (मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान के पहले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं ने अपनी तरफ से कांग्रेस का मृत्यु-लेख लिख दिया था.) इस तरह विकल्प का संघर्ष भी अगले चरण में प्रवेश कर गया! भारतीय राजनीति में हमेशा के लिए यह तय हो गया कि अब लड़ाई नवउदारवाद और नवउदारवाद के बीच है. अर्थात नवउदारवाद के साथ कोई लड़ाई नहीं है. जो भी झगड़ा है वह जाति, धर्म, क्षेत्र, परिवार और व्यक्ति को लेकर है. या फिर देश के संसाधनों और श्रम की नवउदारवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने को लेकर है. वही पूरे देश में हो रहा है. यह सही है कि मोदी भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद का खिलौना भर हैं, लेकिन इस रूप में वे भारत के शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.
(सोशलिस्ट आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के पूर्व फ़ेलो हैं)