रामस्वरूप मंत्री
17मई 2025 को भारत में समाजवादी आंदोलन के 90वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर देश के विभिन्न राजनीतिक दलों में और ट्रेड यूनियन आंदोलन में कर्यरत समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पुणे में इकट्ठा हो रहे हैं तीन दिन तक यह सभी नेता कार्यकर्ता समाजवादी आंदोलन की दशा और दिशा पर गहन मंथन करेंगे।समाजवादी आंदोलन के 90 वर्ष पूरे होने का यह अवसर हमें इस आंदोलन के इतिहास, महत्व, और भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने का मौका है।
भारत में समाजवादी आंदोलन की शुरुआत 1930 के दशक में हुई थी, जब देश ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में जुटा हुआ था। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य समाज में समानता और न्याय स्थापित करना था। समाजवादी आंदोलन के प्रमुख नेताओं में डॉ. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, और आचार्य नरेंद्रदेव शामिल थे । भारत की स्वतंत्रता के बाद, समाजवादी आंदोलन ने अपने कार्यों को और भी विस्तारित किया।समाजवादी आंदोलन के नेताओं ने गरीबी, बेरोजगारी, और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी । भारत में समाजवादी आंदोलन के 90 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाने के लिए, आइए इस आंदोलन के इतिहास और महत्व पर एक नज़र डालें।
समाजवादी आंदोलन का इतिहास विलय, विभाजन तथा दल-बदल और टूट का रहा है। विचारधारा के मुद्दों को लेकर इसमें कोई निरंतरता नहीं रही है । यह एक दुखद टिप्पणी है कि कभी नहीं रुकने वाने गुटीय संघर्ष और नेताओं की अनियंत्रित महत्वाकांक्षा और उनकी व्यक्तिगत दुस्मनी से भरा रहा है समाजवादी आंदोलन। व्यक्तिवाद भारतीय समाजवादी के लिए अभिशाप रहा है। समाजवादी नेता विचारों के इर्द-गिर्द काडर तैयार करने के बदले व्यक्तियों के इर्द-गिर्द काडर तैयार करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते रहे हैं।” पार्टी में झगड़ों को लेकर डॉ. लोहिया ने पचमढ़ी सम्मेलन के अपने महत्वपूर्ण भाषण में सामाजिक बहस और व्यक्तिगत आक्रमण और पार्टी की लड़ाई और विचारधारा की आड़ में सांगठनिक संघर्ष में भेद किया था। उन्होंने कहा था कि “उस समय बड़ी नाजुक परिस्थिति होती है, जब फैसला लेना होता है और मतांतर हो। लोकतंत्र में बहस और बहुमत के फैसले के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये फैसले सही ही हों। लेकिन यह कोई वजह नहीं कि जो लोग फैसले से असहमत हों, वे फैसले के पीछे पड़ जाएं और गलतियों के पीछे कोई काल्पनिक मंशा तलाशें और हर मतभेद को सिद्धांत का संकट में बदल डालें। कोई भी पार्टी लगातार संकट की अवस्था में जिंदा नहीं रह सकती। इसी के साथ, फैसले सुविचारित सिद्धांतों के आधार पर और गहराई से की गई चर्चा के बाद लिए जाने चाहिए, न कि दबाव के तहत जल्दीबाजी में। ये चीजें निरंकुशता और मजबूरी दिखाती हैं।”
सन 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय से ही मतों और फैसले को लेकर हर कदम पर मतभेद रहे हैं। वे इस ‘स्वराज’ के खाका के आधार पर संघर्ष करना चाहते थे ताकि लाखों लोगों को आर्थिक और सामाजिक शोषण से मुक्त समाज बनाने में भागीदार बनाया जा सके। लेकिन यह आंदोलन विचारधारा और नेतृत्व दोनों स्तरों पर बुरी तरह विफल हो गया। स्वातंत्र्योत्तर काल में भी यह विचारधारा के संघर्ष की आड़ में व्यक्तिगत झगड़ों से ग्रस्त रहा।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जीवनकाल बहुत छोटा रहा, 1934 से 1938 के बीच सिर्फ पांच साल ? इसी अवधि में इसका जन्म भी हुआ और विकास भी, भले ही मजबूती से नहीं। इस अवधि में भी इसे काफी सीमाओं के भीतर काम करना पड़ा। सीएसपी के संस्थापकों में समाजवाद को लेकर सोच का भी अंतर था। दूसरा, शुरुआती काल में कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की नीति भारत में समाजवादी विचार और आंदोलन की प्रगति के लिहाज से बुरी तरह विफल साबित हुई।
शुरुआत से, समाजवादी आंदोलन में कई कमजोरियां थी। समाजवाद का यह स्वरूप सिर्फ शिक्षित मध्यवर्ग के चमकदार आदर्शों के रूप में सीमित रहा और इसे विचारधारा और संस्था का वैसा स्वरूप नहीं दिया जा सका जिसके साथ आम लोग अपनी पहचान और भागीदारी कर सकें। शिक्षित मध्यवर्ग इन आदर्शों को जनता के पास उनकी भाषा में नहीं ले जा सके। दूसरा, समाजवादी अपने विचारों को बौद्धिक सिद्धांत से लोगों को लामबंद करने वाली ताकत में नहीं बदल सके। उनका समाजवाद भावना और राष्ट्रवादी अपील से रहित था। तीसरा, राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में विफलता और आजादी के पहले महात्मा गांधी तथा इसके बाद पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के करिश्माई नेतृत्व के कारण समाजवादी आंदोलन कभी अपनी जड़ें नहीं जमा सका।
शुरू से ही, विचारधारा और प्रकिया में समाजवादी आंदोलन में कमजोरी के चिह्न दिखाई पड़ रहे थे। सन 1939 में, द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरू होने के बाद ब्रिटेन और सोवियत यूनियन के बीच की संधि ने भारतीय कम्युनिस्टों की नीति में परिवर्तन ला दिया। इससे भारतीय समाजवादियों पर मार्क्सवाद की पकड़ कमजोर हो गई। चालीस के दशक में गांधीवाद ज्यादा प्रासंगिक हो गया।
सन 1945-47 में, समाजवादी आंदोलन हिचकिचाहट, अनिर्णय तथा भ्रम की स्थिति से गुजर रहा था। इसे समाजवादियों ने तटस्थता के नाम पर पर उचित ठहराने की असफलतापूर्वक कोशिश की। संविधान सभा के लिए 1946 में हुए चुनावों का बहिष्कार कर समाजवादियों ने भारी गलती की।
आजादी के बाद गांधीवाद के सामने मार्क्सवाद को त्याग दिया गया। सन 1948 में समाजवादी कांग्रेस से इस उम्मीद में अलग हो गए कि भविष्य में वे प्रमुख क्रांतिकारी तथा जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका अकेले निभाएंगे। पार्टी को लगा कि वह कांग्रेस का टिकाऊ विकल्प देगी। लेकिन 1952 की करारी हार ने पार्टी के नेताओं की सारी उम्मीद चकनाचूर कर दी। एक और गलती थी 1952 के चुनावों के बाद किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलय। सन 1955 में, मधु लिमये ने स्वीकार किया कि यह सोशलिस्ट पार्टी की भारी गलती थी।
पार्टी नेताओं के अपने विशिष्ट गुण भी पार्टी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुए । हर नेता की अपनी राजनीतिक हैसियत थी और वह दूसरे से अलग भाषा में बात करते थे। कुछ लोग अत्यंत व्यक्तिवादी थे। कांग्रेस के सवाल पर पार्टी के नेतृत्व में सदैव विभाजन था। कांग्रेस से सहयोग के बारे में मतभेद और जेपी के सर्वोदय में जाने से एक सच्चे समाजवादी विकल्प को स्थायी रूप से ध्वस्त कर दिया। लोहिया के तेवर तथा पीएसपी की मानसिकता उस समय से ही समाजवादियों के लिए कठिनाई पैदा कर रही थी।
आचार्य नरेंद्र देव की मौत, जेपी का सर्वोदय की ओर मुड़ना, ‘पिछड़ी अर्थव्यवस्था की मजबूरियां’ के मुद्दे पर अशोक मेहता का पार्टी की लाइन से हटने के खिलाफ लोहिया का विद्रोह तथा मेहता का पार्टी से बाहर जाना आदि ने समाजवादी आंदोलन को कमजोर हाथों में छोड़ दिया जिनमें गतिशीलता, तथा सृजनशील व्यक्तित्व की ताकत का अभाव था। वास्तविकता यही है कि समाजवादी आंदोलन बाहरी दबाव के कारण नहीं बिखरा बल्कि इसमें अंदरूनी मतभेद थे। सांगठनिक कमजोरी पार्टी की प्रमुख कमजोरी थी और आज भी है।
निस्संदेह, समाजवादी आंदोलन विफल हो गया, लेकिन भारत के राजनीतिक तथा सामाजिक आर्थिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए और भारत के राजनीतिक तथा सामाजिक-आर्थिक इतिहास पर असर डाले बगैर नहीं रहा है। आजादी के पहले के दिनों में, समाजवादी सही सोचते थे कि आजादी हासिल करना आधा युद्ध जीतने के बराबर है। इसे एक समतावादी समाज की स्थापना के जरिये ही पूर्ण किया जा सकता है। समाजवादियों ने राष्ट्रीय आंदोलन और इसके बाद राजनीति का सामाजिक आधार का विस्तार किया।
भारत के समाजवादी लोकतंत्र, सिविल नाफरमानी तथा विकेंद्रीकरण के पक्ष में लड़े। यह उनके मूल सिद्धांत थे। चौखंभा राज, छोटी इकाई की मशीन और आर्थिक बराबरी समाजवादी कार्यक्रम में शामिल थे। भारतीय राजनीति में सामाजिक लोकतंत्र और समतावादी-समाज के विचार समाजवादी आंदोलन नेताओं के महत्वपूर्ण योगदान हैं। जो निश्चित ही सराहनीय है। समाजवादियों ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को नई दिशा देने का काम किया है। आज के दौर में भारत की राजनीतिक व्यवस्था में समाजवादी विचारधारा की बहुत आवश्यकता है। इस दौर में समाजवादी विचारधारा पर आधारित एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था की आवश्यकता है जहां देश लोकतांत्रिक समाज के साथ-साथ समतामूलक समाज एवं धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था स्थापित कर सके।
यूं तो देश में समाजवाद ,धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले अनेकों दल कार्यरत है और उनमें हजारों की तादाद में समाजवादी आंदोलन के संघर्ष से पैदा हुए राजनीतिक कार्यकर्ता भी सक्रिय हैं, लेकिन आज की स्थिति में कोई दल अपने आप को पूर्ण रूप से समाजवादी विचारों का दल होने का दवा नहीं कर सकता है ,क्योंकि जो भी दल देश में चल रहे हैं उनमें से अधिकांश दल व्यक्तिवादी और परिवारवादी हो गए हैं ।डॉक्टर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के जमाने के समाजवादी दल को छोड़ भी दिया जाए तो भी बाद में मधु लिमए , राज नारायण, जार्ज फर्नांडिस आदि के समय के समाजवादी दल में भी छोटे से छोटा कार्यकर्ता यह उम्मीद जरूर कर सकता था कि वह अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व तक पहुंच सकता है, लेकिन आज की हालत में जो दल समाजवादी होने का दावा करते हैं उन दलों में कार्यरत कार्यकर्ता अपने दल के प्रथम पंक्ति के नेता बनने का सपना भी नहीं देख सकते हैं । इस कमजोरी पर पुणे में इकट्ठा हो रहे समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गहन मंथन करने की जरूरत है । समाजवादी आंदोलन का मूल मंत्र था वोट, जेल और फावडा, याने चुनाव, संघर्ष और रचना, लेकिन आज के समाजवादी दलों में इन तीनों का अभाव है। देश में आज समस्याएं 60 और 70 के दशक से भी ज्यादा है। सांप्रदायिकता का खतरा बड़ा है, बेरोजगारी और महंगाई की समस्या चरम पर है। ऐसे में समाजवादियों का कर्तव्य है कि वह संघर्ष ,जेल और फावड़ा की राजनीति को फिर से जिंदा करें । लेकिन इसके लिए जरूरी है कि संकल्प वान नेता और कार्यकर्ता देश भर में घूम कर बिखरे हुए समाजवादियों को एकजुट करें और संघर्ष की राह दिखाएं।
रामस्वरूप मंत्री
(लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी नेता और वर्तमान में समाजवादी पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव हैं)
Add comment