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यूएन में बातें नहीं, नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति ही काम आई

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शकील अख़्तर
बातों से काम केवल अपने देश में ही चलता है दुनिया में नहीं। यहां भक्त और मीडिया मान गए थे कि विश्व में भारत की इज्ज़त 2014 के बाद ही बढ़ी है। इससे पहले तो भारत में जन्म लेना शर्म की बात होती थी। ये प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा था और उसके बाद फाॅरवर्डेड मैसेज, न्यूज़ चैनलों और अख़बारों ने वह माहौल बनाया कि पद्मश्री प्राप्त करते ही कंगना रनौत ने बताया कि देश को आज़ादी ही 2014 में मिली थी।
मगर ये सारी कहानियां ( नरेटिव) दुनिया नहीं मानती। वह भारत को गांधी और नेहरू के नाम से ही याद करती है। बदतमीज़ दुनिया है। इसे किसी दिन सबक सिखाया जाएगा। हम विश्व गुरु हैं। सबको कान पकड़कर उठ्ठक बैठक करवाएंगे। अभी यूक्रेन के बहाने अमेरिका और रूस ने हमें धर्मसंकट में डाल दिया था। मगर जैसा कि कहते हैं कि ख़राब आदमी भी कभी कभी काम में आ जाता है तो ऐसे ही नेहरू की गुट निरपेक्षता की नीति के बदौलत यूएन में हमने अपनी लाज बचाई। लगता है विदेश विभाग में अभी भी नेहरू को मानने वाले कुछ लोग बचे हैं। इन्हें व्हाट्स एप पर ज़्यादा जोड़ना पड़ेगा और बताना होगा कि नेहरू बिलकुल पढ़े-लिखे नहीं थे और किताबें किस और से लिखवाते थे। वे जेल भी नहीं गए थे, घर में ही रहते थे – सब बताना पड़ेगा। मगर अभी तो उन्होंने काम चला दिया है। और अच्छा चलाया इसलिए चुप रहना ही ठीक है। नेहरू को गालियां देने का काम बाद में शुरू किया जाएगा। 
यह बात बिल्कुल सही है कि नेहरू को फिर से जल्दी ही भारत में नए आरोपों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में एक बार फिर से उनकी गुट निरपेक्षता की नीति सही साबित हुई है। अमेरिका के पीछे हटने और रूस के आगे बढ़ने से सबकी समझ में आ गया कि इन दोनों महाशक्तियों के खेल में जो भी फंसेगा, नुक़सान वह खुद उठाएगा। कोई किसी की मदद करने नहीं आएगा। राष्ट्रपति को खुद ही बंदूक उठाना पड़ेगी। हालांकि वह निर्रथक होगी। प्रतीकात्मक होगी। राष्ट्राध्यक्ष का काम बंदूक उठाना नहीं होता। बल्कि ऐसी नीतियां बनाना होता है कि सेना को भी बंदूक उठाने की ज़रूरत ना पड़े। लेकिन यूक्रेन के राष्ट्रपति जे़लेंस्की रूस को कम करके और अमेरिका को ज्यादा आंकते रहे। नतीजा अपनी जनता और सेना को भारी ख़तरे में डालना हुआ। अमेरिका और नाटो दूर खड़े हो गए और यूक्रेन एक नया देश भारी मुसीबतों से घिर गया। उसके राष्ट्पति को आज याद आ रहा है कि उसकी दो हज़ार किलोमीटर सीमाएं रूस से लगी हुई हैं। मगर पहले वह क्या सोच रहे थे कि नाटो उनकी इतनी लंबी सीमाओं की रक्षा करने आएगा?
मगर फ़िलहाल हम बात भारत की कर रहे हैं कि इस विवाद में उसकी भूमिका क्या है और क्या हो सकती है। हालांकि हमारे टीवी चैनल युद्ध शुरू होने से पहले कह चुके थे कि मोदी कहेंगे और पुतिन और बाइडेन मानेंगे। संसद सदस्य हेमा मालिनी इससे भी दो कदम आगे बढ़ गईं। उन्हें शायद शोले की याद आ गई। कहने लगीं कि मोदी जी जाएंगे और दोनों के हाथ पकड़कर रोक देंगे। ऐसी बातों से दुनिया में अपना मजाक हम खुद उड़वाते हैं। एक ही जोश में यूपी का और अमेरिका का चुनाव प्रचार कर लेते हैं। अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा भी दे देते हैं। मगर इन सबके बावजूद विश्व में हमारी प्रतिष्ठा है। बस दुखद यह है कि वह उन नेहरू और इन्दिरा की वजह से है जो हमें बिल्कुल अच्छे नहीं लगते मगर पता नहीं कैसे दुनिया में उनके नाम की धूम है। 
अभी यूएन में जब हमने कोई पक्ष न बनने का निर्णय लिया तो यही कहा गया कि यह नेहरू की विदेश नीति का गोल्डन रूल था। यह भी कहा जा रहा है कि नेहरू इसके बाद और आगे बढ़कर उन देशों से बात करते जो युद्ध नहीं चाहते हैं। ऐसे देशों की तादाद सबसे ज्यादा है। इन्हीं की जोड़कर नेहरू ने विकासशील देशों और तीसरी दुनिया के नेताओं के साथ मिलकर एक बड़ा ब्लाॅक गुट निरपेक्ष देशों का बनाया था। जिसमें 120 से ज़्यादा देश सदस्य थे। युद्ध अमेरिका और रूस के लिए शक्ति प्रदर्शन की चीज थी मगर ग़रीब देशो के लिए – जिनके नाम पर ये लड़ते थे, बर्बादी तथा और पीछे हो जाने की चीज़ थी।
आज भी स्थिति यही है। युद्ध सिवाय भारतीय टीवी चैनलों के और कोई नहीं चाहता। अगर हमारे नेता और विदेश नीति पर काम करने वाले न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दें तो वे एक बार फिर भारत की प्रतिष्ठा को वापस उसी दौर में पहुंचा सकते हैं जब इन्दिरा गांधी की एक गर्जना के बाद अमेरिका के सातवें बेड़े ने अपना रुख़ वापस अमेरिका की तरफ मोड़ लिया था। वह अपने आप में इतिहास है। पढ़ना होगा। फाॅरवर्डेड मैसेजों में नहीं मिलेगा। चैनलों ने तो अभी बांग्ला देश के पचास साल पूरे होने पर भी उस गौरवशाली अध्याय को छुपाने की कोशिश की जिसमें इन्दिरा ने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा था कि सातवां नहीं, आठवां बेड़ा भी भेज दो। भारत की सेनाएं अब बांग्ला देश को आजाद कराए बिना नहीं रुकेंगी।  विडबंना यह है कि हमारे नेता नया कुछ नहीं कर सकते, मगर पिछले सब किए धरे पर पानी फेरने को तैयार बैठे हैं। अभी साल, डेढ़ साल पहले ही ऐसे विदेश मंत्री ने जो विदेश सेवा में रहे थे, एस जयशंकर ने कहा कि गुट निरपेक्ष नीति अप्रसांगिक हो गई है। भारत अब उस नीति से आगे निकल आया है। आगे निकलकर बातों के अलावा और कौन सा नया कारनामा किया, यह वे नहीं बता सकते। लेकिन ज़रूरत पड़ने पर नेहरू की विदेश नीतियों को फिर से बिना उनका नाम लिए अपना ज़रूर सकते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। अच्छी बात है। बस भक्त ज़रूर कन्फ्यूज़ हो जाते हैं। वे बेचारे सोच रहे थे कि हम सेना लेकर जाएंगे और दोनों देशों को एक साथ ठोंक आएंगे। मगर हमारे वोट ही नहीं देने से वे अकबका जाते हैं। मगर फिर वह्ट्स एप मैसेज उनका ध्यान दूसरी और मोड़कर बता देता है कि राहुल ने अभी तक इस युद्ध में कुछ नहीं किया। फंसे हुए हज़ारों भारतीय बच्चों को वापस भी नहीं लाया। तो वे फिर उसी जोश में पूछने लगते हैं कि राहुल क्या कर रहे हैं? क्या भारतीय छात्रों को वापस लाना कांग्रेस की जिम्मेदारी नहीं है? व्हाट्स एप और चैनल विदेश नीति को संभालने में इतने कारगर होंगे, यह किसी ने नहीं सोचा था। यह तो दुर्भाग्य है कि पहले यह व्हाट्स एप और न्यूज़ चैनल नहीं थे, नहीं तो दूसरा विश्व युद्ध जीतने का श्रेय हमको ही मिलता। और नेहरू एवं इन्दिरा को इतना बदनाम किया जा चुका होता कि भक्त रावण और दुर्योधन को अच्छा और उस समय इन दोनों ने क्या गलतियां की, यह बताते होते।
रुस और यूक्रेन भारत से करीब पांच हज़ार किलोमीटर दूर हैं। और रूस से अमेरिका करीब नौ हज़ार किलोमीटर दूर, जहां यूएन के मुख्यालय में इस लड़ाई पर भारत की भूमिका ने उसकी वैश्विक प्रतिष्ठा की छवि फिर से स्थापित कर दी। अब यह हमारे नेताओं पर है कि वे अपनी झूठी छवि जिससे भक्त प्रभावित रहते हैं में ही खुश हैं या दुनिया में भारत की और भारत के नेताओं की वास्तविक प्रतिष्ठा वापस चाहते हैं। आपके पास मौका है कि आप नेहरू से बड़ी लाइन खींच दें। झूठ से नेहरू की लाइन छोटी नहीं होगी। हां, बड़ा काम करके आप नेहरू से क्या विश्व के दूसरे सभी नेताओं से आगे निकल सकते हैं। मगर काम करके। केवल बातों से यह संभव नहीं।

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