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नेपाल चुनाव के नतीजे…जमीनी बदलाव

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चंद्रभूषण
नेपाल की चुनाव प्रक्रिया जटिल है। इसके नतीजे अंतिम रूप से आने में पूरे दस दिन का समय लग जाता है। लेकिन जो इसकी प्रत्यक्ष सीटों के नतीजे आए हैं, उनसे मोटे तौर पर एक अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेपाल में जनादेश किस तरह का है। प्रत्यक्ष प्रतिनिधियों की 165 सीटें केंद्र में हैं और ऐसी 330 सीटें राज्यों की विधानसभाओं में हैं। अभी जैसा दिख रहा है, चुनाव के कुछ रुझान तो बहुत स्पष्ट हैं-

  • एक तो यह कि मिली-जुली सरकारें केंद्र और शायद सभी राज्यों में भी बननी हैं। केंद्र और सात में से एक भी राज्य में किसी पार्टी को अपने दम पर सरकार बनाने लायक 50 फीसदी से ज्यादा सीटें नहीं मिलने वालीं।
  • दूसरे, इस जनादेश में नेपाली कांग्रेस लीडरशिप की पोजिशन में है। कुल प्रत्यक्ष सीटों में से एक तिहाई नेपाली कांग्रेस को मिली हैं। जो परोक्ष वोटिंग होती है, यानी जो वोट प्रत्याशी को नहीं, पार्टी को दिए जाते हैं, मोटे तौर पर वहां भी यही स्थिति है। एक तिहाई या इससे थोड़ा ज्यादा (56) सीटें नेपाली कांग्रेस को मिल रही हैं।
  • नेपाली कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वह सबसे बड़ा गठबंधन लेकर चुनाव में गई थी, लेकिन सहयोगियों के नतीजे काफी खराब आए। गठबंधन में दूसरे नंबर की पार्टी माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर है, जिसकी 17 सीटें आती दिख रही हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी- संयुक्त समाजवादी को दस और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी को तीन सीटें मिल सकती हैं।
  • मोटे तौर पर प्रत्यक्ष चुनाव वाली 165 सीटों में 85 से 90 के बीच गठबंधन की आ रही हैं। यह सब मिलाकर भी उनकी मेजॉरिटी मुश्किल से ही बन रही है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि यह गठबंधन जनादेश को अपने पक्ष में क्लेम कर सकता है।
  • बात करें 110 अप्रत्यक्ष सीटों की, जो पार्टियों को मिले वोटों के आधार पर चुने गए प्रतिनिधियों से भरी जाती हैं, तो इनका भी रुझान ऐसा ही है। इससे लग रहा है कि यह मैंडेट सत्तारूढ़ गठबंधन के पक्ष में होते हुए भी एकतरफा नहीं है।

v काठमांडू में सोमवार को मतगणना में जुटे कर्मचारी (फोटोः AP)

इसके विरोध में जो विपक्षियों का गठबंधन है, वह नाममात्र का ही है। वह लगभग पूरी तरह से नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले है, जिसे कुछ समय से लोग केपी शर्मा ओली की पार्टी भी कहने लगे हैं। नेपाली राजनीति में ओली चर्चित व्यक्तित्व हैं। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए काफी विवाद खड़े हुए, खासकर भारत को लेकर। भारत के बरक्स उनका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा रहा है। इनकी पार्टी के गठबंधन में 140 से ज्यादा सीटें प्रत्यक्ष सीटें एमाले ने ही लड़ीं और बीसेक सीटें उन्होंने अपने सहयोगियों को दीं। सब मिलाकर अभी ऐसा लग रहा है कि उनकी 50 के आसपास सीटें ही आ रही हैं, इससे ज्यादा नहीं। इस आधार पर वह सरकार बनाने का दावा तो नहीं कर सकते, लेकिन एक मजबूत विपक्ष के रूप में वह बने रहेंगे।

जमीनी बदलाव
जिस तरह से हम भारत में जनमत की व्याख्या करते हैं, उस तरह से देखने पर यह कहा जा सकता है कि यह मैंडेट नेपाली कांग्रेस वाले गठबंधन के पक्ष में और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले के विरोध में है। लेकिन यह ऊपरी बात ही है, क्योंकि नेपाल में जमीनी स्तर पर बहुत सारी नई बातें हुई हैं।

  • एक तो यह कि नेपाली स्वतंत्र पार्टी को काफी मजबूत मैंडेट मिला है। सरकार बनाने के खेल में तो वह नहीं रह सकती, दस-बारह सीटों के बल पर, लेकिन खासकर काठमांडू में उसने दस में से चार सीटें जीत लीं। यह देखकर नेपाल की पुरानी पार्टियों- नेपाली कांग्रेस, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं।
  • इसे बनाया रबि लामिचने ने, जो गीत-संगीत से जुड़े व्यक्तित्व रहे हैं। उन्होंने बहुत सारे अकादमिक और दूसरे क्षेत्रों के विशेषज्ञों को साथ में लेकर यह चुनाव लड़ा। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने प्रवासी नेपालियों के साथ मजबूती से खड़े होने का फैसला किया। गल्फ में फंसे कई नेपाली मजदूरों को अपने खर्च पर देश वापस लाए। यहां तक कि कुछ लोग, जिनकी कतर में स्टेडियम बनाते हुए दुर्घटनाओं में मौत हुई थी, उनके शवों को भी वापस लाए। इसे लेकर नेपाल में स्वतंत्र पार्टी के पक्ष में एक आम सहानुभूति थी।
  • यह ऐसी पार्टी है जिसकी अभी कोई विचारधारा तय नहीं है। यह पूरी तरह से भावनाओं की पार्टी है, तो हम नहीं जानते कि आगे इसका स्वरूप कैसा रहेगा। लेकिन एक बात तो है कि नेपाल की जो पुरानी पार्टियां हैं, जो 1990 के लोकतंत्र आंदोलन के बाद वहां लगातार सरकार बनाती आ रही हैं और लगभग हर साल नया प्रधानमंत्री देती आ रही हैं, जो मान बैठी हैं कि सरकार तो उनकी ही बनेगी, लोगों के दिमाग में उनके प्रति काफी आक्रोश और गुस्सा है। जो अपनी विचारधारा की किताबें पेश करती हैं कि इतिहास उनके साथ है और उन्होंने बड़ी कुर्बानियां दी हैं, लोगों पर अब इन चीजों का असर नहीं हो रहा। लोग मानकर चलते हैं कि आप बस ठीक से सरकार चलाइए, बाकी बातें छोड़िए।

सरकार चलाने की हालत यह है कि नेपाल की आमदनी का मुख्य स्रोत विदेशी सहायता है। इससे जुड़ी कई परियोजनाएं सिर्फ इसलिए लटकी हुई हैं कि नेपाल की सत्तारूढ़ राजनीति यही नहीं तय कर पाई कि किस काम में पैसा लगाया जाए। तो ऐसी सरकारों को लोग क्यों सपोर्ट करेंगे?

खतरे की घंटी
नेपाली जनादेश से साफ है कि जनता चाहती है, मिलजुल कर समझदारी से सरकार चलाएं। गवर्नेंस पर ध्यान दें, नहीं तो जमीन उखाड़ दी जाएगी। नई शक्तियां भी उभरकर आ रही हैं। वहां की राजतंत्रवादी पार्टी, जिसका नाम नेपाल प्रजातंत्र पार्टी है, उसको भी इस बार संसद में प्रतिनिधित्व मिलना तय है। वह पांचेक सीटें लेकर आ रही है। यानी नेपाल में ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो राजतंत्र को मौजूदा लोकतंत्र से बेहतर मान रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यह चुनाव परिणाम कुल नेपाल की स्थापित पार्टियों के लिए खतरे की घंटी बजाता हुआ आया है।

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