सुधा सिंह
_आइंस्टीन ने आधुनिक विज्ञान के आधार पर जिन तथ्यों की पुष्टि की, उन रहस्यात्मक तथ्यों और प्रश्नों के उत्तरों की खोज तीन हज़ार वर्ष पूर्व हमारे उपनिषदकार ऋषि पूर्वजों ने कर ली थी।_
हमारा अस्तित्व क्या है, क्यों है और किसने इसका आरम्भ किया ? आदि-आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं जिन पर हमारा आधुनिक विज्ञान शोध कर रहा है, लेकिन आरम्भ में ही जहाँ इन सारगर्भित प्रश्नों पर सर्वप्रथम विचार हुआ, वे थे हमारे उपनिषद्।
भारत में लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व ये प्रश्न पूछे गए थे। श्वेताश्वतर उपनिषद में प्रश्न पूछा गया था–मन चंचल क्यों है ? बृहदारण्यक उपनिषद का प्रश्न था–मनुष्य जब नींद में रहता है तो उसकी इन्द्रियां कहाँ चली जाती हैं ?
इसी प्रकार केनोपनिषद का प्रश्न था–मनुष्य किसकी इच्छा से बोलता है ? कुछ इसी तरह के मौलिक प्रश्न हमारे अन्य उपनिषदों में भी उठाये गए हैं, जैसे– मरणोपरान्त क्या ऐसा कुछ है जो शेष रह जाता है ?
सर्व प्रथम ज्ञान के स्रोत का उद्गम वेद से फूटा, लेकिन वह अधिसंख्य लोगों के दृष्टिपथ पर नहीं आ पाया। फिर उसका स्पष्ट व्याख्यात्मक रूप अभिव्यक्त हो सका हमारे देश के ज्ञानरत्न उपनिषदों के माध्यम से।
उपनिषदों से प्रवाहित यह अमृतमयी ज्ञान-धारा ने अद्वैत वेदान्त तक आते-आते वृहत्सागर का रूप ग्रहण कर लिया जिसमें जगत् के समस्त मनुष्यों ने अवगाहन किया।
उपनिषदों ने जहाँ एक ओर सारगर्भित मौलिक प्रश्नों को उठाया, वहीँ, दूसरी ओर अद्वैत वेदान्त ने ब्रह्म, माया, जगत्, जीव और त्रिगुणात्मिका प्रकृति जैसे रहस्यमय प्रश्नों का समाधान खोजा।
*ब्रह्म क्या है?*
अद्वैत वेदान्त के अनुसार ‘ब्रह्म’ का अर्थ है–जो निरन्तर क्रियाशील है और विस्तार को प्राप्त हो रहा है। आधुनिक युग में इस मत की पहली बार तब पुष्टि हुई जब आइंस्टीन ने कहा–ब्रह्माण्ड लगातार बढ़ रहा है और उसकी बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है।
मगर हमारे ‘अद्वैत वेदान्त’ ने बहुत पहले ही इस विषय पर अपना विचार प्रकट कर दिया था। उसने उसे दो भागों में विभक्त किया–‘ब्रह्म’ और ‘माया’।
अद्वैत वेदान्त ने इस जगत् को निर्माण और उपादान दोनों का कारण बतलाया और कहा कि सृष्टि की रचना के लिए ईश्वर् माया को माध्यम बनाता है।
*माया क्या है ?*
माया उस परम सत्ता की आदि बीज शक्ति है। माया के अनेक रूप और नाम् हैं। अद्वैतवाद ने पूरे विषय को दो खण्डों में बांटा है, साथ ही यह भी कहा है कि जैसे अग्नि के ताप को अग्नि से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार माया है।
माया के बारे में कहा गया है कि ‘जो दिखे तो मगर हाथ में न आये’–उसी का नाम माया है। माया उस भ्रम का नाम है जिसके कारण मनुष्य लगातार किसी- न- किसी के पीछे पड़ा रहता है। कभी धन, कभी यश, कभी कीर्ति, कभी जमीन-जायदात, कभी नारी तो कभी अपने आपके पीछे।
अद्वैतवाद ने इसी माया को मानसिक क्रिया कहा है और ब्रह्म को कहा है–नित्य, चैतन्य और अपरिणामी।
माया ‘सत्’, ‘रज’ और ‘तम’–इन तीनों गुणों के स्वरूपों वाली है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से उत्पन्न होने तक की क्रिया में ये ही तीनों गुण क्रियाशील रहते हैं और जिस शक्ति के द्वारा क्रियाशील होते हैं, वह है माया।
वेदान्त इन पंचतत्वों, पंचभूतों को सूक्ष्मतत्व या ‘तन्मात्रा’ कहता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंचभूतों से –स्पर्श (छूने की क्रिया) नेत्र (देखने की क्रिया), जिह्वा (स्वाद लेने की क्रिया), घ्राण (सूंघने की क्रिया), श्रवण (सुनने की क्रिया)–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पैदा होती हैं। इन्ही के कारण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का बोध होता है।
पञ्च तन्मात्राओं के सात्विक अंश द्वारा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार जैसी आतंरिक वृत्तियाँ उपजती हैं जिनमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रेरक होता है मन। पंचभूतों से निर्मित हुआ है-यह स्थूल शरीर। इसी का नाम् है–‘अन्नमय कोश’ जो शरीर के साथ ही इसी स्थूल जगत् में नष्ट हो जाता है।
शरीर में स्थित पञ्च वायु (पञ्चप्राण) और पांच कर्मेन्द्रियाँ के योग का नाम है–‘प्राणमय कोश’। पांच ज्ञानेन्द्रियों के योग को ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। जबकि बुद्धितत्व युक्त पांच ज्ञानेन्द्रियों को ‘विज्ञानमय कोश’ कहा गया है। अन्तिम कोश सत्वगुण वाला ‘आनन्दमय कोश’ है। भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मृत्यु के बाद भी न नष्ट होने वाला सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, पांच प्राण और मन, बुद्धि और अहंकार के योग से बना है।
यह वह ‘सूक्ष्म शरीर’ है जो प्रारब्ध और संचित कर्मो के कारण मृत्यु के बाद बार-बार जन्म लेता है।