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मजदूरों के गले के आधुनिकतम फंदे हैं नये श्रम कानून

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मुनेश त्यागी 

    मोदी सरकार ने चार  नये श्रम कानून बना कर मजदूरों से वे सारे हक और अधिकार छीन लिए हैं जो उन्होंने हजारों कुर्बानियां और बलिदान देकर, फांसी के फंदे पर चढ़कर, हजारों लाखों की संख्या में जेल जाकर और लाखों की नौकरियां दांव पर लगाने के बाद हासिल किए थे। मोदी सरकार ने इन कानूनों को करोड़ों करोड़ मजदूरों के लाभ पहुंचाने या कल्याण के लिए नहीं बनाया हैं, बल्कि इस देश की लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को और लुटेरे पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने के लिए, उनके अनाप-शनाप मन आंखों में अड़ंगा लगाने वाले प्रावधानों को दूर करने के लिए और उनके मुनाफों को बढ़ाने के लिए बनाए हैं।

     नए कानूनों के वजूद में आने के बाद मजदूरों से अस्थाई नौकरी, यूनियन बनाने का अधिकार, सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार, बोनस और ओवरटाइम वेतन का कानूनी अधिकार, बुढ़ापे की पेंशन और सुरक्षा के अधिकारों को छीन लिया गया है। उनसे अपने विवादों का श्रम न्यायालय से शीघ्र निपटारे का अधिकार भी छीन लिया गया है। फिक्स टर्म नौकरी की व्यवस्था करने के बाद मजदूर, मालिकान की मनमानी और अन्यायपूर्ण व शोषणकारी हरकतों का विरोध नहीं कर पाएंगे। नई कानून आने के बाद मजदूरों के विवाद निपटारे का सरकारीकरण कर दिया गया है और अब श्रम विवाद निपटाने में सरकारी दखलअंदाजी बढ़ेगी और मजदूरों को वर्षों वर्ष न्याय का इंतजार करना पड़ेगा। समझौते की अवधारणा को और प्रावधानों को बदल दिया गया है, अब इनका खात्मा कर दिया गया है। उद्योगों में ठेकेदारी जैसी मजदूर विरोधी प्रथा को कानूनी मान्यता और जामा पहनाने की पूरी तैयारियां कर दी गई हैं।

     पहले मालिकान के अन्याय और शोषण को रोकने के लिए  और कानूनों का पालन कराने के लिए यूनियनें मजदूरों का रक्षा कवच हुआ करती थीं, मगर अब नए कानून लागू होने के बाद यूनियनें बनाना और इन्हें चलाना लगभग असंभव बना दिया गया है। मजदूरों से उनका सुरक्षा कवच छीन लिया गया है। नए श्रम कानूनों में मजदूरों के हड़ताल के संवैधानिक अधिकार को छीन लिया गया है और अब हड़ताल करना लगभग असंभव बना दिया गया है और इन नए कानूनों को लाकर सरकार ने भारत के मजदूरों को पूंजीपतियों का आधुनिक गुलाम बना दिया है।

    पहले मालिकान के मजदूर विरोधी रवैए और श्रम कानूनों का पालन न करने की अवस्था में मजदूर अपने हकों की हिफाजत के लिए हड़ताल कर सकते थे। पहले हड़ताल करने के लिए 14 दिन का समय देना होता था, मगर अब इसे बढ़ाकर 60 दिन कर दिया गया है। इस प्रकार मजदूरों की रक्षा करने का  यूनियन बनाने का संवैधानिक अधिकार छीन लिया गया है। अब जिस यूनियन के पास मजदूरों की कुल संख्या का 51 प्रतिशत संख्या होगी, वही अकेली यूनियन अब मालिक से वार्ता कर सकती है जो लगभग असम्भव होगा। 

    अब लेबर कोर्ट और औद्योगिक ट्रिब्यूनल की जगह एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल बना दिया गया है। पहले श्रम कानूनों का जानकार ही श्रम न्यायालय या औद्योगिक ट्रिब्यूनल का जज बन सकता था, मगर अब ज्वाइंट सेक्रेट्री लेवल का रिटायर्ड अधिकारी ही ऐडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल का जज बन सकता है। अब आप देखिए कि एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल का जज निर्णय करेगा या अपनी नौकरी बचाएगा? इस प्रकार श्रम न्यायालय की स्वायत्तता और आजादी का खात्मा कर दिया गया है। अब यह रिटायर्ड अधिकारी मालिकान का पिट्ठू और कठपुतली होगा और इस प्रकार श्रम न्यायालयों यानि एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल में भी सरकार की पूरी दखलअंदाजी बढ़ा दी गई है।

    पहले पहले श्रम कानूनों का पालन न करने वाले मालिकान को सजा देने का प्रावधान था, मगर अब बड़े बड़े पूंजीपतियों के दबाव में आकर मालिकान को सजा देने के प्रधान से आजाद और मुक्त कर दिया गया है। अब उन्हें श्रम कानूनों का पालन ना करने पर कोई सजा नहीं दी जा सकती। अब मजदूरों को अपने श्रम कानून लागू कराने की स्थिति में विवाद होने पर, मजदूर नेताओं पर जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया है, जिसकी वजह से मजदूर नेताओं को ₹2 लाख तक का जुर्माना देने का प्रावधान कर दिया गया है।

    नए कानूनों के तहत न्यूनतम वेतन की अवधारणा को बिल्कुल खत्म कर दिया गया है। पहले न्यूनतम वेतन में मजदूरों की मेहनत, बच्चों की पढ़ाई, उनका खाना पीना और मां-बाप के बुढ़ापे के खर्चों को शामिल कर न्यूनतम वेतन तय किया जाता था, मगर अब इन सबको न्यूनतम वेतन की अवधारणा से दूर कर दिया है। आज 90 से अधिक देशों में न्यूनतम वेतन या मजदूरी देने के संबंध में कानून या बाध्यकारी  सौदेबाजी लागू है,  मगर  मोदी सरकार ने न्यूनतम वेतन तय करने के पुराने पैमाने को पूरी तरह से त्याग दिया है और यह दिखा दिया है कि न्यूनतम वेतन कानून को जमीन पर लागू करने की बात तो दूर, वह इसके बारे में सोचते तक को तैयार नहीं है।

     यहीं पर हम एक बात और कहना चाहते हैं कि मोदी सरकार द्वारा ये नये कानून, मजदूरों और कर्मचारियों से सलाह मशविरा करने के बाद तैयार नही किए गए हैं, बल्कि हकीकत यह है कि मोदी सरकार ने अधिकांश मजदूरों और कर्मचारियों के संगठनों से इस बारे में कोई बात नहीं थी है, बल्कि ये तमाम कानून केवल और केवल पूंजीपतियों द्वारा अकूत धन कमाने के लिए लाये गयें हैं। जबकि किया यह जाना था कि मजदूरों से उनकी समस्याओं के बारे में विचार विमर्श होता और उनकी तमाम तरह की समस्याओं को दूर किया जाता। मगर सरकार ने ऐसा कुछ भी करने की जहमत नहीं उठाई।

      पहले किसानों को गुलाम बनाने के लिए उनसे उनकी जमीन छीनने के लिए किसान विरोधी कानून लाए गए, जिनका बाद में भयंकर विरोध हुआ और सरकार को इन कानूनों को वापस लेना पड़ा। अब सरकार मजदूर कानूनों पर हमला कर रही है, उनकी खामियां दूर करने के स्थान पर,  मोदी सरकार ने उन मजदूर समर्थक कानूनों को वापस ले लिया है और वह मजदूरों के लिए चार नए मजदूर कानून लेकर आई है।

      वास्तव में यह मजदूरों का विकास करने का नहीं, उनके बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं के विनाश का काल है। ये चार नए श्रम कानून मजदूरों के विकास के नहीं, मजदूरों के विनाश के कानून हैं। ये नए चार कानून, श्रम कानून नहीं, बल्कि मजदूरों के गले में डाले गए आधुनिकतम फंदे हैं।

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