अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

नए कानूनों से अपराध न्याय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन

Share

सुधांशु रंजन

अपराध न्याय व्यवस्था में बीती एक जुलाई से व्यापक परिवर्तन आए हैं। औपनिवेशिक काल के तीन महत्वपूर्ण कानून नए देसी कानूनों द्वारा बदले गए हैं। भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की जगह भारतीय न्याय संहिता (BNS), अपराध प्रक्रिया संहिता (CrPC) की जगह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS)और इंडियन एविडेंस एक्ट के स्थान पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) बनाए गए हैं। अब सारी प्राथमिकियां BNS के तहत दर्ज की जाएंगी और नए कानूनों के तहत उनका ट्रायल होगा।

21 नए अपराध : IPC की 511 धाराओं के बरक्स BNS में 358 धाराएं हैं। 21 नए अपराधों को इसमें शामिल किया गया है। 41 अपराधों में कारावास की अवधि, जबकि 82 में जुर्माने की रकम बढ़ाई गई है। इसके अलावा 25 अपराधों में न्यूनतम दण्ड और छह अपराधों में दण्ड की जगह सामुदायिक सेवा का प्रावधान किया गया है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि सामुदायिक सेवा कैसी होगी। जहां तक CrPC की बात है तो उसमें 484 धाराएं थीं, जबकि BNSS में 531 धाराएं हैं। इसमें 9 नई धाराएं और 39 उपधाराएं जोड़ी गई हैं। 177 धाराओं में बदलाव किए गए हैं और 14 पुरानी धाराओं को खत्म किया गया है। इंडियन एविडेंस एक्ट की 166 धाराओं की जगह BSA में 170 धाराएं हैं।

महिला मामलों को प्राथमिकता : नई व्यवस्था में प्राथमिकी ऑनलाइन दर्ज कराई जा सकती है। प्राथमिकी की प्रति पीड़ित को मुफ्त मुहैया कराई जाएगी। गिरफ्तारी का विस्तृत विवरण थाने और जिला मुख्यालय में ठीक से प्रदर्शित किया जाएगा। इन कानूनों में महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध किए गए अपराधों के अन्वेषण को प्राथमिकता दी जाएगी ताकि दो महीने के अंदर इसे पूरा किया जा सके। पीड़ितों को 90 दिनों के अंदर मामले में हुई प्रगति जानने का हक होगा।

तेजी से निपटान : नए कानूनों का पॉजिटिव पक्ष है निष्पादन की गति को तेज करना। इसके लिए टेक्नॉलजी पर काफी जोर है। डिजिटल साक्ष्य का प्रावधान है और फॉरेंसिक अन्वेषण को अनिवार्य कर दिया गया है। भारतीय न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही मानी जाती है कि यहां मामले कई दशक चलते हैं। इसलिए स्थगन को भी दो तक सीमित किया गया है।

स्थगन कम करने के प्रयास : ध्यान रहे, स्थगन सीमित करने के प्रयास पहले भी हुए हैं। हुसैनारा खातून मामले (1978) में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार में तेज गति से ट्रायल होना भी शामिल है। बाद में कदरा पहाड़िया बनाम बिहार (1981) में अदालत ने यह भी कहा कि यदि किसी का तेज गति से ट्रायल नहीं होता है तो उसे अपने अधिकार को लागू कराने के लिए शीर्ष अदालत आने का अधिकार होगा। इसे अन्य कई मामलों में अदालत ने दोहराया परंतु महाराष्ट्र बनाम चम्पालाल पुंजाजी शाह (1981) में इस व्यवस्था को कमजोर कर दिया। उसने निर्णय दिया कि यद्यपि तेजी से ट्रायल अनुच्छेद 21 के द्वारा दिए गए फेयर ट्रायल का एक परोक्ष पहलू है, लेकिन इसका उल्टा सही नहीं है कि देर से होने वाला ट्रायल अन्यायपूर्ण है।

संशोधन निरस्त हुए : संसद ने 1999 में सीपीसी में कई अहम संशोधन किए। इनमें एक यह था कि अदालत सुनवाई के दौरान तीन से अधिक स्थगन नहीं दे सकती है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने सेलम बार असोसिएशन (2005) में इन संशोधनों को एक तरह से निरस्त कर दिया। उसने निर्णय दिया कि समय-सीमा अदालत की अंदरूनी शक्तियों को कम नहीं कर सकती है, जो न्याय करने के लिए जरूरी है। ऐसे में देखना होगा कि दो संशोधन की सीमा बांधने वाले मौजूदा प्रावधानों पर अदालत का रुख कैसा होता है।

FIR से पहले जांच : नए कानूनों के कुछ प्रावधानों को लेकर विरोध भी है। कहा जा रहा है कि इनमें पुलिस को व्यापक अधिकार मिल गए हैं। BNSS की धारा 173 (3) के तहत जिन अपराधों में सजा तीन साल से ज्यादा और सात साल से कम है, उनमें पुलिस अधिकारी को 14 दिनों की छूट दी गई है FIR दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने के लिए। यह शीर्ष अदालत द्वारा ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश (2013) में दी गई व्यवस्था के विपरीत है कि शिकायत मिलने पर FIR दर्ज करना अनिवार्य होगा। बाद के भी अनेक फैसलों में न्यायालय ने इसे दोहराया।

पुलिस को ज्यादा ताकत : BNS की धारा 113 में आतंकवादी गतिविधियों को भी शामिल किया गया है, जिसके लिए अवैध गतिविधियां निरोधक कानून (UAPA) पहले से है। इससे पुलिस को बहुत ताकत मिल जाएगी। भारत में पुलिस सुधार की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। ध्यान रहे, कानून में बदलाव होने पर अदालत के हाथ भी बंध जाते हैं। मसलन, जब तक गांजा आबकारी अधिनियम के अंतर्गत आता था, न्यायालय आधा किलो गांजा बरामद होने पर भी जमानत दे देती थी। लेकिन बाद में उसे एनडीपीएस एक्ट के अंदर कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि 20 ग्राम गांजा बरामद होने पर भी अदालत जमानत नहीं देती है।

प्रशिक्षण और सुधार : अभी कई वर्षों तक पुलिस और अदालत को पुराने और नए, दोनों कानूनों के तहत काम करना होगा। इसलिए व्यापक स्तर पर प्रशिक्षण की आवश्यकता है। साथ ही पुलिस सुधार पर भी काम करने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

चर्चित खबरें