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‘न्यू इंडिया’ की नई परंपरा….तिरंगा और भगवा साथ-साथ

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राजेश प्रियदर्शी

देशभक्तों की नई फौज 26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे मौक़ों पर भगवा और तिरंगा झंडे साथ लेकर मोटरसाइकिलों पर निकलने लगी है. ये ‘न्यू इंडिया’ की नई परंपरा है.

उनका कहना है कि वे देशभक्ति फैलाने के लिए ऐसा करते हैं. मई 2014 के बाद से देशभक्ति की अधिकता हुई है या कमी, यह समझना ज़रा कठिन है. बहरहाल, जिनके पास देशभक्ति की अधिकता है, वे इसे उन लोगों में ज़बर्दस्ती बाँटना चाहते हैं जिनमें इसकी कमी खोज ली गई है.

इसे परम सत्य की तरह स्थापित किया जा रहा है कि देशभक्ति की स्वाभाविक अधिकता हिंदुओं में है, और कमी मुसलमानों में है. न जाने ये किस ब्लड-टेस्ट के बाद पता चला है. इन युवाओं ने उन मुहल्लों पर ध्यान केंद्रित किया है जहाँ देशभक्ति की कमी है.

‘प्रोजेक्ट देशभक्ति फैलाओ’ में एक ख़ास तरह का उत्साह है क्योंकि इसे चलाने वाले लोगों को तब देशभक्ति दिखाने का अवसर नहीं मिल पाया था जब भारत आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था. 1925 में बने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ये सवाल अनेक बार पूछा गया है कि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में क्या किया था?

सवाल करने वाले लोगों से सोशल मीडिया पर अक्सर पूछा जाता है कि जब फलाँ ने फलाँ हरकत की थी, ‘तब तुम कहाँ थे?’ देशभक्ति पर अपना एकाधिकार जताने वालों से ये वाजिब सवाल है कि ‘तब तुम कहाँ थे जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी?’

टीपू सुल्तान की तस्वीर दिल्ली विधानसभा में लगाए जाने पर भाजपा विधायकों की आपत्ति के बाद, आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने यही सवाल पूछा है कि आपके किसी भी नेता की तस्वीर लगाई जा सकती है जिसने आज़ादी की लड़ाई लड़ी हो, उस एक व्यक्ति का नाम तो बताइए.

तिरंगा

तिरंगा और भगवा साथ-साथ

स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे, जो लाठियाँ खा रहे थे और जेल जा रहे थे उनके हाथों में तिरंगा था, जिन्होंने घोषित तौर पर आज़ादी की लड़ाई को ‘क्षणिक आवेग’ बताकर इससे दूर रहने की सलाह दी थी उनका झंडा भगवा था.

आज़ादी की लड़ाई में हर तरह के लोग शामिल थे, वो जिनकी अपने धर्म में गहरी आस्था थी और वो भी जो भगत सिंह की तरह नास्तिक थे. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ शाहनवाज़, ढिल्लों और लक्ष्मी सहगल थे. आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों का नारा जय हिंद था, जय श्रीराम या हर हर महादेव या अल्लाह ओ अकबर नहीं.

ये कासगंज की बात नहीं है, कासगंज का सच सामने आने में समय लगेगा. मुस्लिमों ने क्या किया पता नहीं, हिंदुओं ने क्या किया, ये पता नहीं. या शायद जेएनयू की तरह पता न चल सके देशविरोधी नारे किसने लगाए थे. बहरहाल मुस्लिमों के मोहल्ले में जाकर नारे लगाने और तिरंगा फहराना का नया चलन शुरू हुआ है.

मुसलमान मुहल्लों में तिरंगे के साथ, भगवा ध्वज लेकर जाने वाले जय हिंद नहीं, जय श्रीराम का नारा लगा रहे हैं. उनकी नज़र में देशभक्ति, वंदेमातरम, हिंदू, मोदी, जयश्री राम सब पर्यायवाची हैं, दूसरी ओर, पाकिस्तान, मुसलमान, आतंकवादी, देशद्रोही भी उनके लिए पर्यायवाची हैं.

तिरंगा और भगवा में किसे ऊपर रखेंगे?

इसको ऐसे समझिए, भारत में रहना होगा तो वंदेमातरम कहना होगा, योगी योगी कहना होगा, मोदी मोदी कहना होगा, जयश्रीराम कहना होगा, ये सभी नारे हम सुन चुके हैं, नारे लगाने वालों की नज़र में सब एक ही बात है.

भगवा झंडे में कोई बुराई नहीं है, जयश्रीराम में भी कोई बुराई नहीं है, बुराई जोर-जबर्दस्ती में है, बुराई ख़ुद को देशभक्त और जिन्हें ग़ैर बना दिया गया है उन्हें देशद्रोही साबित करने में है, बुराई संख्याबल को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बदतमीज़ी से इस्तेमाल करने में है.

भारत, श्रीराम, भाजपा, हिंदू धर्म एक नहीं हैं, भगवा और तिरंगा को साथ लेकर चलना इन्हें जबरन एक बनाने की कोशिश है. अगर आप भगवा झंडे की राजनीति से सहमत नहीं हैं तो इसका मतलब ये है कि आप तिरंगे के भी ख़िलाफ़ हैं क्योंकि दोनों साथ चलाए जा रहे हैं. ये यही साबित करने की कोशिश है कि मुसलमान हमारे साथ नहीं हैं, देख लो देशद्रोही हैं.

यह वंदेमातरम विवाद के आगे की कड़ी है, कुछ मुसलमान धर्मगुरूओं ने विशुद्ध धार्मिक आधार पर वंदेमातरम को अनिवार्य बनाये जाने की कोशिश पर एतराज़ किया था, अगर आप भूल गए हों तो उनका कहना था कि वंदे का अर्थ वंदना या पूजा है, मुसलमान अल्लाह के सिवा किसी और पूजा नहीं कर सकते इसलिए वंदेमातरम गाना धर्मसम्मत नहीं होगा. वैसे बहुत सारे मुसलमान हैं जो ख़ुशी-ख़ुशी वंदेमातरम गाते हैं, और वैसे भी हैं जो धर्मगुरुओं के निर्देशों का पालन करते हैं.

संघ और उससे जुड़े संगठनों ने वंदेमातरम को देशभक्ति का एकमात्र पैमाना बनाने की कोशिश की. वे मुसलमानों से देशभक्ति की अपेक्षा नहीं कर रहे थे, वे उन्हें देशद्रोही साबित करने का अभियान चला रहे थे.

सवाल ये है कि मुसलमान ऐसी किसी कोशिश में क्यों शामिल होना चाहेंगे जिसमें ये साफ़ नहीं है कि वे तिरंगे के नीचे खड़े हो रहे हैं या भगवा झंडे के?

मुसलमान ही क्यों, दूसरे ग़ैर-हिंदू या भगत सिंह की तरह नास्तिक देशभक्त ही क्यों इस घालमेल में शामिल होंगे? क्या हिंदुत्ववादी जवाब दे सकते हैं कि तिरंगा और भगवा में वो किसे ऊपर रखते हैं?

जिस तरह से ‘देशभक्ति फैलाओ प्रोजेक्ट’ में लोग तिरंगे के साथ भगवा झंडा लेकर निकल रहे हैं, उम्मीद करनी चाहिए कि तिरंगे के साथ इस्लामी झंडा लेकर अगर मुसलमान चलें तो उन्हें कोई एतराज़ नहीं होगा. ये बुरी स्थिति नहीं होगी कि देशभक्ति और अपने धर्म को मुसलमान बराबर तवज्जो दें, जिस तरह हिंदुत्ववादी दे रहे हैं.

संघ और तिरंगे का रिश्ता जगज़ाहिर

यह बताना ज़रूरी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तिरंगे पर गहरा एतराज़ रहा है, संघ और हिंदू महासभा दोनों के बड़े नेताओं ने अनेक मौक़ों पर कहा है कि भारत का झंडा भगवा ही हो सकता है, कुछ और नहीं. सावरकर ने कहा था, “हिंदू किसी भी कीमत पर वफादारी के साथ अखिल हिंदू ध्वज यानी भगवा ध्वज के सिवा किसी और ध्वज को सलाम नहीं कर सकते.”

गोलवलकर की राय तिरंगे के बारे में बिल्कुल स्पष्ट थी कि भारत का झंडा एक ही रंग का और भगवा होना चाहिए, उन्होंने कहा, “तीन का शब्द तो अपने आप में ही अशुभ है और तीन रंगों का ध्वज निश्चय ही बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और देश के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा.”

मोहन भागवत

नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय पर पहली बार 2002 में झंडा फहराया गया, इसके पहले संघ ने कभी तिरंगा नहीं फहराया था.

गांधी की हत्या पर मिठाई बाँटने की बात कहते हुए तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने संघ पर बैन लगा दिया था. कई जानकारों का कहना था कि बैन हटाने की शर्त ये थी कि संघ तिरंगे को राष्ट्रध्वज मान ले. लेकिन हाल के सालों में संघ का कहना है कि ऐसी कोई शर्त नहीं थी.

बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी नाम के तीन युवकों ने 26 जनवरी 2001 को संघ मुख्यालय पर तिरंगा झंडा फहराने की कोशिश की थी, इनके ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज कर लिया गया था. 2013 में उन्हें इस मामले में बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया. इसे नागपुर केस नंबर 176 के नाम से जाना जाता है.

इसके बाद से संघ के मुख्यालय पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा झंडा फहराया जाने लगा. संघ की नज़र में ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा’ का मतलब भगवा ध्वज का ऊँचा रहना है, न कि तिरंगे का.

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