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नीतीश ने की कमर सीधी, मचा हंगामा

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हेमंत कुमार

लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा के सामने बेबस दिखने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कमर भी सीधी करते हैं तो हंगामा मच जाता है। उनके कुछ हालिया फैसलों से भाजपा और उसे समर्थन देनेवाली मीडिया, दोनों असहज दिख रही हैं। चर्चा छिड़ गई है कि नीतीश फिर पलट सकते हैं।

यह चर्चा तब जोर पकड़ती दिखी, जब गत 3 सितंबर, 2024 नीतीश और तेजस्वी की मुलाकात हुई। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से सचिवालय में मिले। करीब आधे घंटे तक चली इस बैठक के बाद तेजस्वी राजद के दफ्तर गए, जहां पार्टी के विधायक, पूर्व विधायक, सांसद, पूर्व सांसद और पदाधिकारियों की बैठक हुई।

इधर मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में खबर तैरने लगी कि कुछ बड़ा उलटफेर होने वाला है। नीतीश से मुलाकात के बाद तेजस्वी पार्टी पदाधिकारियों के साथ बैठक कर रहे हैं। बैठक में लालू प्रसाद भी मौजूद हैं। कयासों का बाजार गर्म हो गया। इसी बीच खबर आई कि नीतीश-तेजस्वी मुलाकात सूचना आयुक्तों के दो खाली पदों पर नियुक्ति को लेकर हुई है। बिहार के पूर्व मुख्य सचिव ब्रजेश मेहरोत्रा सूचना आयुक्त बनाए गए हैं। ब्रजेश के 31 अगस्त, 2024 को सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार ने उनको यह नई जिम्मेदारी दी है। सूचना आयुक्त के दूसरे पद पर किसी पत्रकार को नियुक्त किया गया है, लेकिन उसका नाम उजागर नहीं किया गया है।

हालांकि कुछ घंटों के भीतर उन पत्रकार प्रकाश कुमार का नाम भी उजागर हो गया। लेकिन भाजपा की भजन मंडली इस जानकारी से संतुष्ट नहीं थी। इस बीच एक नई खबर चलने लगी कि नीतीश-तेजस्वी ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का एजेंडा निबटाने के बाद बंद कमरे में बात की है। अब इस कयास का जवाब नीतीश या तेजस्वी के सिवा भला कौन दे सकता है?

लेकिन खबरें जब अनुमान के आधार पर गढ़ी जाती हैं तो कुछ भी कहा जा सकता है। बात यहीं नहीं रूकी।

अंदरखाने में कहा जाने लगा कि दोनों नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में भाजपा की राय का ख्याल नहीं रखा गया है। ब्रजेश मेहरोत्रा नीतीश के खास हैं तो पत्रकार प्रकाश कुमार तेजस्वी की पसंद हैं। चाचा-भतीजा ने मिलकर दोनों की नियुक्ति कर दी है। हालांकि भाजपा की ओर से इन नियुक्तियों को लेकर किसी नेता या प्रवक्ता ने कोई विपरीत बात कही हो, ऐसा कहीं पढ़ा-सुना नहीं गया। लेकिन इसी बीच एक ऐसी खबर चली जिसकी चर्चा भाजपा की बेचैनी को समझने में मददगार हो सकती है।

नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार

एक यूट्यूब चैनल की खबर का सार था कि इस बार यदि नीतीश लाइन क्रास करेंगे तो दिल्ली खाली हो जाएगी। यानी नीतीश पलटने की जुर्रत करेंगे तो जदयू के सांसद पार्टी छोड़ देंगे!

सवाल उठता है कि क्या नीतीश को लेकर भाजपा की भजन मंडली की बेचैनी बेवजह की है या उसके पीछे वजह भी है? इस सवाल का जवाब ‘हां” या ‘ना’ में देने से बेहतर है कि हाल में नीतीश के कुछ फैसलों पर गौर किया जाए।

बिहार में अभी-अभी नये मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति की गई है। अमृतलाल मीणा मुख्य सचिव और आलोक राज डीजीपी बनाए गए हैं। बताया जाता है कि इन दोनों की नियुक्ति में भाजपा की पसंद को खारिज कर दिया गया है। भाजपा प्रत्यय अमृत को मुख्य सचिव और विनय कुमार को डीजीपी नियुक्त कराना चाह रही थी। लेकिन नीतीश ने भाजपा की सलाह नहीं मानी। मीणा और आलोक वरिष्ठतम अधिकारी हैं। दोनों 1989 बैच के अधिकारी हैं। दोनों की वरीयता का ख्याल रखा गया है। मीणा ने ब्रजेश मेहरोत्रा और आलोक ने राजविंदर सिंह भट्टी का स्थान लिया है। मेहरोत्रा सेवानिवृत्त हो गए हैं, जबकि भट्टी सीआइएसएफ के डीजी बनकर केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति में चले गए हैं।

वरीयता के लिहाज से आलोक पिछली बार यानी 2022 में ही डीजीपी बन जाते, लेकिन उनकी जगह उनसे जूनियर (1990 बैच के) भट्टी को मौक़ा दिया गया। लेकिन भट्टी की सरकार से जमी नहीं और कार्यकाल पूरा होने से करीब एक साल पहले केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर चले गए। भट्टी के बिहार छोड़ने की चर्चा पिछले साल अगस्त में ही शुरू हो गई थी। उनके बिहार छोड़ने की कथा एक अलग ही कथा है।

फिलहाल यह जानना जरूरी है कि क्या मीणा और आलोक की नियुक्ति का राजनीतिक कोण भी है? वजह यह कि इसे बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है।

बिहार में विधानसभा का चुनाव अक्टूबर 2025 में होना है। ऐसे में नीतीश को मुख्य सचिव और डीजीपी की कुर्सी पर भरोसेमंद अफसर को बिठाना उचित लगा। अमूमन कोई भी मुख्यमंत्री ऐसा ही करता है। मुख्य सचिव और डीजीपी का पद रणनीतिक तौर पर काफी अहम पद माना जाता है।

अब सवाल यह उठता है कि नीतीश ने इन अहम पदों पर नियुक्ति में अपने सहयोगी भाजपा का ख्याल क्यों नहीं रखा? इसके पीछे उनकी मंशा क्या है?

जानकार बता रहे हैं कि नीतीश आगामी चुनाव में फिर से अपनी पार्टी जदयू को विधानसभा में ‘पार्टी नंबर वन’ बनाना चाह रहे। अभी उनकी पार्टी विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी है। उनकी पार्टी को ‘पार्टी नंबर वन’ से ‘पार्टी नंबर तीन’ बनाने के पीछे भाजपा का बड़ा हाथ माना जाता है। भाजपा पर आरोप है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी को पैसा और उम्मीदवार देकर मैदान में उतारा गया। नतीजतन जदयू मात्र 43 सीटें लेकर तीसरे स्थान पर रह गई। लेकिन इस बार के चुनाव में नीतीश अपनी पार्टी को फिर से नंबर वन बनाना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि जदयू अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़े।

जानकारों का कहना है कि नीतीश की कोशिश है कि विधानसभा चुनाव निर्धारित समय से पहले हो। और उनकी पार्टी कुल 243 में से 120-125 सीटों पर चुनाव लड़े। बाकी बची सीटों पर भाजपा और सहयोगी दल लड़ें।

जानकारों के मुताबिक नीतीश का कहना है कि चिराग पासवान, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और पशुपति कुमार पारस से उनका कोई समझौता नहीं है। इन सहयोगी दलों को कितनी सीटें देनी है, यह भाजपा जाने। लेकिन भाजपा के लिए यह फॉर्मूला नुकसानदायक है। अगर वह इस पर राजी होगी तो बिहार में ‘अपनी सरकार’ बनाने का उसका सपना कैसे पूरा होगा? यह एक ऐसा मसला है जो नीतीश और भाजपा की राहें जुदा कर सकता है। लेकिन बात इतनी भर ही नहीं है। आरक्षण, लैटरल एंट्री, वक्फ बोर्ड बिल और भाजपा के कुछ मुख्यमंत्रियों के मुस्लिम विरोधी उग्र बयानों से नीतीश अपने को असहज महसूस कर रहे हैं।

बिहार में जाति जनगणना कराने और आरक्षण का दायरा बढ़ाने का श्रेय लेने वाले नीतीश से पूछा जा रहा है कि बढ़ा हुआ आरक्षण का भविष्य क्या होगा, क्योंकि हाइकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया? मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जब आरक्षण का दायरा बढ़ाया गया था तब न्यायिक समीक्षा से महफूज रखने के लिए इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया था। लेकिन केंद्र ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसी बीच पटना हाईकोर्ट ने जून, 2024 में बढ़ाये गये आरक्षण को रद्द कर दिया।

इसमें गौर करने वाली बात यह है कि कोर्ट ने सुनवाई मार्च, 2024 में पूरी कर ली थी। फैसला लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद सुनाया। आरक्षण पर फैसले की टाइमिंग और नौवीं अनुसूची में डालने को लेकर केंद्र सरकार की चुप्पी सवालों के घेरे में है। बढ़ा हुआ आरक्षण रद्द होने से पिछड़ों, अति पिछड़ों, एससी-एसटी समुदाय में जबरदस्त नाराजगी है। इन समुदायों में नीतीश का भी बड़ा आधार है। वे अपने आधार वोटरों की नाराज़गी से भी वाकिफ हैं। उन्हें मुसलमानों के उस हिस्से की भी चिंता है, जो उनको वोट करता है।

इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना और बिहार में बढ़ा हुआ आरक्षण लागू कराना जहां नीतीश के लिए बड़ी चुनौती है तो भाजपा का उग्र हिंदुत्व और उग्र मुस्लिम-विरोध चिंता का सबब बना हुआ है। ऐसे में भाजपा के साथ उनका अलगाव हो जाय तो आश्चर्य नहीं होगा। जब यह रिश्ता टूटेगा तो नीतीश का नया ठिकाना महागठबंधन ही होगा। लेकिन तय है कि इस बार जो होगा वह 2015 और 2022 की तरह घटित नहीं होगा। वर्ष 2015 में जदयू-राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी, वहीं 2022 में नीतीश ने राजद के साथ मिलकर सरकार का गठन किया था।

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