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भारत की सियासत में कोई नेता अजेय नहीं

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राकेश अचल

भारत की सियासत में अनेक नेता अजेय माने जाते है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ऐसे ही नेताओं में से एक थे ,लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 1985 का लोकसभा चुनाव सिंधिया परिवार को टूटने से बचाने के लिए किया गया एक बड़ा बलिदान है। अटल जी ने उस चुनाव में अपने सियासी जीवन की सबसे बड़ी पराजय का सामना किया था। अटल जी भारतीय राजनीति के अजातशत्रु थे। माधवराव सिंधिया ने 1971 ,77 और 1980 का लोकसभा चुनाव गुना-शिवपुरी संसदीय सीट से लड़ा था । माधवराव सिंधिया को हराने के लिए विपक्षी पार्टियों ने पूरी ताकत लगाई लेकिन वो कभी चुनाव नहीं हारे। बाद में माधवराव सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गए और 1985 में कांग्रेस ने भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी बाजपेयी को हारने के लिए माधवराव सिंधिया को तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करते हुए गवालियर सीट सेअटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ग्वालेऔर सीट से मैदान में खड़ा कर दिया। ये फैसला नामांकन पत्र भरने के अंतिम क्षणों में हुआ बाजपेयी के खिलाफ किसी दूसरी सीट से नामांकन भरने का वक्त ही नहीं बचा था। मुझे याद है कि उस समय राजमाता और माधवराव सिंधिया के बीच दूरियां बढ़ने लगी थी।

माधवराव सिंधिया जनसंघ छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे। जिस कारण से राजमाता नाराज थीं। ऐसे में राजमाता ने भी 1984 का लोकसभा चुनाव ग्वालियर से लड़ने की बात कही थी। अटल बिहारी वाजपेयी को जैसे ही राजमाता के ग्वालियर से चुनाव लड़ने की भनक लगी वो सीधे ग्वालियर आकर राजमाता से मिले और कहा कि मैं कोटा की जगह ग्वालियर से चुनाव लड़ूगा।अटल जी ने ये प्रस्ताव भावुकता में किया था ,उन्हें क्या पता था कि उनका ये फैसलना आत्मघाती साबित होगा। माधवराव सिंधिया ने उन्हें करीब पौने दो लाख वोटों से हराया था। भाजपा 1984 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के लिए एक सुरक्षित सीट की तलाश में थी।

जिसके लिए पहले कोटा और बाद में ग्वालियर सीट पर विचार किया गया,अंत में ग्वालियर सीट से उनका नाम फाइनल किया था क्योंकि ये सीट राजमाता के प्रभाव वाली सीट थी। मजे की बात ये है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्वालियर से चुनाव लड़ने से पहले माधवराव सिंधिया से पूछा था कि आप ग्वालियर से तो चुनाव नहीं लड़ेंगे ? दोनों के रिश्ते बहुत मधुर थे। माधवराव सिंधिया ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे तो गुना से चुनाव लड़ते हैं। ग्वालियर से क्यों लड़ेंगे ?। लेकिन ऐन मौके पर जब राजीव गांधी ने माधवराव सिंधिया की सीट बदल दी तो खुद माधवराव सिंधिया अवाक रह गए।

1984 -85 में अटल बिहारी वाजपेयी वैसे तो माधवराव सिंधिया की उम्मीदवारी सामने आते ही आधा चुनाव हार गए थे ,लेकिन उन्होंने मैदान नहीं छोड़ा। पांव में तकलीफ के बाद भी वे प्लास्टर बांधकर चुनाव प्रचार करते rh। भाजपा के कुछ स्थानीय कार्यकर्ताओं ने अटल जी कि ऊँट पल पर हुई सभा में बम रखे होने की अफवाह उड़ाई और एक नारियल छिपकर रख दिया लेकिन हवा को नहीं बदलना था ,सो नहीं बदली। अटल जी मन मारकर गलीई-गली चुनाव प्रचार करते रह। खुद राजमाता ने सार्वजनिक रूप से अटल जी का प्रचार किया लेकिन उनका दिल आपने बेटे की जीत के लिए धड़क रहा थ।

पार्टी कार्यकर्ताओं ने भी राजमाता के मन की बात सुनी और अटल जी का साथ छोड़ दिया। अटल जी को चुनाव है=रना था सो चुनाव हार गए। चुनाव परिणामों की अंतिम घोषणा से पहले ही अटल जी ने कुछ चुनिंदा पत्रकारों से बातचीत में एक खीज भरी मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा कि – ग्वालियर से चुनाव लड़कर मैंने मां -बेटे की लड़ाई को महल तक सीमित रहने दिया। उसे सड़क पर नहीं आने दिया। मुझे अच्छी तरह से याद है कि अटल जी ने कहा था कि- अगर मैं इस सीट से चुनाव नहीं लड़ता तो माधवराव सिंधिया के खिलाफ राजमाता चुनाव लड़ जाती और मैं यही नहीं चाहता था। आपको याद होगा कि राजमाता में राजहठ बहुत थ। इससे पहले वे पार्टी के मना करने के बावजूद रायबरेली से इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़कर हार चुकी थी।भाजपा कि सिंधिया परिवार के प्रति भक्ति अटल जी की हार का कारण बनी ।

कांग्रेस ने जब माधवराव सिंधिया को कांग्रेस से बाहर कर दिया था उस समय भी भाजपा ने सिंधिया को ग्वालियर से वॉक-ओव्हर देते हुए अपने प्रत्याशी को मैदान से हटा लिया था,वो भी केवल राजमाता की वजह से। 1984 -85 के लोकसभा चुनाव में पहली बार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने पिता माधवराव सिंधिया के समर्थन में रैली की थी। ये उनकी पहली रैली थी। उस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया की उम्र मात्र 14 साल थी। उन्होंने अपनी मां के साथ अपने माधवराव सिंधिया के लिए चुनाव प्रचार किया था। वहीं, राजमाता ने चुनाव प्रचार में केवल एक रैली को संबोधित किया था। इस दौरान उन्होंने कहा था कि एक ओर पूत है, दूसरी ओर सपूत।

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