अग्नि आलोक
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*वैदिक दर्शन में मांसाहार और पशुबलि*

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          डॉ. विकास मानव

आगम निगम-पुराण परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। इनके समन्वय से ही पूर्ण ज्ञान होता है। रामचरितमानस के मङ्गलाचरण में है :

     नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्। ब्रह्मसूत्र के भी आरम्भ में है :

शास्त्रयोनित्वात्॥३॥

तत्तु समन्वयात्॥४॥

   कुछ लोगों की धारणा है कि वेद में मांसाहर मना है किन्तु तान्त्रिक पूजा में पशुबलि आवश्यक है। इसके विपरीत कुछ लोगों ने जीवन का उद्देश्य बना लिया कि वेद में मांसाहार प्रचलन खोजना है। विशेषकर गो मांस के उल्लेख से वे बहुत प्रसन्न होते हैं। भारत में गो को पूजनीय मानते थे, अतः उसके विरोध में आक्रमणकारियों ने गोहत्या करनी आरम्भ की।

      पर कुरान में भी लिखा है कि गो पूजनीय है, अतः मूसा ने गो मारने को कहा तो उसका विरोध हुआ। इसे मूसा ने स्पष्ट किया कि वह भूरी गाय खाने को कह रहे हैं, जिसका कृषि आदि में प्रयोग नहीं है.

    (अल बकराः, २/६८-७१)।

     इसे वेद में भूरिशृङ्गाः, बभ्रू कहा है-

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। 

अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥

   (ऋक्, १/१५४/६)

       सा या बभ्रूः पिङ्गाक्षी (गौः)। सा सोमक्रयण्यथ या रोहिणी सा वार्त्रघ्नी यामिदं राजा संग्रामं जित्वोदाकुरुते ऽथ या रोहिणी श्येताक्षी सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो घ्नन्ति।

 (शतपथ ब्राह्मण, ३/३/१/१४)

     गौ यज्ञ या निर्माण का प्रतीक है, जो विश्व के ५ पर्वों तथा मनुष्य शरीर के भीतर भी हो रहा है। यज्ञ चक्र से उत्पन्न पदार्थ का ही भोग करना है, जिससे यज्ञ चलता रहे। इसी प्रकार गौ से उत्पन्न पञ्चगव्य का ही प्रयोग कहा है जो भूरिशः या भूरिशृङ्गाः का अर्थ है। गोमेध तथा अन्य मेध यज्ञों के विषय में अलग से विवेचन होगा।

मांसाहार-मानव सभ्यता का आरम्भ कृषि यज्ञ से हुआ जिससे जीवन के लिए सबसे उपयोगी अन्न का उत्पादन होता है। सृष्टि के आरम्भ में ही प्रजापति ने कहा था कि यज्ञ से अपनी इच्छित वस्तुओं का उत्पादन करो। गीता में मूल यज्ञ कृषि को ही माना है, अन्य सभी यज्ञ उस पर निर्भर हैं।

     (गीता अध्याय, ३)

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्.

अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥

कर्मं ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्। तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥१५॥

       अतः हर शास्त्र में भूमि से उत्पन्न पदार्थों को ही खाने के लिए कहा है। 

      Bible-Genesis 1/29-God said, Behold, I have given you every herb bearing seed, which is upon the face of all the earth, and every tree, in the which is the fruit of a tree yielding seed; to you it shall be for meat.

      कुरान में इसे और स्पष्ट रूप से कहा है :

      2/23-Who made the earth a bed for you, and the heaven a roof, and caused water to come down from the clouds and therewith brought forth fruits for your sustenance.

2/61-Strike the earth with thy rod, and there gushed forth from it twelve springs, so tat every tribe knew their drinking place. And they were told, “Eat and drink of what Allah has provided, and commit not iniquity in the earth, creating disorder’,

2/62-O Moses, surely we will not remain content with one kind of food; pray, then, to thy Lord for us that He may bring forth for us of what the earth grows-of its herbs and its cucumbers and its wheat and its lentils and its onions’ He said, “Would you take in exchange that which is worse for that which is better?

      मनुष्य अपनी वासना के लिए मांस भोजन करता है। मांस, मैथुन और मद्य-ये मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है अतः इसे पूरी तरह बन्द नहीं कर सकते। किन्तु कल्याण चाहने वाले को इनको सीमित रखना चाहिये।

    न मांस-भक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने। 

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥

   (मनु स्मृति, ५/५६) 

मांसाहारी अर्थ- कुछ लोग शमिता का अर्थ करते हैं कि पशुबलि के पूर्व उसे छू कर देखते हैं कि उसे मांस के लिए कहां से काटा जाये। पशु का उपयोग करने के पहले उसे शान्त करते हैं, मारते नहीं हैं। गाय दुहने के पूर्व, घोड़ा चढ़ने के पूर्व उसे शान्त करते हैं। शिष्य के आने पर गुरु भी उसका कन्धा थपथपाते हैं, जो आशीर्वाद या प्रेम सूचक है। यहां शमिता का अर्थ शान्ति है, उसकी हत्या नहीं है।

    देव, पिता, माता को भी शमिता कहा गया है। स्पष्टतः शमिता का अर्थ पुत्र की हत्या नहीं है-

दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वम्। … उपनयत् मेध्या दुरः। अन्वेनं मातामनयताम्। अनुं पिता। … उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्। .. अध्रिगो शमीध्वं सुशमि शमीध्वं शमीध्वमध्रिगो। अध्रिगुश्चापापश्च उभौ देवानां शमितारौ।

 (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/६/६/४)

     महाभारत, शान्ति पर्व (३३७/४–१५) में भी कहा है कि देवता यज्ञ के नाम पर बकरे का मांस खाना चाहते थे, जिसका ऋषियों ने विरोध किया। उस समय राजा उपरिचर वसु (३७५१-३७०९ ई.पू.-मगध राजा जरासन्ध ३२२२-३१८० ई.पू. के पूर्वज) अपने विमान में वहां से गुजर रहे थे (उपरिचर = ऊपर चलने वाला)।

       उनसे निर्णय के लिये कहा गया तो उन्होंने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये व्याख्या की कि अज का अर्थ यज्ञ का बीज नहीं है जिससे यज्ञ किया जाता है वरन् बकरे का मांस है। लोभ के कारण झूठ बोलने पर ऋषियों ने उनको शाप दिया-

बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। अज संज्ञानि बीजानि च्छागं नो हन्तुमर्हथ॥४॥

नैष धर्मः सतां देवा यत्र वध्येत वै पशुः। इदं कृतयुगं श्रेष्ठं कथं वध्येत वै पशु.

सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात् तस्मात् दिवं पतः॥१५॥ 

      विरुद्धं वेदसूत्राणामुक्तं यदि भवेन्नृप। वयं विरुद्धवचना यदि तत्र पतामहे॥

वामपन्थियों द्वारा ऋषियों के मांसाहार के दो मुख्य उदाहरण दिये जाते हैं-(१) भवभूति का उत्तररामचरित, अंक ४ में सौघातकि परिहास में कहता है-येन परापति तेनैव सा वराकी कपिला कल्याणी मडमडायिता (प्राकृत वाक्य का संस्कृत रूप)। 

     उसके बाद पुनः दाण्डायन के प्रश्न पर कहता है-येनागतेषु वसिष्टमिश्रेषु वत्सतरी विशसिता। अद्यैव प्रत्यागतस्य राजर्षेर्जनकस्य भगवता वाल्मीकिना दधि-मधुभ्यामेव निवर्तितो मधुपर्कः। वत्सतरी पुनर्विसर्जिता।

      यहां प्रथम परिहास में कल्याणी कपिला के दो अर्थ हैं-भूरे रंग की गाय, या गाय का कल्याणकारी उत्पाद, जो मिश्रित कर दिया जाय। दूसरे वाक्य में वत्सतरी का स्पष्ट अर्थ दिया गया है मधुपर्क जो दधि और मधु से बना है। केवल दधि उजला है, मधु मिलने से वह कपिल रंग का होता है।

     मडमडायति का अर्थ पुणे के भण्डारकर संस्था की टीका में किया है कि गाय को देखते ही वसिष्ठ उसे चबाने लगे। उसकी हड्डियों के टूटने से मड-मड का शब्द हुआ। कई शास्त्रों के अधिकारी होने के कारण वसिष्ठ को सम्मान के लिये मिश्र कहा गया है। सर्वशास्त्रविद् वसिष्ठ का कुछ भी मत हो, वे किसी भी प्रकार २ वर्ष की गाय को चबा नहीं सकते थे, यह मगरमच्छ के लिये भी असम्भव है। वह बकरे को भी निगलने के लिये धीरे धीरे मुंह फैलाता है। 

        इसी प्रकार राहुल सांकृत्यायन ने दो पुस्तकों सिंह सेनापति और वोल्गा से गंगा तक में कहा है कि ऋषि लोग यात्रा में निकलते थे तो रास्ते के भोजन के लिये वे घोड़े की हड्डी लेकर चलते थे जिसे वे सत्तू के साथ उबाल कर सूप पीते थे। इसका आधार श्वेताश्वतर उपनिषद् का नाम है। अश्व = घोड़ा, श्वेत (भाग) = हड्डी, तर = सूप-इस प्रकार अर्थ किया गया। पता नहीं इसमें सत्तू कहां से आया।

       इस प्रकार मनमाना मूर्खतापूर्ण अर्थ करने के कारण वामपन्थी उनको महापण्डित कहते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहीं भी घोड़े की चर्चा नहीं है। अतः यह ऋषि का नाम कहा गया है। किन्तु पूरे विश्व को अपनी ऊर्जा से चलाने के कारण सूर्य को अश्व कहा गया है। सौर मण्डल से बड़ी रचना ब्रह्माण्ड और ब्रह्म का वर्णन होने के कारण इसे श्वेताश्वतर उपनिषद् कहा गया है।

पशु मेध-(१) पशु-कोई भी दृश्य वस्तु पशु है (पश्य = देखना)। प्रजापति ने जो देखा वे ५ प्रकार के पशु हुए-१. पुरुष ( मनुष्य जैसा चेतन तत्त्व, पुर या रचना में निवास करने वाला), २. अश्व (घोड़ा, चालक शक्ति), गौ (यज्ञ स्थान या वेदी, साधन, निर्माण-३ का समन्वय तृतीय व्यञ्जन गो), अवि (भेड़-सीधा चलने वाला, अग्रगति), अज (बकरा, अजन्मा, सनातन सृष्टि)

(अग्निः) एतान् पञ्च पशून् अपश्यत्। पुरुषं अश्वं गां, अविं, अजं-यद् अपश्यत्, तस्मात् एते पशवः।

 (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/१/२) 

    देवा यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥१५॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥८॥

(पुरुष सूक्त)

     मेध-चेतन तत्त्व पुरुष २ प्रकार से काम करता है-मेधा (चिन्तन, योजना बनाना), तप (कार्य, श्रम)।

यत् सप्तान्नानि मेधया तपसा अजनयत् पिता। इति मेधया हि तपसा अजनयत् पिता।

  (शतपथ ब्राह्मण, १४/४/३/१, बृहदारण्यक उपनिषद्, १/५/१) 

मूल् अधातु मेधृ का अर्थ है हिंसा करना , मारना, मिलाना। इसी अर्थ की धातु है पच् (मिलाना, पकाना)। 

मेधृ मेधा हिंसनयोः संगमे च

   (पाणिनीय धातु पाठ, १/६११)।

    निर्माण करने वाला पिता है, निर्माण स्थान माता है (मा माने)।

यो नः पिता यो जनिता विधाता (ऋक्, १०/८२/२, वाज. यजु, १७/२७, काण्व सं, १८/१, तैत्तिरीय सं, ४/६/२/१).

सृष्टि या निर्माण के लिए प्रयुक्त बुद्धि मेधा है, उसके लिए किसी वस्तु का प्रयोग मेध है। जिस वस्तु का प्रयोग निर्माण के लिए हो सकता है, वह मेध्य या ग्राम्य पशु है (गांव का, लोगों को उपलब्ध)। अनुपलब्ध या अनुपयोगी वस्तु आरण्य (जंगली) पशु है।

विश्वरूपं वै पशूनां रूपम्

  (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ५/४/६) 

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥६॥ (पुरुष सूक्त)

सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः (शतपथ ब्राह्मण, ३/८/४/१६, ९/५/२/८)

अस्मै वै लोकाय ग्राम्याः पशवः आलभ्यन्ते। अमुष्मा आरण्याः।

  (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/३/१)

       अन्न-जो भी जीवों (भूतों) द्वारा खाया जाता है, वह अन्न है।

अद्यते अत्ति च भूतानि। तस्मात् अन्नं तदुच्यते। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/२)

अद्भ्यो वा अन्नं जायते (तैत्तिरीय आरण्यक, ८/२) = जल जैसे फैले पदार्थ से अन्न उत्पन्न होता है।.

अन्नमु वै पशवः (जैमिनीय उपनिषद्, ३/१४१) = अन्न पशु है (इसका स्वतन्त्र कार्य नहीं है)

(४) मद = वस्तुओं में सत् या मूल तत्त्व मद है, जो आनन्द देता है।

रसो वै मदः (जैमिनीय उपनिषद्, १/२१५, २१६, ३/२८, १५९, २२२, २९५)

       दृश्य रूप (मूर्ति) ऋक् है, उसका प्रभाव साम या रस है- 

यो वा ऋचि मदो यः सामन् रसो वै सः (माध्य. शतपथ, ४/३/२५)

जो भी स्वादिष्ट है तथा ऊर्जा देता है, वह मद है-

     मदन्तीभिः प्रोक्षति। तेज एवास्मिन् दधाति। (तैत्तिरीय आरण्यक, ५/४/१)

मदिन्तम इति स्वादिष्ट इत्येवैतदाह। (माध्य. शतपथ, ३/८/३/२५)

(५) मांस-भोज्य का संग्रह या उत्तम  भोजन मांस है-

नभो मांसानि (तैत्तिरीय सं. ७/५/२५/१), मांसानि विराट् (छन्दः) (जैमिनीय उपनिषद्, २/५८)

एतदु ह वै परममन्नाद्यं यन्मांसम् (माध्य. शतपथ, ११/७/१/३)

(६) मद्य, मांस मैथुन निषेध-न मांसं समश्नीयात्। न स्त्रियं उपेयात्। यन्मांसं अश्नीयात्, यत् स्त्रियं उपेयात्, निर्वीर्यः स्यात्। न एनं अग्निं उपनमेत्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/१/९/७-८)

शरीर या फल का कोमल भाग मांस है। पशु शरीर का भी कोमल भाग मांस है।   

      यह कहता है कि जो (स) उसे (मां) खायेगा उसे मैं खाउंगा-

मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥

    (मनु स्मृति, ५/५५)

पशु भेद-जो दृश्य है, वह पशु है। इनका स्रोत अग्नि है। यह सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ था, अतः इसे अग्रि कहा गया जो परोक्ष में अग्नि हो गया। यज्ञों में भी मूल कृषि है जिससे सभ्यता (कल्चर) का आरम्भ हुआ, अतः यह अग्रि-कल्चर है। पशु का सीमित आकार निम्न कारणों से दीखता है-

      छन्द = सीमा या माप।  

पशवो वै देवानां छन्दांसि (शतपथ, ४/४/३/१), छन्दांसि वै वाजिनः (गोपथ उत्तर, १/२०)

     पोष = वृद्धि, सशक्त होना। बल = जो मोड़ सके (बलन)। वीर्य ३ प्रकार के हैं-ब्रह्म, क्षत्र, विट् = वैश्य। द्रविड़ = मुद्रा या धन जो द्रव की तरह बहता है (liquidity of currency)। 

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः (कठोपनिषद्, २/२५)

दैव्यो वा एता विशो यत् पशवः = ये विश दैव पशु हैं। (शतपथ ब्राह्मण, ३/७/३/९)

     अन्न = जिसका भोग हो। यह पोषण और आनन्द देता है। अन्न का भोग करने वाला अन्नाद है।

     सलिल -जल में तरंग होने पर वह सलिल या सरिर् है। द्रव में वस्तुओं के मिश्रण तथा हिलाने से नये पदार्थ उत्पन्न होते हैं। मन्थन या वायु तत्त्व नये पदार्थ को जन्म देता है, अतः इसे मातरिश्वा (माता जैसा, अश्व) कहते हैं।

तस्मिन् अपो मातरिश्वा दधाति

 (ईशावास्योपनिषद्, ४)

वातस्य जूतिं वरुणस्य नाभिं अश्वं जज्ञानं सरिरस्य मध्ये

(वाज. यजु, १३/४२)

      पशु = एक पिण्ड रूप वस्तु। अग्नि से ५ वायव्य (गतिशील) पशु हुए। वे सक्रिय थे, अतः अन्य पशुओं का निर्माण किया- ७ ग्राम्य (गांव में, मेध्य या उपयोग के लिए उपलब्ध), ७ आरण्य (दूर निर्जन स्थान में, प्रयुक्त नहीं)।

पुरुषो, अश्वो, गौः, अविः, अजो भवन्ति। एतावन्तो वै सर्वे पशवः अन्नम् (१५)

बहवो ह्येते अग्नयो यदेताः चितयो अथ यत् कामायेति यथा तं कामं आप्नुयात् (१७) 

       पुरुषं प्रथमं आलभते। पुरुषो हि प्रथमः पशूनाम्। अथ अश्वं पुरुषं हि अनु अश्वो अथ गाम् अश्वः हि अनु। गौः अथ अविं गां हि अनु। अथ अजं अविं हि अनु। अजः तत् एनानि यथा पूर्वं यथा श्रेष्ठं आलभते। (१८) (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/१/१५-१८) = पुरुष सबसे पहले बना और श्रेष्ठ है। बाइबिल (जेनेसिस, १/२९) तथा कुरान (२/६०) में यही कहा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य को अन्य सभी जीवों को खाने का अधिकार है।

५ वायव्य पशु-(१) वैश्वानर – विश्व चेतना नर (मनुष्य, कोई जन्तु) में स्थित है। जीवों में ब्रह्म इस रूप में रह कर प्राण-अपान द्वारा ४ प्रकार के अन्न को पचाता है-

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥ (गीता, १५/१४)

(२) अश्व- चालक शक्ति। यह अश्रु की तरह निकलता है, अतः इसे अश्व कहा है। अन्य अर्थ है कि गति के कारण यह बदलता है, जो आज है वह कल (श्वः) नहीं रहेगा, अतः अ-श्व (कल नहीं) है।

यद्वै तदश्रु संक्षरितं आसीत् एष सो अश्वः (श्तपथ ब्राह्मण, ६/३/१/२८)

अग्निः देवेभ्यो निलायत। अश्वो रूपं कृत्वा। सो अश्वत्थे संवत्सरं अतिष्ठत्। तद् अश्वत्थस्य अश्वत्थत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/१/३/९)

(३) गौ- ग तृतीय व्यञ्जन वर्ण है। अतः गौ ३ का समन्वय है-निर्माण स्थल (वेदी), गति (अंग्रेजी का go), यज्ञ या निर्माण चक्र। पृथ्वी के ये तीनों रूप हैं, अतः इसे गौ कहा है। इसमें उत्पादन के ४ स्रोत या समुद्र हैं, जिनको गौ के ४ स्तन कहा है-भूमि (ठोस आवरण), जल समुद्र, वायुमण्डल, जीव मण्डल। समुद्र मन्थन में भूमि से खनिजों का दोहन हुआ था। पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश, २/३)

इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)

       धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)

आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥ गौर्भूत्वा-श्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः।

(भागवत पुराण, १०/१/ १७-१८)

राजा पृथु ने भी पृथ्वी से खनिजों, फल मूल, आहार आदि का दोहन करने के लिए उसे गौ कहा है।

तत उत्सारयामास शिला-जालानि सर्वशः।

धनुष्कोट्या ततो वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः॥१६७॥

आहारः फलमूलं तु प्रजानाम-भवत् किल। वैन्यात् प्रभृति लोके ऽस्मिन् सर्वस्यैतस्य सम्भवः॥१७२॥

शैलैश्च स्तूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा। तत्रौषधी र्मूर्त्तिमती रत्नानि विविधानि च॥१८६॥

(वायुपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय १)

अपने जीवन के लिए गौ रूप सभी प्रकार के यज्ञ तथा गौ पशु की रक्षा आवश्यक है, अतः इसे यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में अघ्न्या कहा है।

गौ रुद्र की माता है (इसके पोषण् से रुद्र तेज होता है), वसु (धन) की पुत्री है जिससे इसका पालन होता है, आदित्य जैसा निर्माण स्रोत होने से उसकी बहन है। निर्माण का अक्षय स्रोत होने से यह अमृत की नाभि है।

माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभिः।

प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक् ८/१०१/१५)

(४) अवि (भेड़)- यह सदा सीधा चलता है। इसलिए सूर्य किरण को भी अवि कहा है, जो सरल रेखा में चलती है। इससे वृक्ष के पत्तों में हरा रंग (क्लोरोफिल) बनता है।

अविः वै नाम देवर्तेनास्ते परिवृता। तस्या रूपेण इमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः

    (अथर्व, १०/८/३१) 

सृष्टि की अग्र गति को सञ्चर (सांख्य दर्शन) या सम्भूति (ईशावास्योपनिषद्) कहते हैं। अपने अस्तित्व के लिए विपरीत क्रिया को नियन्त्रित करना है।

इयं (पृथिवी) वा अविः, इयं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति

(शतपथ, ६/१/२/३३)

(५) अज = अजन्मा। यह बीज रूप से निर्माण क्रिया को सदा बनाये रखता है, अतः यह अव्यय पुरुष है।

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। (गीता १५/१) 

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा (गीता, ४/६)

७. मेध यज्ञ-(१) नरमेध -ब्रह्म पुराण, गौतमी माहात्म्य, अध्याय ३४ में सूर्य वंश के राजा हरिश्चन्द्र (प्रायः ७३०० ईपू) की कथा है जिनको वरुण ने ऐसे पुत्र का आशीर्वाद दिया जो ३ लोकों में अपने कर्म और गुणों से विख्यात होगा।

     जैसे ही उनके पुत्र का जन्म हुआ, वरुण ने उसकी बलि मांगी। हरिश्चन्द्र ने कहा कि दांत निकलने पर बलि देंगे। उसके बाद द्वितीय दांत निकलने, फिर धनुर्वेद आदि की शिक्षा के बाद बलि देने की बात कहा। इस पर वरुण ने उनको जलोदर रोग का शाप दिया। उसके बाद रोहित घर से निकल गया और बलि के लिए एक व्यक्ति शुनःशेप को खरीदा। विश्वामित्र द्वारा पूजा से वरुण प्रसन्न हुए और बलि मना कर दिया। यही कथा भागवत पुराण (९/७), ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय ३१ में है। ऋग्वेद (१/२४) में शुनःशेप के मन्त्र हैं। इसका एक अर्थ है कि मिथ्या आचरण से जलोदर होता है।

अथर्व (३/२/५) तथा ऋक् (१०/१०३/१२) में इसे अप्व (जल भरना, जलोदर) कहा है।

      इस रोग का उपचार रोहित औषधि (Tecomella undulata) है (चरक संहिता, चिकित्सा स्थान, १३/४५-८४) है। मुख्य अर्थ है कि बलि के लिए हत्या करने पर वरुण का आशीर्वाद निरर्थक हो जाता, मरने के बाद वह ३ लोकों में विख्यात कैसे हो सकता था? यहां बलि का अर्थ है कि अपना जीवन अपनी तथा देश की उन्नति के लिए समर्पित करना। बलि का अर्थ उपयोग है, हत्या नहीं।

इसी प्रकार की कथा बाइबिल और कुरान में है। इराक के उर नगर में अब्राहम रहते थे जिनको कहा गया कि वे अपने पुत्र इस्माइल की बलि दें। इस्माइल को भी गुणी होने का वरदान था। बेटे के बदले भेड़ या बकरे की बलि देते हैं, जिसे इस्लाम में बकरीद कहते हैं। शुनःशेप सूक्त में भी उर को वरुण का नगर कहा है-उरुं हि राजा वरुणश्चकार (ऋक्, १/२४/८) अतः यह वैदिक आख्यान की ही नकल है। 

नर मेध का अर्थ है जीवन को महत् उद्देश्य के लिए समर्पित करना।

      आलभन (प्राप्ति), शमिता (शान्त करना) का अर्थ हत्या नहीं है। उत्साह बढ़ाने के लिए पिता या गुरु पीठ ठोकते हैं।

दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वम्। उपनयत् मेध्या दुरः। अन्वेनं माता मनयताम्। अनुं पिता। … उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्। … अध्रिगो शमीध्वं शमीध्वमध्रिगो। अध्रिगुश्चापापश्च उभौ शमितारौ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/६/६/४)

(२) गोमेध-पृथ्वी रूपी गौ के स्रोतों की रक्षा गोमेध यज्ञ है।

     आध्यात्मिक रूप में शतौदना गौ (हृदय से निकलती १०० नाड़ियों) को छोड़ कर मूर्धा तक जाते ब्रह्म रन्ध्र में ध्यान कर मोक्ष पाना है। 

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभि निःसृतैका। 

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति, विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति॥ (कठोपनिषद्, २/३/१६)

हिरण्यं ज्योतिषं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम्। यो ते देवि शमितारः पक्तारो ये च ते जनाः॥

(अथर्व, १०/९/७)

गौ हर यज्ञ का प्रतीक है। गोमेध का अर्थ होगा केवल उसके उत्पाद या उच्छिष्ट का भोग करें जिससे यज्ञ चलता रहे और हमारा जीवन भी।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ॥१३॥

    एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥ (गीता, अध्याय ३)

(३) अश्वमेध – भौतिक रूप में रथ या विमान का इंजन अश्व है। ऋक् (८/४६/२९) में ६०,००० अश्वों के रथ का उल्लेख है। महाभारत, वन पर्व (४२/२-७) में इन्द्र के १०,००० घोड़े के रथ का उल्लेख है। महाभारत आदि पर्व (२२४/१०-१५) में अर्जुन रथ के दिव्य गान्धर्व अश्वों के तेज प्रकाश निकलने का उल्लेख है। भौतिक रूप से ६०,००० घोड़े रथ में नहीं लग सकते हैं। प्रति पंक्ति में ३०,००० अश्व होने पर वह ९० किलोमीटर तक फैल जायेंगे (प्रति अश्व ३ मीटर)। यह अश्व तुलना में इंजन शक्ति की माप है। आग्नेय इंजन से ही प्रकाश या ध्वनि निकलेगी।

देश के भीतर यातायात या सञ्चार के साधन को अश्व कहा है। राजसूय यज्ञ के नाटकों के अनुसार अश्व छोड़ देने पर वह पूरा देश नहीं घूमेगा, न राजा सेना सहित उसके पीछे चल सकते हैं। राजा का कर्तव्य है कि देश में सञ्चार और परिवहन बाधा रहित हो।

आध्यात्मिक स्तर पर अश्वमेध का अर्थ है, नाड़ी में प्राण सञ्चार की बाधा दूर करना जिसे काया-कल्प भी कहा गया है। दशरथ के पुत्र कामेष्टि यज्ञ को भी हय-मेध या अश्वमेध कहा है। वृद्धावस्था में पुत्र जन्म के लिए उनके तथा रानियों के काया कल्प की आवश्यकता थी। 

वीर्यं वा अश्वः

(शतपथ ब्राह्मण २/१/४/२३) 

प्राणापानौ वा एतौ देवानाम्। यदर्काश्वमेधौ।

(तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/२१/३) 

सुतार्थी वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम्

(रामायण, बालकाण्ड, ८/२)

तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम (बालकाण्ड, ८/८)

८. तान्त्रिक बलि-(१) शाक्तागम तन्त्र – पटल १६- तच्च प्रकृति खण्डे-

त्रिविधो बलिराख्यातः सात्विको राजसस्ततः।

तामसश्चैव विज्ञेयस्तेषां भेदमथो शृणु॥१२४॥

प्रकृति खण्ड में बलि विधान इस प्रकार कहा गया है-बलि सात्त्विक, राजस और तामस भेद से ३ प्रकार की है। अब उसके भेद सुनें।

निवृत्तिमार्गनिष्ठानां बलि विधानम्

सात्त्विकः फलपुष्पादिः प्राणी तु राजसः स्मृतः।

स्वीय देहोद्भवो यश्च तामसः परिकीर्तितः।

निवृत्तिमार्ग निष्ठानां सात्विको बलिरीरितः॥१२५॥

फल पुष्पादि सात्त्विक बलि है। प्राणी की बलि राजस बलि है। अपने शरीर से निकले रक्त आदि की बलि तामस है। निवृत्ति मार्ग में आस्था रखने वालों के लिए सात्त्विक बलि का विधान है।

तथा च महाकाल संहितायाम्-

सात्त्विको जीवहत्यां हि कदाचिदपि नो चरेत्।

इक्षुदण्डं तु कूष्माण्डं तथा वन्यफलादिकम्॥१२६॥

क्षीरपिण्डैः शालिचूर्णैः पशुं कृत्वा चरेद् बलिम्। 

तत्तत्फलविशेशेण तत्तत्पशुमुपानयेत्॥१२७॥

कूष्माण्डं महिषत्वेन छागलत्वेन कर्कटीम्।

वृन्ताकं कुक्कुटत्वेन मेषत्वेन च तुम्बिकाम्॥१२८॥

रम्भापुष्पं बीजपूरं पिण्डवाजिबलौ भवेत्।

मानुष्यत्वेन पनसं मत्स्यत्वेनेक्षुदण्डकम्॥१२९॥

जैसा कि महाकाल संहिता में भी कहा है-सात्त्विक पुरुष कदापि जीवहत्या न करे। इक्षुदण्ड, कूष्माण्ड तथा वन्य फलादिक, दुग्धपिण्ड (खोवा), शालिचूर्ण का पशु बना कर बलिदान करे। माहिष की बलि देनी हो तब कूष्माण्ड पशु, छागल (बकरा) की बलि देनी हो तो कर्कटी का पशु, घोड़े की बलि में केला अथवा बीजपूर नीम्बू का पशु बना कर अर्थात् भावना कर के बलिदान करे।

      मनुष्य की बलि में कटहल का और मत्स्य की बलि में इक्षुदण्ड की भावना कर बलिदान करे।

शूरणत्वेन शलकं तथा कौशीतकीं मृगे। पटोलं शूकरत्वेन शर्करा वालुषा तथा॥१३०॥

माषाः सर्वबलित्वेन सर्वेषां कृशरान्नतः। दद्यात् यथोक्त मार्गेण यथेष्ट फलसिद्धये॥१३१॥

साही की बलि में सूरन का, मृग की बलि में कौशीतकि का, शूकर की बलि में पटोल (परवल), शर्करा अथा वालुषा (बालूसाही मिठाई) की बलि देवे। सब प्रकार की बलि में माष (ऊरद) की बलि, अथवा सभी के लिए कृशरान्न (तिल मिश्रित मूंग) की बलि देवे। इस प्रकार यथेष्ट फल की सिद्धि के लिए शास्त्रविहित मार्ग से बलि प्रदान करना चाहिए।

(२) पञ्च मकार-मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा (पैसा, अन्य अर्थ भुना हुआ अन्न), मैथुन को पञ्च मकार कहा गया है। यदि केवल इनके ही प्रयोग से मोक्ष होता तो सभी मांसाहारी जीव, शराबी, व्यभिचारी, लुटेरे मोक्ष पा जाते। पञ्च मकार साधना मोक्ष मार्ग में उन्नति के ५ सोपान हैं।

मद्यं मांसं ततः मत्स्यो मुद्रा मैथुनमेव च।

पञ्चतत्त्वमिदं देवी निर्वाण मुक्ति हेतवः।

मकार पञ्चकं देवि देवानां अपि दुर्लभम्। (गुप्त साधन तन्त्र)

देवि! मद्य, मांस, मत्स्य, भुने या छाने हुए अन्न, मैथुन-ये ५ तत्त्व निर्वाण देते हैं। ये देवों के लिए भी दुर्लभ हैं।

नार्चयेत् कालिकां देवीं शाम्भवी सुख मोक्षदाम्।

मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रां च मैथुनं विना।

ब्राह्मणो वीरभावेन कालिकायै निवेदयेत्॥

शाम्भवी सुख और मोक्ष देने वाली कालिका की पूजा बिना मद्य, मांस, मत्स्य, अग्नि और मैथुन के बिना नहीं करे। वीर भाव युक्त ब्राह्मण द्वारा यह कालिका को अर्पित करना चाहिए।

(क) मद्य-पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।

उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।। (कुलार्णव तन्त्र,  ७/१००)

यहां बार बार शराब पीकर जमीन पर गिरने का उल्लेख नहीं है। मूलाधार के भूमि तत्त्व से कुण्डलिनी रूप चेतना जल, अग्नि, वायु, आकाश और मन तत्त्वों के चक्रों को पार कर सहस्रार में पहुंचती है तो विन्दु चक्र से निकले अमृत का पान कर वह सन्तुष्ट हो कर पुनः भूमि तत्त्व पर नीचे आजाती है।

      बार बार ऐसा करने पर मोक्ष होता है। महीं मूलाधारे, कमपि मणिपूरे हुतवहं, 

स्थितं स्वाधिष्ठाने, हृदि मरुतमाकाशमुपरि।

मनोऽपि भ्रूमध्ये, सकलमपि भित्वा कुलपथं,

सहस्रारे पद्मे, सह रहसि पत्या विहरसि॥

(सौन्दर्य लहरी, ९)

इसे अन्नमय कोष से उत्थान या अष्टचक्रों को पार कर सहस्रार तक पहुंचना कहा है। उतामृतत्वस्येशानो तदन्नेनातिरोहति (पुरुष सूक्त, वाज. सं. ३१/२)।

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गोज्योतिषावृतः॥ (अथर्व, १०/२/३१)

अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। (अथर्व, ११/४/२२)

मद्य पानेन मनुजो यदि सिद्धिं लभेत वै।

मद्यपानरताः सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामराः॥

 (कुलार्णव तन्त्र, २/११७)

(ख) मांस-मांस भक्षण मात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत्।

लोके मांसाशिनः सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि॥

(कुलार्णव तन्त्र, २/११८)

यदि केवल मांस भोजन से पुण्य गति मिले तो सभी मांसाहारी मोक्ष पायेंगे।

माङ्गल्य जननाद् देवि संविदानन्द दानतः।

सर्वदेव प्रियत्वाच्च मांस इत्यभिधीयते॥ (कुलार्णव तन्त्र (१७/६९)

मांस के २ तत्त्व हैं-माङ्गल्य (मां) और सत्-चित्-आनन्द (स)।  यह देवों को प्रिय है।

(ग) मत्स्य-माया मलादि शमनात् मोक्ष-मार्ग निरूपणात्।

अष्टदुःखादि विरहात् मत्स्येति परिकीर्तितः॥ (कुलार्णव तन्त्र)

= जो माया मल को शान्त कर मोक्ष मार्ग का निरूपण कर ८ प्रकार के दुःखों से मुक्त करे वह मत्स्य है। ८ प्रकार के कष्ट हैं-गर्भ, जन्म, विवाह, सांसारिक जीवन, चिन्ता, रोग, वार्धक्य, मृत्यु।

कैलाश तन्त्र के अनुसार-

गङ्गा यमुनयोर्मध्ये द्वौ मत्स्यौ चरतः सदा।

तौ मत्स्यौ भक्षयेत् यस्तु सा भवेत् मत्स्य साधकः।

= गंगा-यमुना (इड़ा-पिंगला) नाड़ी में २ मत्स्य सदा चलते हैं (प्राण प्रवाह)। जो इन मत्स्यों को खाता है, वही मत्स्य साधक है। कुछ के मत से खेचरी मुद्रा का अभ्यास ही इस मत्स्य की साधना है।

मनसा चेन्द्रियगणं संयम्यात्मनि योजयेत्।

मत्स्याशी स बवेद्देवि शेषाः स्युः प्राणिहिंसकाः॥

(कुलार्णव तन्त्र, ५/११०)

मन में सभी इन्द्रियों का संयम कर आत्मा में योग करता है, ऐसे योगी को मत्स्यभोजी कहते हैं। मन की वृत्ति और विषयों का लय ही मत्स्य भोजन है। अन्य मत्स्यभोजी प्राणी हिंसक हैं।

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्॥ गजेन्द्र मोक्ष, भागवत, ८/३/१).

युधिष्ठिर द्वारा यही साधना क्रम हुआ था-वाक् की मन में आहुति, मन की प्राण में, प्राण की अपान में, अपान की मृत्यु में, मृत्यु की पञ्चत्व में, पञ्चत्व की त्रित्व में, त्रित्व की एकत्व में, आत्मा की आहुति अव्यय में।

वाचं जुहाव मनसि तत्प्राणे इतरे च तं।

मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पञ्चत्वेह्यजोहवीत्॥४१॥

त्रित्वे हुत्वाथ पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः।

सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥४२॥

(भागवत पुराण, १/१५/४१-४२)

   (घ) मुद्रा के कई अर्थ हैं-द्रव्य, भुना अन्न, हाथ या अंगुलियों का संकेत (योग या नृत्य में), यौगिक क्रियायें। 

मुदं कुर्वन्ति देवानां मनांसि द्रावयन्ति च।

तस्मान्मुद्रा इति ख्याता दर्शितव्याः कुलेश्वरि॥

 (कुलार्णव तन्त्र, १७/५७)

यहां हाथ और अंगुलियों की मुद्रा का संकेत है।

(ङ) मैथुन-यदि केवल संभोग से मोक्ष हो तो सभी जीव ऐसा करते हैं, उनका मोक्ष होना चाहिए :

शक्ति सम्भोग मात्रेण यदि मोक्षो भवेत वै।

सर्वेऽपि जन्तवो मुक्ताः स्युः स्त्रीनिषेवनात्॥

(कुलार्णव तन्त्र, २/११९)

पराशक्ति से आत्मा के संयोग अर्थात् ब्रह्म साक्षात्कार को ही वह मैथुन कहा है, जिससे मुक्ति मिलती है।

पराशक्त्यात्ममिथुन संयोगानन्द निर्भरः।

य आस्ते मैथुनं तत् स्याद् अपरे स्त्रीनिषेवकाः॥

 (कुलार्णव तन्त्र, ५/११२)

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