राम पुनियानी
लगभग 90 साल पहले महान क्रांतिकारी भगत सिंह को ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने फांसी पर लटका दिया था। वे देश के महानतम क्रांतिकारियों में से एक थे और समाजवाद, भारत की स्वतंत्रता और औपनिवेशिक ताकतों की खिलाफत के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध थे। उनका जीवन ऐसे सभी लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है जो न्याय, शांति और सद्भाव पर आधारित समाज का निर्माण चाहते हैं। किस तरह एक 23 साल के युवा ने देश की स्वाधीनता के लिए अपनी जान दे दी और किस तरह इतनी कम आयु में भी उन्होंने अत्यंत गंभीर और विद्वतापूर्ण वैचारिक लेखन किया, इस बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है. जो लोग भगत सिंह के मिशन और उनकी विचारधारा के पूरी तरह खिलाफ हैं वे उनके आसपास कई तरह के विवाद गढ़ रहे हैं। फिर कई ऐसी शक्तियां हैं जो उनकी सोच को नकारते हुए भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उनके नाम का उपयोग कर रही हैं।
भगत सिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की सदस्यता ली और उसके नाम में सोशलिज्म (समाजवाद) शब्द को शामिल करने के लिए लंबा संघर्ष किया। उन्होंने एक योजना के अंतर्गत सांडर्स की हत्या की क्योंकि उन्हें लगा कि साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपतराय की पुलिस कार्यवाही में मौत देश का अपमान है। उन्होंने और उनके साथियों ने इस अपमान का बदला लेने की ठानी। इसके अलावा उन्होंने असेम्बली में बम भी फेंका। इसका उद्देश्य किसी को मारना नहीं बल्कि भगत सिंह के स्वयं के शब्दों में, ‘बहरों को सुनाना’ था चूंकि उनकी आवाज आम जनता तक नहीं पहुंच रही थी इसलिए वे अदालत में अपना विस्तृत बयान देने का अवसर चाहते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि उसे समाचारपत्र विस्तार से प्रकाशित करेंगे और इस तरह उनकी बात आमजनों तक पहुंच सकेगी।
सावरकर और भगत सिंह में कोई तुलना नहीं है। अपने जीवन के शुरुआती दौर में भले ही सावरकर ने ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया हो परंतु कालापानी की सजा मिलने के बाद तो वे पूरी तरह से अंग्रेजों के आगे नतमस्तक हो गए थे। उन्होंने कई दया याचिकाएं लिखीं और जेल से रिहा किए जाने के बाद अंग्रेजों की मदद की। उन्हें सरकार की ओर से 60 रूपये प्रतिमाह की पेंशन मिलती थी। उस समय सोने का दाम 10 रूपये प्रति दस ग्राम था।
यह मानना कि वे हिंसा के जरिए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेकना चाहते थे, गलत है। लंबे अध्ययन और चिंतन-मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि व्यवस्था को बदलने और ब्रिटिश राज को समाप्त करने का एकमात्र तरीका अहिंसक और व्यापक जनांदोलन है। इस सोच का एक उदाहरण था रामप्रसाद बिस्मिल की सलाह जिन्होंने ‘‘रिवाल्वर और पिस्तौलें रखने की इच्छा” को त्यागने और ‘‘सार्वजनिक आंदोलन में भाग लेने” की वकालत की थी. सन् 1929 तक भगत सिंह इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि व्यक्तिगत बहादुरी की कार्यवाहियों से क्रांति नहीं आ सकती. क्रांति केवल मार्क्सवाद और व्यापक आधार वाले जनांदोलन से ही आ सकती है। सन् 1931 में अपने साथियों को जेल से संबोधित करते हुए उन्होंने अपनी इस रणनीति पर विस्तार से चर्चा की थी।
भगत सिंह की अपने पिता को दी गई सलाह भी इसकी पुष्टि करती है। उनके पिता किशन सिंह चाहते थे कि वे ब्रिटिश सरकार से माफी मांग लें क्योंकि उनके सामने अभी एक लंबी जिंदगी पड़ी थी। अपने पिता को धिक्कारते हुए भगत सिंह ने कहा कि वे एक क्रांतिकारी हैं और माफी मांगने की बजाए फायरिंग स्क्वाड के हाथों मारा जाना पसंद करेंगे। यह दिलचस्प है कि कुछ साल पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस और सावरकर को क्रांतिकारियों की त्रिमूर्ति बताया था और उनका अनुकरण करने की बात कही थी। सावरकर और भगत सिंह में कोई तुलना नहीं है। अपने जीवन के शुरुआती दौर में भले ही सावरकर ने ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया हो परंतु कालापानी की सजा मिलने के बाद तो वे पूरी तरह से अंग्रेजों के आगे नतमस्तक हो गए थे। उन्होंने कई दया याचिकाएं लिखीं और जेल से रिहा किए जाने के बाद अंग्रेजों की मदद की। उन्हें सरकार की ओर से 60 रूपये प्रतिमाह की पेंशन मिलती थी। उस समय सोने का दाम 10 रूपये प्रति दस ग्राम था। दूसरा महत्वपूर्ण अंतर यह है कि सुभाष बोस, भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी समाजवाद से प्रेरित थे जबकि सावरकर इटली के मेत्सिनी से प्रभावित थे, जो फासिस्ट विचारधारा का पितामह माना जाता है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम पर लिखित पुस्तक इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस (विपिनचन्द्र पाल एवं अन्य, पेंगुइन) की आलोचना इस आधार पर की गई थी कि उसमें भगत सिंह और उनके साथियों को आतंकवादी बताया गया है। सच यह है कि इन क्रांतिकारियों के खुद के दस्तावेजों में अपने आपको ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया है। यह बात अलग है कि आगे चलकर उन्होंने यह रास्ता त्याग दिया था। अनुराग ठाकुर और स्मृति ईरानी ने इसकी आलोचना की थी। दरअसल दक्षिणपंथी नेतागण इस पुस्तक से इसलिए खफा थे क्योंकि उसमें भारत में साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने में मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस की भूमिका पर रोशनी डाली गई थी और यह भी बताया गया था कि इन तीनों संस्थाओं ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं की।
अनवरत दुष्प्रचार से यह बात आम लोगों के मन में बैठा दी गई है कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह की जिंदगी नहीं बचाई। यह गलत है। गांधीजी ने लार्ड इरविन को दो पत्र लिखकर भगत सिंह को दी गई मौत की सजा को मुल्तवी करने या घटाने का अनुरोध किया था। गांधीजी ने 1931 में करांची में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में एक राष्ट्रवादी को फांसी देने के लिए ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते हुए प्रस्ताव तैयार किया था। इस अधिवेशन में भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने भी भाषण दिया था। उन्होंने कहा, ‘भगत सिंह ने मुझसे कहा कि मैं चिंता न करूं और उन्हें फांसी हो जाने दूं. उन्होंने मुझे प्रीवी काउंसिल में अपील करने के लिए मना लिया क्योंकि उनका कहना था कि गुलामों को शिकायत करने का हक नहीं होता…. आपको अपने जनरल (गांधी) का समर्थन करना चाहिए, आपको सभी कांग्रेस नेताओें का समर्थन करना चाहिए तभी आप भारत को स्वतंत्रता दिलवा सकेंगे।’
गांधीजी ने नवजीवन में लिखा, ‘’मैंने भगत सिंह और उनके साथियों को मौत की सजा न देने की मांग को लेकर चले अभियान में भाग लिया था. मैंने इस काम में अपनी पूरी ताकत लगाई।’
दक्षिणपंथी नेतागण इस पुस्तक से इसलिए खफा थे क्योंकि उसमें भारत में साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने में मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस की भूमिका पर रोशनी डाली गई थी और यह भी बताया गया था कि इन तीनों संस्थाओं ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं की।
एक अन्य फेंक न्यूज जो फैलाई जा रही है वह यह है कि कांग्रेस नेता भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने जेल नहीं गए। यह सफेद झूठ है।
द ट्रिब्यून के अगस्त 9-10 1929 के अंक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा क्रांतिकारियों से मुलाकात करने और उनका हाल जानने की खबर प्रकाशित है. मोतीलाल नेहरू ने एक समिति का गठन किया था जिसकी एकमात्र मांग यह थी कि आमरण अनशन कर रहे क्रांतिकारियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए।अपनी आत्मकथा टूवर्डस फ्रीडम में जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं, ‘मैं लाहौर में था. तब तक भूख हड़ताल शुरू हुए एक महीना बीत चुका था. मुझे जेल में जाकर कुछ कैदियों से मिलने की अनुमति दी गई जिसका मैंने प्रयोग किया।’
भगत सिंह, जो पक्के नास्तिक थे, आज के परिदृश्य को कैसे देखते। आज श्रमिकों और किसानों के हितों की बात कोई नहीं करता। भगत सिंह ने धर्म के दुरूपयोग की निंदा की थी परंतु आज लोग धर्म के नाम पर अंधश्रद्धा को बढ़ावा दे रहे हैं और आसाराम बापू और गुरमीत रामरहीम जैसे अनेक बाबा उग आए हैं। सरकार ‘आस्था’ पर आधारित ज्ञान को तव्वजो दे रही है। कुछ राजनैतिक शक्तियां एक ओर भगत सिंह को पूजनीय बताती हैं तो दूसरी ओर मंदिरों के निर्माण पर अरबों रूपये खर्च कर रही हैं और धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता फैला रही हैं.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं