और एक अदा भी.. क्योकि असल मे नरसिंहराव ने एक झटके में जो फैसले लिए, उसने भारत की दशा और दिशा बदल दी।
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जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे प्रधानमंत्री हुए, जिन्होंने देश की मौलिक संस्कृति को पलट दिया। जहां नेहरू ने ब्रिटिश कालोनी को “भारत” बनाते हुए संविधान और लोकतंत्र के प्रिसिडेंट सेट किये, नरसिंहराव ने भारत के आर्थिक उत्थान का नया दिशासूचक ईजाद कर, देश के सामने रख दिया।
मगर पमुलापरती वेंकट नरसिम्हाराव के खाते में महज आर्थिक सुधार ही नही है। पोस्ट कोल्ड वार युग मे भारत की विदेश नीति भी आमूलचूल बदली।
एक हाथ में येल्तसिन को मजबूती से पकड़े पकड़े उन्होंने क्लिंटन से भी हाथ मिलाया। आधी शताब्दी के छुपे रिश्ते उजागर कर इजराइल से औपचारिक सम्बंध बनाये और ताइवान से भी।
लुक ईस्ट की पालिसी नरसिंहराव की देन है। यह अलग बात की आपके जेहन में यह सब शायद 2014 के बाद शुरू हुआ।
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यह नरसिंहराव थे जिन्होंने परमाणु क्षमता को परमाणु बम में तब्दील किया। यह नरसिंहराव ही थे, जिन्होंने कश्मीर और पंजाब के सबसे बुरे दौर के आतंकवाद को झेला।
टैलेंट के पोषक नरसिंहराव ने मनमोहन के अलावे एक और सरदार को खोज निकाला, वो केपी एस गिल थे। गिल और बेअंत की जोड़ी ने डंडे और डेमोक्रेसी की दोहरी नीति से पंजाब को नया जीवन दिया।
यह नरसिंहराव थे जिसने सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे रिस्की जीनियस को सरकार में कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर इस्तेमाल किया। और वही अकेले ऐसे पीएम थे, जिसने नेता विपक्ष को यूएन में भारत के प्रतिनिधिमंडल का लीडर बनाकर भेजा, जिसमे सरकार का विदेशमंत्री उप लीडर था।
यूएन में जीत के बाद बाजपेयी और सलमान खुर्शीद की आल्हादित गले मिलती फोटो, पक्ष और विपक्ष की देशहित में जुगलबंदी की, शायद आखरी हार्ट वार्मिंग तस्वीर है।
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“लीजेंड्स आर बोर्न इन जून” और जून में पैदा हुए नरसिंहराव कोई 16 भाषाओं के जानकार थे। लेखन, पत्रकारिता के साथ स्वातंत्र्य संग्राम में भागीदारी की।
राजनीति में आये। आंध्र विधानसभा में विधायक मंत्री और मुख्यमंत्री रहे। जब कांग्रेस टूटी वे इंदिरा के साथ रहे और लोकसभा में लाये गए। इंदिरा और राजीव की सरकारों में गृह, विदेश, रक्षा जैसे मंत्रालय संभालने वाले राव ने 1991 में राजनीति को अलविदा कह दिया।
मगर किस्मत को कुछ और मंजूर था।
सितारों ने MP का चुनाव न लड़ने वाले नरसिंहराव को बुलाकर PM बना दिया गया। शास्त्री के बाद, कांग्रेस की डायनेस्टी के बाहर के दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए। देवगौड़ा के बेेअसर कार्यकाल को इग्नोर करें, तो आप उन्हे दक्षिण का एकमात्र प्रधानमंत्री भी मान सकते है।
नंदयाल से चुनाव लड़ा और पांच लाख वोट से जीतने का विश्व रिकार्ड बनाया।
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तमाम सफलताओं के बावजूद नरसिंहराव देश मे कांग्रेस डोमिनेशन के बहादुरशाह जफर साबित हुए।
पद के दूसरे दावेदार शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने अपनी चालबाजियों से उत्तर के प्रमुख राज्यों में कांग्रेस को कमजोर किया। बची खुची कसर नरसिंहराव ने खुद निकाल दी, जब 1996 में उत्तर प्रदेश में मायावती से 100 सीटें लेकर बाक़ी छोड़ दी। इसके बाद वहां संगठन नष्ट हो गया।
मगर असफलताओं की लिस्ट में सबसे बड़ा दाग छह दिसम्बर 1992 है, जब आडवाणी के आश्वासन पर कारसेवकों को जमा होने की इजाजत दी गयी। इसके बाद 1993 के दंगे, मुंबई ब्लास्ट और तमाम घटनाओं ने देश की गंगा जमुनी तहजीब को ऐसा सोखा कि पूरा का पूरा उत्तर भारत नफरत के रेगिस्तान में बदल गया।
आज 30 साल बाद जहां, घृणा के नागफनी की फसल लहलहा रही है।
हवाला मामले में आडवाणी को लपेटकर नरसिंहराव ने उनका पोलिटीकल कैरियर चौपट करने की कोशिश की।
सफल नही हो सके, तो उनका बदला आडवाणी के चेले ने पूरा किया। जब नरसिंहराव का जन्मशती वर्ष में, राम मंदिर का शिलान्यास हो रहा है। इस अवसर में आडवाणी आमंत्रित नही हुए, यह नरसिंहराव की आत्मा को अवश्य तरावट देने वाला होगा।
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डायनेस्टी के विरुद्ध जाकर नरसिंहराव ने जो क्राइम किया था, पद से हटने के बाद ऊसकी कीमत चुकाई, करप्शन के केसेज (जिसमे अंततः कोर्ट ने निर्दोष करार दिया) में अदालतों के चक्कर अकेले लगाते।
कोई साथ होता, तो वे थे केपीएस गिल…
दिसम्बर 2004 में जब उनका अवसान हुआ, उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस मुख्यालय में रखने की इजाजत नही मिली। अपने प्रधानमंत्री और सिपाही का इससे बड़ा अपमान कोई संगठन नही कर सकता। कांग्रेस को इसकी सजा मिलनी चाहिए, मिली है।
तमाम गलतियों में बावजूद मैं उन्हें नेहरू के बाद हिंदुस्तान दूसरा बड़ा प्रधानमंत्री मानता हूँ। क्योकि गलतियां क्या नेहरू से नहीं हुई??
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सच या झूठ, अर्जुन सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया कि 5 दिसम्बर को जब अयोध्या में जमावड़ा हो रहा था, मस्जिद पर हमले की साजिशों का खुलासा लेकर वे नरसिंहराव के पास गए। उन्होंने प्रधानमंत्री से तुरंत फैसला लेकर कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त करने का अनुरोध किया।
राव सुनते रहे, चुप रहे। फिर जो फैसला किया, वह शायद कांग्रेस की डायनेस्टी कभी नही करती। लम्बी चुप्पी के बाद, बकौल अर्जुन सिंह उन्होंने कहा- अर्जून सिंह जी..
“फैसला न करना भी एक फैसला है”