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‘पुरानी पेंशन के अलावा कुछ भी मंजूर नहीं’….5 नवंबर को दिल्ली में होगा पूरा देश

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‘पुरानी पेंशन के अलावा कुछ भी मंजूर नहीं’ का आह्वान करते देश के सरकारी कर्मचारियों के बीच एक बार फिर से दिल्ली के रामलीला मैदान में जोरदार गर्जना करने का फितूर सवार हो रहा है। यह रैली 3 नवंबर को की जाये या 5 नवंबर 2023 को हो, को लेकर कर्मचारी संगठनों में विचर-विमर्श जारी है। इस बार राज्य सरकार के कर्मचारी ही नहीं बल्कि केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के मान्यता प्राप्त कर्मचारी संगठनों की हिस्सेदारी की भी खबर आ रही है। कर्मचारी संगठनों का कहना है कि केंद्र सरकार एनपीएस स्कीम में संशोधन की बात कहकर कर्मचारियों का ध्यान ओपीएस से भटकाने के प्रयास में है।

हिमाचल प्रदेश में ओपीएस स्कीम के तहत पेंशन शुरू

लेकिन संघर्षरत कर्मचारियों के लिए इसी बीच हिमाचल प्रदेश से एक बड़ी खबर आ रही है। राज्य में सेवानिवृत कर्मचारियों को ओपीएस पेंशन मिलनी शुरू हो चुकी है।

वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला किनी में 13 वर्ष 10 महीने तक अपनी सेवाएं देने के बाद अवकाश प्राप्त चिंत राम शास्त्री को केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2004 से एनपीएस पेंशन स्कीम के तहत 1,770 रुपये की मासिक पेंशन मिल रही थी। प्रति माह 55,000 रुपये की नियमित तनख्वाह से एक झटके में 1,770 रुपये पर अपने परिवार का जीवन-निर्वाह करने को मजबूर चिंत राम शास्त्री के लिए हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी और मुख्यमंत्री सुक्खू की सरकार वरदान साबित हुई है। 

सेवानिवृति के बाद से पिछले 5 वर्षों से 1,770 रुपये की पेंशन के हकदार चिंत राम शास्त्री को अब 36,850 रुपये की पेंशन मिल रही है। इतना ही नहीं, पेंशन से पहले राज्य सरकार द्वारा उन्हें अप्रैल 2023 से अब तक का बकाया (arrear) चुकाया गया, फिर पेंशन मिली। प्रदेश में ओपीएस आंदोलन की बागडोर संभाले प्रदीप ठाकुर ने जब चिंत राम के निवास पर जाकर इसकी तस्दीक की तो उन्होंने इसके लिए आंदोलन एवं हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार को धन्यवाद ज्ञापित किया। 

यह कहानी किसी एक चिंत राम शास्त्री की नहीं, वरन देश में दसियों लाख सरकारी एवं सार्वजनिक उपक्रमों में कार्यरत कर्मचारियों की है, जिनके सामने एनपीएस पेंशन के अपने-अपने किस्से हैं। देश में हर कोई सरकारी नौकरी के पीछे यूं ही पागल नहीं है। सुरक्षित रोजगार के साथ-साथ सरकारी नौकरी आपको कुछ दिन पहले तक सुरक्षित बुढ़ापा भी प्रदान करती थी, जिसे नव-उदारवादी अर्थव्यस्था की भेंट चढ़ा दिया गया। 

जब देश में कॉर्पोरेट, अभिजात वर्ग ही नहीं बल्कि व्यापक मध्य वर्ग ने भी स्वीकार कर लिया कि देश को अब पीपीपी मोड पर ही चलाना ज्यादा ठीक है, तो फिर उसे एनपीएस से भी परहेज नहीं होना चाहिए था। लेकिन अच्छे-दिन के सपने हकीकत की ठोकर में चूर-चूर हो गये। आज करोड़ों लोगों (करीब 2 करोड़ सरकारी, सार्वजनिक निगम के कर्मचारियों और उनके परिवार के सदस्यों) के लिए पुरानी पेंशन सबसे बड़ा मुद्दा बन चुकी है।

कांग्रेस सहित विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने भी अपने-अपने राज्यों में ओपीएस की घोषणा कर सरकारी कर्मचारियों की भाजपा के राष्ट्रवादी स्वरूप पर आस्था को डांवाडोल कर दिया है। वे अभी तक यही सोच रहे थे कि पुरानी सरकारें थकेलू और भ्रष्ट थीं, जिन्हें काफी कुछ करना था पर उन्होंने नहीं किया। लेकिन जिससे अच्छे दिन की आस लगाई थी, वो तो इन राज्यों को अब कर्मचारियों के भविष्य निधि का पैसा तक नहीं लौटा रही है? दिल और दिमाग से लड़ते ये सरकारी-अर्ध सरकारी कर्मचारी अब बड़े संकल्प के साथ बड़ी लड़ाई और 2024 के आम चुनाव के लिए कमर कस रहे हैं।

2 अक्टूबर की रामलीला मैदान की रैली से भी कई गुना बड़ी रैली की तैयारी

यही कारण है कि 2 अक्टूबर 2023 को दिल्ली के रामलीला मैदान में देश भर से आये हुए कर्मचारियों के हुजूम से मोदी सरकार को पसीने छूट गये थे। यह अलग बात है कि इस रैली की चर्चा न तो कथित राष्ट्रीय टेलीविजन मीडिया और न ही समाचार पत्रों में देखने को मिली। लेकिन सोशल मीडिया के जरिये गांव-कस्बों और छोटे-छोटे शहरों में इस खबर को बड़े पैमाने पर देखा और चर्चा की गई।

यहां तक कि इस घटना के बाद देश में कई अखबारों के स्थानीय संस्करणों को इन कर्मचारियों के गुस्से का सामना करना पड़ा, जब उनकी ओर से अखबारों को खरीदना बंद करने की घोषणा और कार्रवाई तक शुरू कर दी गई। ऐसी तमाम सूचनाएं हैं जिसमें पता चलता है कि अचानक से अख़बारों की बिक्री में भारी गिरावट को देखते हुए स्थानीय अख़बार वितरकों एवं कंपनी की मार्केटिंग टीम ने लोगों से इस बाबत फोन कर अख़बार बंद करने के फैसले का कारण और उसका निवारण करने के प्रति आश्वस्त किया है।

अब एक बार फिर से और भी भारी तादाद में ओपीएस की मांग को लेकर देश भर के कर्मचारियों का हुजूम दिल्ली में डेरा डालने की तैयारियों में जुटा है। खबर है कि 3 नवंबर या 5 नवंबर की तारीख को लेकर अंतिम फैसला लिया जाना है। यह भी सुनने में आ रहा है कि पिछली बार जो रैली आयोजित की गई थी, उसमें अधिकांश कर्मचारी राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, और मान्यता प्राप्त केंद्रीय ट्रेड यूनियन के लाखों कर्मचारी इसमें शामिल नहीं हुए थे।

लेकिन 2 अक्टूबर के विशाल जमावड़े, हिमाचल प्रदेश में ओल्ड पेंशन स्कीम के लागू होने की खबर और 2024 लोकसभा चुनावों में तीसरी बार जीत की हैट्रिक लगाने के लिए बेचैन भाजपा सरकार की ओर से एनपीएस में फेरबदल कर पुराने ओपीएस के समतुल्य पेंशन दिए जाने पर विचार-मंथन की खबर के बाद से रेलवे सहित तमाम मान्यता-प्राप्त केंद्रीय कर्मचारियों की ट्रेड यूनियनों पर भी ओपीएस के समर्थन में बढ़-चढ़कर उतरने के लिए भारी दबाव बन गया है।

संभावना जताई जा रही है कि 2 अक्टूबर की रैली की तुलना में नवंबर 2023 में प्रस्तावित रैली देश में एक नया कीर्तिमान स्थापित कर सकती है।

पुरानी पेंशन को लेकर नीति आयोग और सरकार की चिंता कितनी वाजिब?

देश में मौजूद आर्थिक विश्लेषकों एवं नीति आयोग की समय-समय पर दर्ज की जाने वाले चिंताओं में पेंशन के बढ़ते बोझ को लेकर लगातार अख़बारों को काला किया जाता है। लेकिन कर्मचारियों का तर्क है कि यही चिंता तब कहां चली जाती है जब सांसदों, विधायकों द्वारा जीवन में एक बार भी चुनाव जीत लेने की सूरत में उनके लिए भारी भरकम पेंशन की व्यवस्था आरक्षित कर दी जाती है।

इतना ही नहीं देश में सेना सहित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भी ओपीएस स्कीम के तहत ही रखा गया है, जबकि शेष आबादी को एनपीएस के तहत शेयर बाजार के हवाले कर दिया गया है, जिसके तहत पेंशन के नाम पर 1,500-2,000 रुपये थमा दिए जा रहे हैं। हाल ही में दुनिया भर में पेंशन सामजिक सुरक्षा के आंकड़े प्रकाशित हुए हैं। इन आंकड़ों में भी साफ़-साफ़ दर्शाया गया है कि दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में सेवानिवृति के बाद पेंशन सबसे कम है।

कॉर्पोरेट के 25 लाख करोड़ रु राइट-ऑफ लेकिन पेंशन के नाम पर देश की माली हालत का रोना

हाल ही में गुजरात के एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा आरटीआई के माध्यम से जानकारी हासिल की गई है, उसने देश के होश उड़ा दिए हैं। इस आरटीआई से खुलासा हुआ है कि देश के सार्वजनिक बैंकों ने 2014 में मोदी राज के दौरान जो 11 लाख करोड़ रुपये राइट-ऑफ किये थे, वे आंकड़े अधूरे हैं। कुल राइट-ऑफ रकम तो 25 लाख करोड़ रुपये बनती है। इसमें शेष हिस्सा अन्य वाणिज्यिक बैंकों का है, जिस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, या जानबूझकर अनदेखी की गई है।

मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया और कुछ छोटे समाचार पत्रों को छोड़ दें तो आज भी किसी मीडिया आउटलेट या राष्ट्रीय अख़बार ने इस सूचना को अपनी प्रमुख खबर नहीं बनाया है।

अब कर्मचारियों के बीच भी यह सवाल गहराने लगा है कि लाखों करोड़ कॉर्पोरेट मित्रों पर फूंकने के लिए सरकार के पास है, लेकिन हमें सम्मानजनक तरीके से अपना बुढ़ापा काटने के लिए सरकार के पास पैसे क्यों नहीं हैं? जैसा कि सभी जानते हैं कि सरकारी कर्मचारी खुद को भी सरकार ही मानता है और सरकारी कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन के लिए किसी भी सरकार की निर्भरता इन्हीं पर होती है। एक मायने में ये लोग ही सरकार के आंख, नाक और कान होते हैं। भारत में पेंशन की पहल अंग्रेज बहादुर कर गये थे, जिन्हें अपने लिए विश्वासपात्र काले भारतीय तैयार करने थे। इसी के मद्देनजर गुलाम भारत में भी सेवानिवृति के बाद पेंशन की व्यवस्था लागू की गई।

भारत सरकार पिछले 5 वर्षों में ईपीएफओ फंड से 2 लाख करोड़ रु से अधिक स्टॉक एक्सचेंज में डाल चुकी है 

मजे की बात यह है कि वित्त 2018-19 के बाद केंद्र सरकार ने कर्मचारियों की भविष्य निधि में जमा राशि में से एक हिस्सा शेयर बाजार में लगाना शुरू कर दिया था। पहले पहल हर वर्ष जमा होने वाली रकम में से मात्र 5% राशि को ही स्टॉक मार्केट में लगाने से इसकी शुरुआत की गई। लेकिन बाद के वर्षों में यह रकम बढ़ते-बढ़ते अब 15% तक हो चुकी है। पिछले पांच वर्षों के दौरान करीब 2 लाख करोड़ से अधिक की धनराशि शेयर बाजार में लगाई जा चुकी है। यह जानकारी श्रम मंत्रालय द्वारा अगस्त 2023 में एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से जारी की गई थी। इसका ब्रेक-अप इस प्रकार से है:-

कुल योग: 2,01,212 करोड़ रुपये। वित्त वर्ष 2022-23 एवं 2023-24 के अंतिम आंकड़े अभी आने बाकी हैं।

10 अगस्त 2023 को राज्य सभा में एक प्रश्न के उत्तर के जवाब में केंद्रीय राज्य श्रम एवं रोजगार मंत्री रामेश्वर तेली द्वारा दिए गये लिखित बयान को पीआईबी ने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से जारी किया था। विज्ञप्ति के अनुसार, स्टॉक मार्केट में निवेशित 2 लाख करोड़ रुपये की रकम ईपीएफओ में जमा कुल धनराशि का मात्र 8.70% है। शेष 91.30% हिस्से को अभी भी भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक खातों में निवेश किया जा रहा है। बता दें कि एपीएफओ द्वारा 31 मार्च 2022 तक कुल 18.30 लाख करोड़ रुपयों को विभिन्न मदों में निवेशित किया जा रहा है।   

विनिमय व्यापार फंड (ETF- Exchange traded fund) के माध्यम से ईपीएफओ फंड का निवेश अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। 

लेकिन ईपीएफओ विभाग के द्वारा किसी भी कंपनी या निजी स्टॉक में प्रत्यक्ष निवेश नहीं किया जाता है। ईपीएफओ की इस धनराशि को ईटीएफ द्वारा बीएसई-सेंसेक्स एवं निफ्टी-50 सूचकांकों में निवेश करता है। प्रेस विज्ञप्ति में इस बात को स्वीकार किया गया है कि ईपीएफओ द्वारा समय-समय पर भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों के विनिमेश की देखभाल करने वाले ईटीएफ में भी निवेश किया गया है। अब यह ईटीएफ क्या बला है और यह कैसे निर्धारित करता है कि जो कुछ उसके द्वारा शेयर बाजार में निवेश किया जा रहा है, वह कम समय में सबसे अच्छा रिटर्न निवेश पर देगा, इस बारे में पारदर्शिता अभी भी बाकी है।

ईटीएफ की सवारी गांठते निजी वित्तीय समूह को ईपीएफओ फंड की आस

विभिन्न स्रोतों को खंगालने पर पता चलता है कि एसबीआई के विभिन्न ईटीएफ में ईपीएफओ फंड का निवेश किया गया था। लेकिन 21 सितंबर 2023 को सीएनबीसी टीवी 18 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि हाल ही में ईपीएफओ द्वारा आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल 50 ईटीएफ और सेंसेक्स ईटीएफ में निवेश किये जाने से निजी एसेट मैनेजमेंट कंपनियों के लिए भी बड़ा निवेश हासिल करने की संभावनाएं बढ़ गई हैं। इससे पहले तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ईटीएफ के माध्यम से ही ईपीएफओ का भारी-भरकम निवेश हो रहा था।

खबर में आगे कहा गया है कि इस निवेश का असर भी दिखना शुरू हो गया है। आईसीआईसीआई प्रूडेन्शियल 50 ईटीएफ के सूचकांक में 10% की छलांग लगाकर जुलाई के अंत तक यह 5,900 करोड़ रुपये पहुुच चुका है। ईपीएफओ ने जिस दूसरे ईटीएफ, सेंसेक्स ईटीएफ में निवेश किया, उसे तो 65% तक उछाल मिला है, उसका asset under management (AUM) 725 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है।

जाहिर सी बात है, निजी कोर्पोर्रेट, शेयर बाजार एवं वित्तीय संस्थानों के लिए ईपीएफओ द्वारा किया जा रहा एकमुश्त निवेश एक छप्पर फाड़ योजना है, जिसका उनके द्वारा खुली बाहों द्वारा स्वागत किया जाना स्वाभाविक है। लेकिन भारत सरकार किस मकसद से अपने करोड़ों कर्मचारियों के जीवन भर की बचत और रिटायरमेंट के बाद सुरक्षित बुढापे की लाठी को बाजार के हवाले छोड़, उसे पुरानी पेंशन स्कीम से मरहूम कर बाजार के शार्क के हवाले छोड़ देने पर आमादा है?

शेयर बाजार, म्यूचुयल फंड्स, एसआईपी की ओर तेजी से धकेले जा चुके समाज को भी अच्छी तरह से पता है कि इस बाजार में हर बार बड़ी मछली छोटी-छोटी मछलियों को निगलकर ही पूरे बाजार को संचालित करती आई है। पिछले कुछ दशकों से भारत में निजी अथवा सार्वजनिक निगमों द्वारा विनिर्माण में कोई उल्लेखनीय प्रगति तो नहीं की है, लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर इन कंपनियों के मूल्यांकन में कई गुना इजाफा हुआ है। इनके स्टॉक कई-कई गुना अधिक मूल्य पर ट्रेड कर रहे हैं, जो बताता है कि देश में ठोस निर्माण एवं विनिर्माण के स्थान पर सिर्फ वित्तीय बाजार में पतंगबाजी कर हवा में महल खड़े किये जा रहे हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका सहित पश्चिमी देशों में 2008 की मंदी के बाद दूसरा झटका 2023 में फिर से देखने को मिला है। विकासशील देश भारत जिस तरह से हाल के दशकों से पश्चिम का अंधानुकरण करना शुरू कर दिया है, वह बेहद आत्मघाती है। अमेरिका आज भी डॉलर की बादशाहत और उन्नत तकनीक एवं निवेश के बल पर खुद को मजबूती से खड़ा रखने में कायम है, लेकिन भारत जैसे देश में उद्योग-धंधों की ओर से मुख मोड़कर स्टॉक मार्केट में न सिर्फ हर महीने दसियों लाख नए डीमेट अकाउंट खुल रहे हैं, वह आने वाले दिनों में भयानक तबाही की इबारत लिख रहे हैं।  

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