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कोरोना काल बिताकर स्कूल पहुंचे बच्चों के अनुकूलन के लिए कुछ नहीं किया गया

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सौरभ श्रीवास्तव
मौसम बदलने लगा है, सर्दियों की आहट मिलने लगी है। यह धान के खेतों में भीनी-भीनी सुगंध का मौसम है तो कंक्रीट के जंगलों में हाफ-इयरली एग्जाम का मौसम है। करीब दो साल तक कोरोना के कारण स्कूल बंद रहने के बाद छोटे बच्चों के लिए यह पहला बड़ा इम्तेहान है। कुछ स्कूलों में एग्जाम हो चुके हैं, कुछ में चल रहे हैं। दो साल तक ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई के दौरान लिखाई कम ही हुई। एग्जाम में तो बिल्कुल भी नहीं। आलम यह था कि पिछले साल कक्षा-4 में पढ़ने वाले बच्चे से पूछा- ‘देश की राजधानी क्या है?’ थोड़ी देर की खामोशी के बाद उसने कहा- ‘चार ऑप्शन तो दीजिए।’ इस उत्तर के जरिए बच्चे की मनोस्थिति को समझने की कोशिश कीजिए। पिछले दो साल में उसके दिमाग ने यह समझ लिया कि एग्जाम में लिखने वाले नहीं, टिक मार्क वाले सवाल आएंगे। जवाब के लिए चार ऑप्शन मिलेंगे, जिनमें से एक सही होगा।

अब दिमाग तो ठहरा पैटर्न का गुलाम। उसने इस पैटर्न को एग्जाम के बाहर भी तलाशना शुरू किया। नतीजतन बच्चे को ज्यादातर सवालों के जवाब में चार ऑप्शन चाहिए। पावर ऑफ एक्सप्रेशन यानी विचारों को लिखने और व्यक्त करने की क्षमता तो मन के किसी कोने में सिकुड़ कर रह गई है। ऐसे में आ गया एग्जाम, जिसका पैटर्न पिछले दो साल से पूरी तरह अलग है। मल्टीपल चॉइस वाले सवालों की संख्या सीमित हो गई। पेपर में ऐसे सवाल शामिल हो गए, जिनके जवाब तीन से चार लाइनों में लिखने होते हैं। ऑनलाइन एग्जाम के चक्कर में स्पेलिंग्स तो याद की नहीं, लिखें कैसे? यह सवाल मुंह खोलकर खड़ा हो गया। बच्चे तनाव में आ गए। कुछ बच्चों ने बताया कि रात को सोने से पहले उनकी नजर के सामने पेपर घूमता है। फेल हो गए तो क्या होगा? इस चिंता में नींद उड़ गई। खिले-खिले नजर आने वाले बच्चे कुम्हलाने लगे। लखनऊ के एक प्रतिष्ठित स्कूल से बच्चों के माता-पिता को संदेश आया- ‘बच्चे की तबीयत नहीं ठीक है तो उस पर एग्जाम देने के लिए दबाव न बनाएं। बच्चे की सेहत महत्वपूर्ण है।’

इस पूरे घटनाक्रम से कुछ बातें तो साफ हैं। पहली यह कि कोरोना काल का अभूतपूर्व समय बिताकर स्कूल पहुंचे बच्चों के अनुकूलन के लिए कुछ नहीं किया गया। न तो स्कूलों ने, न ही उनके माता-पिता ने। यह ऐसा था कि आपने किसी ठंडी जलवायु के पौधे को निकाला और उसे रेगिस्तान में लगा दिया। पौधे को मुरझाना था, सो वह मुरझा गया। दूसरे, शिक्षकों ने अपना काम पहले से तय ढर्रे की तरह किया। उन्होंने पेपर सेट करते समय इस बात का ख्याल नहीं रखा कि पैटर्न हुए बदलाव से बच्चा कैसे सामंजस्य बैठा पाएगा? सोचिए- कोई छोटा बच्चा क्लास में फेल हो जाता है या उसके नंबर कम आते हैं तो यह विफलता किसकी है? बच्चे की? जो कि अभी पढ़ाई के साथ पास-फेल के सिस्टम को ही नहीं समझ पाया है। शिक्षक की या अभिभावकों की? जितनी ईमानदारी से जवाब देंगे, समस्या का समाधान भी उतना बेहतर होगा।

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