के. विक्रम राव
ये बातें जो भी हों उन पर एक खोजपूर्ण दृष्टि तो अब भी डाली जा सकती है। भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों की राजनीतिक स्थिति और संघर्ष के दौरान की घटनाओं का विश्लेषण करें तो पूरा दृश्य कुछ स्पष्ट होता लगेगा। जैसे आजाद भारत के कांग्रेसी नेताओं का सुभाषचंद्र बोस की जीवित वापसी से बड़ा खतरा महसूस करना। यह इस परिवेश में भी समचीन लगता है कि राज्य सत्ता हासिल करने की लिप्सा में तब के राष्ट्रीय कर्णधारों ने राष्ट्रपिता को ही दरकिनार कर जल्दबाजी में देश का विभाजन स्वीकार कर लिया था। फिर वे सत्ता में सुभाष बोस की भागीदारी कैसे बर्दाश्त करते?
उसी बीच सुभाषचंद्र बोस के प्रति महात्मा गांधी का नजरिया भी सुधर गया था। पहले वे सुभाषचंद्र बोस को चाहते ही नहीं थे। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर पुनर्निर्वाचित होने के बाद सुभाष को त्यागपत्र गांधीजी के असहयोग के कारण देना पड़ा और भारत छोड़ना पड़ा। मगर शीघ्र ही गांधीजी काफी बदले। उन्होंने ने देखा किस प्रकार सुभाष बोस ने भारत के बाहर से स्वतंत्रता अभियान तेज कर दिया था। मौलाना आजाद ने अपनी आत्मकथा ”इंडिया विंस फ्रीडम”, (पृष्ठ 40-41) पर लिखा है : ”मैंने पाया कि सुभाष बोस द्वारा (भारत से) जर्मनी पलायन का गांधीजी पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। यूं तो गांधीजी ने सुभाष के कदमों का अनुमोदन नहीं किया, मगर मैंने उनके नजरिए में परिवर्तन पाया। गांधीजी की कई टिप्पणियों और उक्तियों से मुझे लगा कि वे सुभाषचंद्र बोस की बहादुरी के प्रशंसक हो गए हैं।”
अर्थात् गांधीजी, जो जवाहरलाल नेहरू के पक्षधर थे और कुछ इसीलिए सुभाष बोस से तनिक दूर थे, ने शायद पुनर्मूल्यांकन प्रक्रिया शुरू की थी। तभी 6 जुलाई 1944 को अपने आजाद ”हिंद रेडियो” पर प्रसारित एक भाषण में सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी से आशीर्वाद मांगा था ताकि ”आजाद हिंद फौज” का सशस्त्र संघर्ष सफल हो। आज भी इसी फौज के पुराने लोग पचास वर्षों बाद उसी अभियान यात्रा को दोबारा रचते रहते हैं।
नेहरू काल में नेताजी की मृत्यु की जांच कराई गई थी। उस समिति के सदस्य थे एस.एन. मित्रा और जनरल शाहनवाज खान। उनकी रपट संसद में 1956 में पेश की गई जिसके अनुसार सुभाषचंद्र बोस की मौत वायुयान दुर्घटना में हुई थी। गौरतलब बात यह है कि श्री मित्रा ब्रिटिश-इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) में थे। जनरल शाहनवाज खां तब नेहरू मंत्रिमंडल में उच्च पद पर विराजमान हो चुके थे।
इंदिरा सरकार के समय में नेताजी की मौत की जांच कर रहे खोसला आयोग को सरकार ने एक नोट दिया था जिसमें उन 30 फाइलों की सूची थी जिनके लिये कहा गया था कि वे या तो गुम हो गईं हैं या फिर नष्ट कर दी गईं हैं। इन तीस फाइलों की पूरी सांसद सूची प्रो. समर गुहा ने अपनी पुस्तक ”नेताजी: डेड आर एलाइव” के पृष्ठ 212—13 पर दी थी। इन्हीं में नेताजी— रहस्य की ”मास्टर फाइल नं. 12 (226) 56—पीएम” भी थी, जो पं. जवाहरलाल नेहरु के पास रहती थी। यदि ये फाइलें नष्ट कर दी गईं हैं तो ऐसा करने का आदेश किसने दिया था? इस बात का भी अब रिकार्ड उपलब्ध नहीं है।
तो क्या इसी तरह की चलताऊ जांच के आधार पर पूरी बात पर पूर्ण विराम लगा दिया जाए? इतिहास में छानबीन और जांच पड़ताल, विश्लेषण और पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। तो क्यों फिर भारत सरकार इन रूसी अभिलेखागारों के दस्तावेज के आधार पर नए सिरे से खोज कराने में आनाकानी करती रही? सिर्फ इसलिए कि कहीं यह साबित न हो जाए कि सुभाष बोस ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से संपर्क साधा था, भारत आना चाहते थे, मगर बीच में कम्युनिस्ट चीन के शासकों (भाई—भाई के युग में) ने पकड़कर उन्हें सोवियत संघ को सौंप दिया। नेहरू काल में भारत की मित्रता सोवियत संघ और लाल चीन से काफी प्रगाढ़ रही, तो क्या मोदी युग में भी खोज पर पाबंदी लगी रहे?
ताशकंद में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु के कारणों का आज तक पता नहीं चल पाया। तब प्रधानमंत्री पद की लिप्सा किस नेता में सर्वाधिक रही होगी? अर्थात कब तक भारत ऐसी साजिश भरी निष्क्रियता को सत्तासीन व्यक्तियों के निजी हित की वजह से गवारा करता रहेगा? सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती वर्ष में यह गुत्थी सुलझनी चाहिए। मोदी सरकार का दायित्व है कि वह भारतीयों को जवाब दे।
K Vikram Rao
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