डॉ. विकास मानव
भारतीय चिन्तन में सत्य की महत्ता को पुनः पुनः दौहराया गया है। वेद भी आचरण में सत्य को सर्वोपरि रखते हैं। सत्य के बिना आध्यात्मिक लक्ष्य तो क्या, लौकिक लक्ष्य भी प्राप्त करने कठिन हैं, परन्तु सत्य का निर्धारण सर्वदा सरल नहीं होता।
इसलिए दर्शन शास्त्रों में, विशेषकर न्यायदर्शन में, प्रमाणों को परिभाषित किया गया है और उनके प्रयोग द्वारा ही अपने मत का स्थापन किया गया है। परन्तु, विभिन्न दर्शनों में और उनकी टीकाओं में, और इस कारण से उनके मतावलम्बियों में, प्रमाणों की संख्या में कुछ भेद पाया जाता है।
कोई तीन प्रमाण मानते हैं, तो कोई चार। आठ तक यह संख्या पाई जाती है। इस भेद के क्या कारण हैं ? क्या दर्शनकारों में कोई मतभेद था ? यदि था, तो क्यों ? यदि नहीं, तो उनके वचनों में भेद क्यों दिखता है ? क्या कुछ प्रमाण सही हैं और कुछ गलत ? या फिर क्या कम प्रमाण लेना भूल है? मैं इन सब प्रश्नों पर चर्चा इस लेख में प्रस्तुत कर रहा हूं।
आठों प्रमाण का पुनरावलोकन कर लेते हैं.
*(१) प्रत्यक्ष :*
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥
(न्यायशास्त्र : १।१।४)
अर्थात् वह ज्ञान जो इन्द्रियों से उत्पन्न हो, जहां कोई बाधा या संशय न हो, केवल निश्चय हो, वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
*(२) अनुमान :*
अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टञ्च॥
(न्याय० १।१।५)
अर्थात् पहले प्रत्यक्ष कर लेने के बाद, (किसी अदृष्ट वस्तु के विषय में निष्कर्ष निकालने को) अनुमान कहते हैं। वस्तुत:, यह कार्य-कारण सम्बन्ध है, जहां अनैकान्तिकता न हो, जिसे logic या reasoning कहा जाता है। सो, यह लौकिक भाषा वाला अनुमान नहीं है, जहां हम अनिश्चित तथ्य को अनुमान कहते हैं।
अनुमान ३ प्रकार का होता है :
पूर्ववत् : कारण को जानकर, कार्य को जान लेना।
शेषवत् : कार्य से कारण को जानना।
सामान्यतोदृष्ट : यह दो वस्तुओं के बीच में वह सम्बन्ध है, जो कार्य-कारण का तो नहीं है, परन्तु सामान्य रूप से पाया जाता है।
इसे हम, common sense के समान, common logic भी कह सकते हैं।
*(३) उपमान :*
प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्॥
(न्याय० १।१।६)
प्रत्यक्ष करी हुई वस्तु के किसी प्रसिद्ध धर्म की उपमा देकर, किसी दूसरी वस्तु को जानना। पुनः, प्रमाण की श्रेणी में आने के लिए, उपमा से निश्चय उत्पन्न होना चाहिए, जैसे – जिस प्रकार सूर्य है, उसी प्रकार रात को आकाश में दिखने वाले अन्य तारे भी सूर्य हैं।
(४) शब्द :
आप्तोपदेशः शब्दः॥
(न्याय० १।१।)
जो आप्त, अर्थात् जानने वाले और विश्वसनीय व्यक्ति के उपदेश से जानना होता है।
शब्द दो प्रकार के हो सकते हैं :
दृष्ट : प्रत्यक्ष किया हुआ।
अदृष्ट : जो प्रत्यक्ष करना असम्भव है।
जैसे – कर्म-फल व्यवस्था।
(५) ऐतिह्य :
किसी ऐतिहासिक घटना का विवरण सुनकर जानना, जिसका बताने वाला पुनः जानकार व विश्वसनीय हो।
(६) अर्थापत्ति :
कार्य-कारण सम्बन्ध जानकर, एक से दूसरे को जानना ।
(७) सम्भव :
सृष्टिक्रमानुसार किसी तथ्य को सत्य समझना, अन्यथा मिथ्या ।
(८) अभाव :
किसी वस्तु के प्रत्यक्ष या अनुमानित न होने से उसका अभाव जानना।
ये आठ प्रमाण हैं। इनमें से जो शब्द में ऐतिह्य, और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव की गणना करें, तो चार प्रमाण रह जाते हैं।
न्यायदर्शन का ही मत है ‘):
शब्दऐतिह्यार्थन्तर्भावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषे॥
(न्याय० २।२।२)
यह किस प्रकार है, यह इनकी परिभाषाओं से स्पष्ट ही है। तथापि ऊपर हम देख सकते हैं कि चारों का प्रमाण रूप में ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं है – चारों ही निश्चयात्मक हैं। कोई भी प्रविभाग अपने विभाग के समझने में स्पष्टता लाता है।
इसलिए, इन प्रविभागों के प्रयोग से यदि स्पष्टता आती है, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु, अनुमान के जो पूर्व प्रविभाग दिए हुए हैं, उनसे अर्थापत्ति आदि का मेल नहीं है। इसलिए जहां पूर्ववत् आदि प्रविभागों का ग्रहण किया जाए, वहां अर्थापत्ति आदि का नहीं किया जाना चाहिए, और उसका उल्टा भी।
ऐसा बताया जाता है कि ये अन्तिम चार प्रमाण मीमांसक, वेदान्ती और पौराणिकों के द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं। दर्शनों में तो पूर्व ४ का ही ग्रहण प्राप्त होता है।
तथापि, दर्शनों में भी अन्तर पाए जाते हैं। न्यायदर्शन में चारों प्रमाण परिभाषित हैं, जैसा हमने ऊपर देखा।
इसके विपरीत योगदर्शन में ३ ही प्रमाण गिनाए गए हैं :
प्रत्यक्षानुमानागमः प्रमाणानि॥
(१।७॥)
अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण हैं। इसके आगे योगदर्शन ने इनकी कोई परिभाषा नहीं दी है। सांख्य ने भी इन्हीं तीन प्रमाणों को मान्यता दी है और उनको परिभाषित भी किया है, यथा :
प्रमा तत्साधकतमं यत् तत् त्रिविधं प्रमाणम्॥
(१।५२॥ )
विशेष ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिए सबसे साधक जो हैं, वे तीन प्रकार के प्रमाण हैं।
तत्सिद्धौ सर्वसिद्धेर्नाधिक्यसिद्धिः॥
(१।५३॥)
उन तीन प्रकार के प्रमाणों की सिद्धि से सब वस्तुओं की सिद्धि हो जाती है, इसलिए तीन से अधिक मानने का कोई कारण नहीं है।
यत् सम्बद्धं सत् तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत् प्रत्यक्षम॥
(१।५४॥)
जो वस्तु से सम्बद्ध होकर उसके आकार का होने वाला विशेष ज्ञान है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। हम देख सकते हैं कि न्यायदर्शन की परिभाषा अधिक स्पष्ट थी।
प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम्॥
(१।६५॥ )
प्रतिबन्ध को देखकर, प्रतिबद्ध का ज्ञान अनुमान कहलाता है। पुनः, यह परिभाषा न्याय से कम स्पष्ट लगती है।
आप्तोदेशः शब्द:॥
(१।६६॥)
यह तो न्याय के तुल्य ही वाक्य है।
सामान्यतोदृष्टादुभयसिद्धिः॥
(१।६८॥)
सामान्यतोदृष्ट अनुमान से दोनों प्रकृति व पुरुष की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् अनुमान का प्रविभाग ’सामान्यतोदृष्ट’ कपिल मुनि को मान्य है।
इससे प्रतीत होता है :
( १) उनको गौतम के बताए अन्य प्रविभाग भी मान्य होंगे।
(२) उनको जो-जो प्रमाण मान्य हैं, उन सबको उन्होंने पूर्णतया नहीं परिभाषित किया है।
अन्य दर्शनों – वैशेषिक, पूर्व- व उत्तर-मीमांसा में प्रमाणों के उल्लेख तो मिलते हैं, परन्तु कोई बहुत स्पष्ट गिनती अथवा परिभाषा नहीं प्राप्त होती है।
आत्मन्यात्ममनसोः संयोगविशेषादात्मप्रत्यक्षम्॥
(९।१।११॥)
अर्थात् आत्मा में आत्मा और मन के संयोगविशेष से आत्मा विषय का प्रत्यक्ष करता है। सो, यहां एक स्तर गहरा विवरण है, जहां आत्मा और मन के सम्बन्ध को दर्शाया गया है, और शरीर से आत्मा तक ज्ञान पहुंचने की बात है।
यह आत्मप्रत्यक्ष तो सभी ज्ञानों अथवा प्रमाणों में सामान्य है, केवल प्रत्यक्ष में ही नहीं, और यहां प्रत्यक्ष-प्रमाण विषय की चर्चा नहीं हो रही है।
यज्ञदत्त इति सन्निकर्षे प्रत्यक्षाभावाद्दृष्टं लिङ्गं न विद्यते॥
(३।२।६॥)
यज्ञदत्त नाम के व्यक्ति का इन्द्रियों के सन्निकर्ष होने पर (=प्रत्यक्ष होने पर), आत्मा के प्रत्यक्ष का अभाव होने से, यह मानना पड़ता है कि आत्मा का कोई दृष्ट (=प्रत्यक्ष हो सकने वाला) चिह्न नहीं है । जबकि यहां आत्मा के प्रत्यक्षत्व की चर्चा है, परन्तु ’सन्निकर्ष’ व ’प्रत्यक्ष’ शब्द के प्रयोग से हम समझ सकते हैं कि महर्षि कणाद को प्रत्यक्ष प्रमाण उसी प्रकार मान्य है, जैसा कि गौतम मुनि ने न्याय में निरूपित किया था।
सामान्यतोदृष्टाच्चाविशेषः॥
(३।२।७॥ )
ऊपर के आत्मा की परीक्षा के प्रकरण में ही, कणाद कहते हैं, “और सामान्यतोदृष्ट (अनुमान) से भी आत्मा अविशेष है।
अर्थात् अनुमान प्रमाण और उसके विभिन्न प्रविभाग जो गौतम ने दिए थे, वे कणाद को भी मान्य प्रतीत होते हैं।
तस्मादागमिकः॥
(३।२।८॥)
पुनः उपर्युक्त चर्चा को आगे बढ़ाते हुए, कणाद कहते हैं, “इसलिए आत्मा की सिद्धि आगम या शब्द प्रमाण से है। इस प्रकार कणाद शब्द प्रमाण के भी पक्षधर जान पड़े।
इस प्रकार, वैशेषिक में पुनः हम तीन प्रमाणों का स्पष्टतः उल्लेख पाते हैं।
पूर्वमीमांसा में महर्षि जैमिनि लिखते हैं :
सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् ॥
(१।१।४॥)
विद्यमान वस्तु के साथ इन्द्रियों के जुड़ने से आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष होता है। यह न्याय की परिभाषा के समान ही है।
अपि वा कर्तृसामान्यात् प्रमाणमनुमानं स्यात्॥
(१।३।२॥ )
और भी, वेद को मानने वाले और स्मार्त कर्म करने वाले कर्ता के समान होने से, वे अवेदोक्त कर्म भी प्रमाण हैं, यह अनुमान किया जा सकता है। इस प्रकार जैमिनि अनुमान प्रमाण को भी मानते हुए दिखाई पड़ते हैं।
“औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः … तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात्॥
(१।१।५॥)
बादरायण मुनि के मत में वेद के शब्दों का अपने अर्थों से सम्बन्ध स्वाभाविक है, और वे स्वतःप्रमाण हैं। अतः जैमिनि ऋषि ने वेद के आगम प्रमाण होने को स्वीकार किया।
सो, पूर्वमीमांसा में भी तीन प्रमाणों का स्पष्ट उल्लेख है।
मींमासा ब ब्रह्म-सूत्र :
स्मर्यमाणमनुमानं स्यात्॥
(१।२।२५॥ )
स्मरण किया जा रहा अनुमान हो (=है, इस हेतु से प्रतिज्ञा सिद्ध है)। यहां महर्षि व्यास अनुमान प्रमाण को मन्तव्य बता रहे हैं।
श्रुतत्वाच्च॥
(१।१।११॥)
और श्रुति का शब्द-प्रमाण होने के कारण भी (प्रतिज्ञा सिद्ध है)। यहां शब्द-प्रमाण को अंगीकार किया गया है।
इस प्रकार ब्रह्म-सूत्र में दो प्रमाण स्पष्ट-रूप से पाए गए हैं।
तो क्या इससे यह सिद्ध हुआ कि दर्शनकार केवल निर्दष्ट प्रमाणों को ही स्वीकारता है, अन्यों को नहीं? यह मानना तो मूर्खता होगी, जबकि मैंने ऊपर केवल वही सूत्र उद्धृत किए हैं जो कि किसी विशेष प्रमाण को नाम से कहते हैं, परन्तु पूरे शास्त्र को यदि हम शोध-भाव से परखें, तो हमें सभी प्रमाण हेतु-रूप में प्राप्त हो जायेंगे, जैसे –
ब्रह्मसूत्र कहता है – न तु दृष्टान्तभावात्॥
(२।१।९॥ )
दृष्टान्त के अभाव से (प्रतिज्ञा असिद्ध है)। दृष्टान्त प्रत्यक्ष का ही पर्याय है। और यहां अभाव प्रमाण का भी ग्रहण हो गया।
इसी ग्रन्थ में, आगे सूत्र मिलता है :
नैकस्मिनसम्भवात्॥
(२।२।३३॥)
(प्रतिज्ञा) सही नहीं है, क्योंकि वह एक में सम्भव नहीं है। यहां सम्भव अनुमान भी प्राप्त हो गया। उपमान प्रमाण की तो किसी भी शास्त्र में कमी ही नहीं है।
जैसे – ब्रह्मसूत्र में ही हम पाते हैं :
कल्पनोपदेशाच्च मध्वादिवदविरोधः॥
(१।४।१०॥)
कल्पना के द्वारा उपदिष्ट होने से, जिस प्रकार मधु, आदि, प्रामाणिक माने गए, इस (प्रतिज्ञा में भी) विरोध नहीं है।
सांख्य कहता है :
आद्यहेतुता तद्द्वारा पारम्पर्येऽप्यणुवत्॥
(१।३९॥)
प्रकृति आद्य हेतु सिद्ध होती है, जिस प्रकार अणु सिद्ध है। परन्तु, ऊपर हमने देखा था कि सांख्य ने उपमान प्रमाण स्वीकार ही नहीं किया था। तब वह उसका प्रयोग कैसे कर रहा है ? इसी प्रकार प्रायः सभी दर्शन उपमान प्रमाण का प्रयोग करते हुए दीखते हैं, चाहे उन्होंने उसको प्रमाणों में न पढ़ा हो।
ऐसा क्यों ? इसको समझने के लिए सन्दर्भ देखना आवश्यक है।
योगदर्शन में, यदि हम प्रत्यक्षानुमानागमः प्रमाणानि (१।७) का सन्दर्भ देखें, तो वह चित्तवृत्तियों के वर्णन में आया है :
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः॥ प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः॥
(१।५,६॥ )
चित्त की वृत्तियां ५ प्रकार की होती हैं : प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति। अर्थात् यहां सत्य के निर्धारण पर बल नहीं है। तो फिर किसका विषय है ? वस्तुतः, यहां चित्त के विभिन्न सोचने के प्रकारों की चर्चा हो रही है, जिसके अन्तर्गत प्रमाणों को तीन में बांटा गया :
( १) प्रत्यक्ष : जो इन्द्रियों से सीधे-सीधे ग्रहण करते समय वृत्ति हो।
( २) अनुमान : जो चित्त में, प्रत्यक्ष किए हुए के आधार पर, अन्य विषय को समझने की वृत्ति हो।
( ३) आगम : जो शब्दों का श्रवण करके, चित्त के विशेष भाग में उनका अर्थ करने की वृत्ति हो।
इस प्रकार से समझने से, हमें यह भी समझ में आयेगा कि इस अन्तिम वृत्ति में वह वृत्ति भी सम्मिलित है जिसके द्वारा हम भाषण करते हैं, क्योंकि वह भी चित्त की एक विशेष प्रक्रिया होती है, जिसका वर्णन उच्चारण-शिक्षा के ग्रन्थों में निरूपित किया गया है। उसे यहां सम्मिलित न करें, तो वह सोचने का प्रकार छूट जायेगा.
अर्थात्, न्याय के समान, यहां सत्य-निर्धारण विषय नहीं है, अपितु चित्त की प्रक्रियाओं को विभाजित किया जा रहा है।
दूसरी ओर, अन्य प्रमाणों को यहां क्यों छोड़ दिया गया ? तो उपमान प्रमाण को देखिए। उसमें किसी एक वस्तु को दिखाकर, या बताकर, अन्य का ग्रहण करवाया जाता है। सो, वह प्रत्यक्ष या शब्द और अनुमान का मिश्रण है।
अर्थात् शब्द में ऐतिह्य, और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव का समावेश हो जायेगा। इस प्रकार सभी प्रमाणों में चित्त की वृत्तियां भिन्न नहीं होंगी, अपितु बताए गए तीन प्रमाणों के समान ही होंगी। इसलिए पतञ्जलि को उनका पृथक् निर्धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
सांख्य में प्रकरण प्रमा का है, जिससे वस्तु के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। तो उसमें उपमान प्रमाण का भी योगदान है, इसीलिए कपिल ने स्वयं कई विषयों को समझाने लिए उसका प्रयोग किया है। अतः प्रतीत होता है कि उन्होंने उपमान को अनुमान के अन्तर्गत ही मान लिया है।
इस सब से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि, वस्तुतः, सत्य के निर्धारण के लिए न्यायदर्शन में दिए गए चार प्रमाण ही सबसे व्यापक व उपयुक्त हैं। शेष चार प्रमाण उनमें ही निहित हैं। तथापि किसी को उनके द्वारा समझने में विशेष सुविधा हो, तो वह उनका भी प्रयोग कर सकता है।
कुछ दर्शनों ने केवल तीन प्रमाणों को गिना है, और उपमान प्रमाण को प्रायः नहीं पढ़ा है। इसका एक कारण है कि उपमान प्रमाण भी अनुमान का एक अंश माना जा सकता है लिए.
इसका दूसरा कारण है कि दर्शनकारों ने अपना-अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए, केवल उतने ही प्रमाण परिभाषित किए हैं जिनकी उनको आवश्यकता थी।
परन्तु, उनके विवेचन में हम पाते हैं कि, सत्य के निर्धारण के लिए, उन्होंने वे सभी प्रमाण प्रयोग किए हैं, जिनका उल्लेख गौतम मुनि ने किया है। रही अनुयायियों की बात कि वे कम या अधिक प्रमाणों पर क्यों बल देते हैं, तो अनुनायी अपने प्रणेता की बात सर्वदा नहीं समझ पाते।
यदि वे भी उतने ही तेजस्वी होते जितने कि उनके गुरु थे, तो उनके ग्रन्थ भी अवश्य ही लोक में प्रसिद्ध होते. इसलिए मुख्य उपदेशक के उपदेश को अवश्य सीधा पढ़कर समझना चाहिए। स्वामी विरजानन्द जी ने इसीलिए कहा था : आर्ष ग्रन्थों का ही अध्ययन करो, अन्य सब त्याज्य हैं।