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जेएनयू के पीछे का जनेऊ : ब्राह्मणवाद का पोषण

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सुधा सिंह 

     कोई भी समाज यदि बदलाव को स्वीकार नहीं करता तो उसके अंदर आपसी कलह शुरू हो जाती है. यह कलह वहाँ अधिक दिखती है, जहां वह समाज बहुसंख्यक होता है. पिछले दिनों जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ, उसे सिर्फ़ वाम और दक्षिण की लड़ाई तक नहीं सीमित किया जा सकता.

         यह सिर्फ़ समस्या का सरलीकरण है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कह दे कि यह सब लेफ्ट लिबरल गैंग के छात्रों की कारस्तानी है. और लड़ाई लिबरल और कंजर्वेटिव की आपसी प्रतिद्वंदिता में ढक जाए. सच यह है, कि समाज में आ रहे बदलाव को स्वीकार करिए.

         सबको पता है, कि चाहे जितने नारे लगें या दीवारें रंग दी जाएं कोई भी ब्राह्मण इस तरह की नारेबाज़ी से देश नहीं छोड़ेगा. वजह यह है कि भारत (INDIA) छोड़ कर वह जाएगा कहां! उसका और ठौर कहां हैजाति की सच्चाई को नकारना संभव नहीं।

लेकिन भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी को सोचना पड़ेगा, कि तर्क कितने भी हिंदू धर्म के पक्ष में कर लो सच यह है कि सामाजिक रूप से हिंदू धर्म के भीतर जाति-पात या श्रेष्ठतावाद की जड़ें मौजूद हैं.

       नतीजा यह है, कि यहां हर जाति किसी न किसी से श्रेष्ठ महसूस करती है. चूंकि सामाजिक पायदान में ब्राह्मण सबसे ऊपर माना जाता है इसलिए विस्फोट भी उसी के विरुद्ध होगा. मैं यहां कोई ब्राह्मणों भारत छोड़ो जैसे नारों को सही नहीं ठहरा रहा, लेकिन हिंदू धर्म की जातीय श्रेष्ठता के विरुद्ध ब्राह्मणों को ही खड़ा होना पड़ेगा.

       हम जाति-पात नहीं मानते जैसे जुमले खूब उछाले जाते रहे हैं, लेकिन देखने को मिलता है कि जाति ही सर्वोपरि रहती है. अगर ऐसा नहीं होता तो हर बौद्धिक संस्थान, क्लब या बौद्धिक कौंसिलों में ब्राह्मणों की संख्या अधिक क्यों रहती है. यह सिर्फ़ संयोग नहीं बल्कि हमारे मानस में बसा ब्राह्मणवाद ही है.

*रोके जाएं मनोज मुंतशिर जैसे लोग*

      ब्राह्मणवाद से मेरा आशय जाति का झूठा अभिमान है, कोई जाति विशेष पर निशाना नहीं. अब देखिए, JNU में इस तरह के नारे लिखे जाने के बाद से मनोज मुंतशिर शुक्ल नाम के एक सज्जन अपना वीडियो लेकर आ गए, जिसमें वे ब्राह्मण श्रेष्ठता का गौरव गान करने लगे.

        उज्जैन में हिंदू वाहिनी और करणी सेना ने नारा दिया, कि ब्राह्मणों को भगाने वालों को क्षत्रियों की तलवार की धार से गुजरना होगा. आज 21 वीं सदी में इस तरह का जाति दम्भ वृहत हिंदू समाज की एकता में बाधक है. होना तो यह चाहिए कि खुद हिंदू समाज के अगुआ सोचें कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है.

         कोई भी धर्म किसी समाज के कुछ लोगों की जागीरदारी नहीं होता. धर्म समाज को जोड़ता है, लेकिन ये जागीरदार समाज को तोड़ते हैं. हिंदू धर्म में कहीं नहीं लिखा कि जाति से कोई श्रेष्ठ है. मगर व्यवहार में देखें तो जाति ही श्रेष्ठ बना दी गई है.

*सच से आंख मूंदना है लिबरल बनाम कंजर्वेटिव का बहाना*

       इस लड़ाई को लिबरल बनाम कंजर्वेटिव बताना इस अहम प्रश्न से आंख चुराना है. अब चूंकि समाज में जाति के बहाने श्रेष्ठता लाई गई, इसलिए ब्राह्मण निशाने पर आ गया. यह निशाना पूरे समाज को तोड़ देगा. इसके सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा. धर्म एक समाज की संकल्पना प्रस्तुत करता है, और समाज राजनीति का विकल्प. इसीलिए मार्क्सवादी लाख धर्म को अफ़ीम बताएं, कभी भी वामपंथी सत्ताएं धर्म को समाज से समाप्त नहीं करतीं.

        वे महज़ कर्मकांड से दूर हो जाती हैं. रूस में बोल्शेविक क्रांति 1917 में हुई थी. और 1991 तक रूस समेत मध्य एशिया के कई देशों को मिला कर बने सोवियत संघ में कम्युनिस्ट सत्ता में रहे. मगर जब कम्युनिस्ट शासन का पतन हुआ तो पूरा सोवियत संघ बिखर गया.

      कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज़बेकिस्तान जैसे मुस्लिम संख्या वाले देश अलग हो गए और रूस का आर्थोडिक्स चर्च पुनः समाज में हावी हो गया.

*धर्म के मुरीद मार्क्सवादी भी*

        चीन में 1949 में माओत्सेतुंग के नेतृत्त्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन हुआ. लेकिन चीन से न कनफ़्यूसियस के अनुयायी समाप्त हुए न बौद्ध धर्म ख़त्म हुआ और न ही ईसाई. आज भी नॉर्थ अमेरिकी देशों में चाइना के चर्च अलग बने हुए हैं.

      माओ से जब पूछा गया, कि हमारे चीनी समाज में जो नैतिक मूल्य हैं और उनकी प्रतीति लोक पर हावी है, इसको समाप्त कैसे किया जाए तो माओ ने कहा, यह निम्न मध्य वर्गीय (PETITE BOURGEOISIE) संरचना है, इसको समाप्त होने में वर्षों लगेंगे.

      आज तक चीन में कम्युनिस्ट सरकारें बनी हुई हैं. पर धर्म भी अपनी जगह दृढ़ है. यही नहीं अपने ही देश में बंगाल में 34 वर्ष तक वाम दलों का शासन रहा. केरल में भी वाम दल की सरकारें बनती-बिगड़ती हैं. वहाँ तो वाम दल लगातार दोबारा सत्ता में हैं. लेकिन धर्म भी दोनों राज्यों में पूरी तरह से जड़ें जमाए हुए है. 

*कर्मकांड और गायत्री मिशन*

       ज़ाहिर है, धर्म बना ही रहेगा क्योंकि समाज को जोड़े रखने में वही सहायक है. बस धर्म के कर्मकांड बदलते रहते हैं. क्योंकि राजनीति बदलती है. समाज में उत्पादन के साधन बदलते हैं. इसलिए धर्म भी अपना स्वरूप बदलता है.

      आज के धर्म में कर्मकांड बदल रहे हैं. इसकी वजह है, कि आज लोगों के पास पहले की तरह ख़ाली समय नहीं है, इसलिए कर्मकांड आज बेमानी है. पुरोहित नाम की संस्था में आज कोई ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं है. आचार्य श्रीराम शर्मा ने गायत्री शांति मिशन के माध्यम से पुरोहिताई में सभी जातियों को शामिल किया.

       यह एक संगठित संस्था है और हिंदू धर्म के अनुरूप पूजा-पाठ करने में गायत्री शांति मिशन से पुजारी आ जाते हैं. उनमें ब्राह्मण भी हो सकते हैं और दलित जातियों से भी. शहरी लोगों के पास इतना समय भी नहीं होता कि वह पुजारी की जाति तलाशता फिरे.

*जातिविहीन पुजारी*

        जब पुरोहित की जाति नहीं तब ब्राह्मण जाति में जन्मा जातक कैसे श्रेष्ठ हुआ. क्योंकि सभी धर्मों में पुरोहितों को धार्मिक लिहाज़ से सर्वोच्च माना जाता है. धार्मिक आदेश वह जारी करता है.

       पहले के जमाने में वर्ण लिहाज़ से ब्राह्मण ऊपर था, इसलिए उसके आदेश को धर्म का आदेश समझा जाता था. पर अब जब पुजारी कोई जाति नहीं बल्कि एक संस्था बनती जा रही है, तब ब्राह्मण जाति के विरुद्ध कोई भी प्रलाप अनर्गल है.

      ब्राह्मण भारत छोड़ो या ब्राह्मण JNU छोड़ो जैसे नारे के पीछे कुत्सित मंशा भी नजर आती है. अगर यह लगता हो कि ब्राह्मण जाति के लोग बड़ी चतुराई से किसी संस्था में भर गए हैं, तो उसकी जांच करो या नैतिक तौर पर कहो कि अमुक भर्ती कैसे हुई? इसके लिए पूरी एक जाति को टारगेट करने का अर्थ है, कि संविधान के विरुद्ध जा कर सामाजिक द्वन्द को बढ़ाना. किसी भी सभ्य समाज में यह उचित नहीं माना जाएगा. इसकी निंदा होगी ही.

*JNU नहीं, कुत्सित सोच बंद हो*

       ऐसे नारों से समाज में विष वमन करने का अर्थ है, समाज को बांटने की साज़िश. चूंकि इस साजिश से सिर्फ एक धार्मिक समुदाय को नुकसान पहुंच रहा है.

       अतः यह आशंका भी सही लगती है, कि इस साज़िश में बहुत से वे लोग होंगे जो येन-केन-प्रकारेण हिंदू समाज के भीतर कलह बढ़ाना चाहते हैं. अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए वामपंथी यह कुटिल चाल चलें या दक्षिणपंथी ताकतें. पर इतना तय है कि ऐसी चालों से किसी को फ़ायदा नहीं पहुंचने वाला.

      दुनिया के हर देश और हर राजनीति में नियंता बहुसंख्यक समाज ही होता है. उलटे होना यह चाहिए कि बहुसंख्यक समाज न्यायसंगत ढंग से संसाधनों पर सबको हक दे.

      उनको भी जो धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं. पर यह तब ही होगा जब JNU जैसी संस्थाओं में हर तरह की सोच को पनपने दिया जाए.

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