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एक तरफ संविधान दिवस मनाना और दूसरी तरफ संविधान बदलने की बातें करना आरएसएस की रणनीति

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हेडगेवार से लेकर भागवत तक आरएसएस जाति व वर्ण-व्यवस्था का पोषक रहा है

भंवर मेघंवशी

महाराष्ट्र के नागपुर में गत 15-17 मार्च, 2024 को आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक शताब्दी पूर्ण होने पर दो तरह के लक्ष्य निर्धारित किये गए। पहला, शाखाओं की संख्या बढ़ाना और गतिविधियों में गुणात्मक सुधार लाना। दूसरा, सामाजिक दृष्टि से ‘पञ्च परिवर्तन’। इस ‘पञ्च परिवर्तन’ का पहला लक्ष्य होगा– समाज में समरसता का आग्रह।

आइए, इस संबंध में कुछ और बयानों को देखते हैं–

“राम मंदिर निर्माण कार्य आरंभ होने के बाद से जातिवादी ताकतों के सक्रिय होने पर संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत द्वारा सामाजिक समरसता पर जोर दिए जाने को अहम माना जा रहा है। समाज में बिखराव लाने के कुचक्रों को रोकने के लिए उन्होंने कहा कि कोई भी ऐसी जाति नहीं है जिसमें श्रेष्ठ महान व देशभक्त लोगों ने जन्म नहीं लिया हो। महापुरुष केवल अपने कार्यों से ही महान बनते हैं। उनको इसी भाव से देखा जाना चाहिए। चहुंमुखी विकास के लिए ये भाव बनाए रखना बहुत आवश्यक है।”[1]

“संघ अपनी स्थापना से ही समाज में समरसता की दिशा में काम कर रहा है। संघ ने शुरू से ही कहा है कि सारे हिंदू एक हैं। पहले दिन से ही संघ में जो शाखा लगी या शिविर हुए, वहां जाति के आधार पर न कोई भेदभाव है और न ही जाति के बारे में कोई पूछता है। यह व्यवस्था संघ में लगातार चल रही है।”[2]

आरएसएस का संविधान कहता है– “हिंदुओं में से संप्रदाय, मत, जाति तथा पंथ की विभिन्नताओं तथा राजनीति, अर्थनीति, भाषा तथा प्रांत संबंधी भेदों से उत्पन्न विघटनकारी प्रवृतियों को दूर करने के लिए एक संगठन का निर्माण आवश्यक समझा गया।”[3]

हालांकि आरएसएस की प्रार्थना, प्रतिज्ञा और अन्यान्य कार्यकलापों में इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में गंभीरता नज़र नहीं आती है।

आरएसएस का उद्भव उन दिनों हुआ जब महाराष्ट्र सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों की कर्मभूमि बन रहा था। फुले दंपत्ति (जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले), छत्रपति शाहू जी महाराज के कृतित्व और विचार समाज में अपनी जगह बना रहे थे और डॉ. आंबेडकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो चुके थे। वैदिक ब्राह्मणवादियों के वर्ण व जाति-व्यवस्था को मजबूत चुनौती का सामना करना पड़ रहा था। आज़ादी का आंदोलन भी उभार पर था और उसमें भी छुआछूत, भेदभाव और जातिगत शोषण के विरुद्ध स्वर तेज हो रहे थे। ऐसा लगने लगा था कि अगर भारत आजाद हुआ तो उसमें मनुस्मृति आधारित राज व सामाजिक व्यवस्था के लिए जगह नहीं होगी। ऐसे समय में मुस्लिम द्वेष की आड़ लेकर नागपुर के मोहिते के बाड़े नामक स्थान पर केशव बलिराम हेडगेवार ने एक उच्च जाति वर्ण के हिंदुओं का संगठन स्थापित किया, जिसके सभी संस्थापक सदस्य ब्राह्मण समुदाय से थे। प्रारंभ में इसका नाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी नहीं था, न कोई प्रार्थना थी और न ही कोई प्रतिज्ञा। न विधान, न मिशन और न कोई दृष्टिकोण। सिर्फ कुश्ती दल की तरह इसे स्थापित किया गया।

हालांकि यह पूरी तरह से सोच-विचार करके बनाया हुआ समूह था, जिसने बाद में राष्ट्रवाद के चोले में ब्राह्मणवाद को स्थापित करने का अपना सुविचारित काम शुरू कर दिया।

आरएसएस का 99 वर्षों का इतिहास बताता है कि संघ ने कभी भी ‘जाति के विनाश’ के मुद्दे पर आंदोलन करना तो बहुत दूर की बात है, सीधे तौर पर जाति-व्यवस्था के विरुद्ध कभी कोई टिप्पणी नहीं की। उसके लिए जाति कभी मुद्दा रहा ही नहीं। जब जाति-प्रथा और अस्पृश्यता के विरुद्ध देश में डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी तथा समाजवादी विचारधारा के लोग खुलकर बोल रहे थे, तब भी संघ ने जाति और वर्ण की व्यवस्था के प्रति अपना रवैया नरम रखा और कुछ भी कहना जरूरी नहीं समझा।

वे तो अलग ही राग अलाप रहे थे–

“हमारा कार्य संपूर्ण हिंदू समाज के लिए होने के कारण उसके किसी भी अंग की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। समस्त हिंदू बांधव से, फिर वे किसी भी श्रेणी के क्यों न हों, हमारा व्यवहार समान रूप से प्रेम का होना चाहिए। किसी भी हिंदू बंधु को निम्न समझकर दुत्कारना महापाप है। कम-से-कम संघ के स्वयंसेवकों के मन में तो इस प्रकार की संकुचित कल्पना होनी ही नहीं चाहिए। भारत से प्रेम करने वाले प्रत्येक हिंदू से हमारा व्यवहार भाई जैसा होना चाहिए। हमारा व्यवहार यदि आदर्श हो तो हमारे सारे हिंदू बंधु हमारी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहेंगे।”[4]

सबसे पहले हम संघ के संस्थापक हेडगेवार के समय के आरएसएस के क्रियाकलापों को लें। शुरुआती दौर के सभी स्वयंसेवक एक ही जाति से आते थे, लेकिन शीघ्र ही उन्होंने गैर-ब्राह्मण इलाकों पर अपना ध्यान केंद्रित किया और वहां अपनी शाखाएं खोल ली। राकेश सिन्हा अपनी किताब ‘आधुनिक भारत के निर्माता : डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार’ में कहते हैं कि– “वर्धा में सन् 1940 में संघ की 84 शाखाएं थीं, जिनमें से 70 शाखाएं गैर-ब्राह्मण आबादी वाले क्षेत्रों में थीं।”[5]

हालांकि यह भी गौरतलब कि अछूत व पिछड़े वर्ग के ज्यादा लोग इन शाखाओं से नहीं जुड़े थे लेकिन आरएसएस ने अपने शुरुआती दिनों से ही दलित-पिछड़ों पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था और अपनी शाखाओं में उनकी भर्ती चालू कर दी थी। यह भी देखने में आता है कि जब भी जाति का प्रश्न उठता था तो डॉ. हेडगेवार जाति-समर्थकों के सामने हथियार डाल देते थे।

राकेश सिन्हा बताते हैं– “डॉ. हेडगेवार कहते थे कि हिंदुओं में सामाजिकता के भाव का अभाव है। संघ में प्रवेश के लिए उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी। ऐसे अनेक उदहारण हैं जब ब्राह्मण और अस्पृश्य स्वयंसेवकों के साथ-साथ रहने, खाने-पीने एव गतिविधियां करने पर परंपरावादी परिवार से आनेवालों को आपत्तियां हुईं।”[6]

सिन्हा आगे लिखते हैं– “बाला साहब देवरस ने अपने संस्मरण में लिखा है कि डॉ. हेडगेवार समानता के भाव को अनुशासन का हिस्सा मानकर नहीं थोपते थे। वे मानते थे कि इसका प्रवाह स्वेच्छा से होना चाहिए तभी यह टिकाऊ हो सकता है। उन्होंने लिखा है कि संघ के पहले प्रशिक्षण शिविर में कुछ स्वयंसेवकों ने जब महार स्वयंसेवकों के साथ भोजन करने में हिचकिचाहट दिखाई तो उन्हें अलग पंक्ति में बैठने दिया गया।”[7]

हिंदू एकता की राग अलापने वाले डॉ. हेडगेवार के बारे में एच.वी. पिंगले द्वारा एक संपादित किताब है– ‘स्मृति कण परमपूज्य डॉ. हेडगेवार’। यह हेडगेवार के जीवन के विभिन्न घटनाओं का संकलन है। इसमें वे लिखते हैं– “वे दलित स्वयंसेवकों के साथ सहभोज से इंकार कर रहे थे।”[8]

राकेश सिन्हा अपनी किताब ‘आधुनिक भारत के निर्माता : डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार’ में एक और वाकया दर्ज़ करते हैं– “महाराष्ट्र में रत्नागिरी के एक मंदिर में अगस्त, 1937 में संघ का एक कार्यक्रम था। मंदिर के पुरोहितों ने अछूत स्वयंसेवकों के प्रवेश पर आपत्ति उठाई।”[9]

इस तरह के बहुत सारे प्रसंग संघ के साहित्य में मिल जाएंगे, लेकिन ऐसा कोई प्रसंग या घटना नहीं मिलेगी, जहां संघ संस्थापक हेडगेवार जातिगत असमानता व अस्पृश्यता जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ बोलते या कार्य करते नज़र आते हों। चूंकि डॉ. हेडगेवार को यह तो मालूम था कि उनका मुस्लिम विरोध का एजेंडा अकेले अल्पसंख्यक ब्राह्मणों से पूरा नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने प्रारंभ से ही शाखाओं में अछूत व पिछड़े वर्ग से स्वयंसेवक जोड़े, लेकिन यह भी ध्यान रखा कि वे सिर्फ स्वयंसेवक के स्तर पर ही रहें। जब आरएसएस ने प्रचारक पद्धति अपनाई तब उन्होंने एक भी अछूत स्वयंसेवक को इस योग्य नहीं समझा।

इस तरह हम पाते हैं कि अछूत व पिछड़े स्वयंसेवक संघ के हिरावल दस्ते के रंगरूट ही बने रहे, उनको संगठन निर्माण और निर्णय प्रक्रिया से व्यवस्थित रूप से दूर रखा गया। डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व, विचार और कृतित्व में हम कहीं भी जाति व वर्ण विरोधी कोई बात नहीं देख पाते हैं। अस्पृश्यता के विरोध में कभी-कभार दबी जुबान में आवाज आती भी है, लेकिन जाति-प्रथा से टकराते हुए हेडगेवार या संघ कहीं नहीं दिखते हैं।

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि 27 सितंबर, 1925 को अपने गठन के उपरांत जिस महाराष्ट्र की धरती पर आरएसएस पल्लवित व पुष्पित हो रहा था, लगभग उसी कालखंड में डॉ. आंबेडकर महाड़ के चावदार तालाब से पानी के लिए जल सत्याग्रह (20 मार्च, 1927) कर रहे थे। वे नासिक में कालाराम मंदिर में प्रवेश हेतु आंदोलन (2 मार्च, 1930) छेड़े हुए थे। उस दौर में गांधी और आंबेडकर के मध्य पूना करार (24 सितंबर, 1932) और बाद में येवला कांफ्रेंस (1935) के ज़रिए बाबा साहब द्वारा हिंदू के रूप में नहीं मरने की घोषणा हो रही थी। बाबा साहब की बहुचर्चित किताब ‘जाति का विनाश’ (1936) आ चुकी थी। राष्ट्रीय आंदोलन में अस्पृश्यता उन्मूलन एक महत्वपूर्ण गतिविधि बन रही थी, मगर आरएसएस और उसके संस्थापक इन सब सामाजिक सुधार के आंदोलनों से दूरी बनाए हुए थे और इन विचारों पर मौन रहकर अपना ब्राह्मणवादी संगठन मजबूत करने में लगे हुए थे।

डॉ. आंबेडकर ने अपने संपूर्ण लेखन और भाषणों में तथा बाबासाहब के जीवनी-लेखकों में से किसी ने भी बाबासाहब की डॉ. हेडगेवार से घनिष्ठता का कोई ज़िक्र नहीं किया है। न ही उनके मध्य वार्तालाप और आत्मीय संबंधों का कहीं कोई प्रसंग मिलता है। बावजूद इसके बहुत बाद में आरएसएस ने जरूरत के मुताबिक डॉ. आंबेडकर से दोस्ती के किस्से गढ़े और अपने प्रचार-तंत्र के ज़रिए इस असत्य को सत्य बनाने के प्रयास जारी रखे। आंबेडकर-हेडगेवार मित्रता महज राजनीतिक फायदा लेने के लिए बनाया गया प्रोपेगेंडा है, जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।

आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी के नाम से जाना जाता है और जो संघ के वास्तविक विचारक के रूप में सामने आते हैं, वे अपनी बहुचर्चित किताब ‘विचार नवनीत’ (‘बंच ऑफ थाॅट्स’ का हिंदी संस्करण) में वर्ण और जाति की व्यवस्था का खुलकर समर्थन करते हैं। वे तो यह मानने को भी तैयार नहीं है कि इससे भारतीय समाज को नुकसान हुआ है। इसके विपरीत उनकी मान्यता है कि “वर्ण और जाति ने हमारे सामाजिक ऐक्य के संपादन में महान योगदान ही किया है।”[10]

गोलवलकर का तो यह भी कहना था कि “जहां बौद्ध प्रभाव के कारण जाति-व्यवस्था भंग हो गई थी, मुसलमानों के भीषण आक्रमण के सरलता से शिकार हो गए। दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के भू-भाग, जो जाति-पांति की मर्यादाओं के पालन में अत्यंत कठोर एव पुरातनवादी माने जाते थे, मुस्लिम शक्ति एव धर्मांधता के कई शताब्दियों तक गढ़ रहते हुए भी हिंदू बहुल बने रहे।”[11]

गोलवलकर के मुताबिक, “वर्ण-व्यवस्था में घुसी हुई विषमता और ऊंच-नीच की भावना हाल ही की है। अंग्रेजों ने अपनी फुट डालो और राज करो, इस कुटिल नीति का अनुसरण कर इस विपर्यस्त वृति को विशेष प्रोत्साहन दिया। वस्तुतः इस व्यवस्था में समाज का विभाजन कुछ ही गुटों में किया हुआ था, अपितु उस विभाजन में छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच ऐसा भेदभाव अभिप्रेत नहीं था। अपनी कला-कुशलता से समाजसेवा करने वाला शुद्र का स्थान किसी भी प्रकार से कम नहीं था। अभेद वृति से एक-दूसरे को सहायता करने वालों, सभी को मिलाकर वह समाज व्यवस्था तैयार हुई थी।”[12]

यह सर्वविदित तथ्य है कि गुरु गोलवलकर मनुस्मृति, जाति व वर्ण-व्यवस्था के घनघोर समर्थक थे और डॉ. आंबेडकर इन सबके एकदम खिलाफ थे। गोलवलकर के विचार देखिए– “श्रुति-स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बताई गई चातुर्वर्ण्य-व्यवस्थ भी ईश्वरनिर्मित है। किबहुना यह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाती है, तब हम चिंता नहीं करते। क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब भी जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन: – पुन: प्रस्थापित होकर रहेगी।”[13]

और यह भी–

“पाश्चात्य विचारक भी आज इस विचार की ओर मुड़ रहे हैं कि उनका जीवन स्पर्धा पर आधारित है और जब तक स्पर्धा रहेगी, तब तक भौतिक प्रगति चाहे कितनी हो, सुख संभव ही नहीं है। अब उनका यह मत बन रहा है कि स्पर्धा के बजाय सहकारी पद्धति होनी चाहिए। उससे सुख प्राप्त होगा। अपने धर्म की वर्णाश्रम-सामाजिक व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है। किबहुना आज की भाषा में जिसे ‘गिल्ड’ कहा जाता है और पहले जिसे ‘जाति’ कहा गया, उनका स्वरुप एक-सा है।”[14]

डॉ. आंबेडकर द्वारा पेश किए गए हिंदू कोड बिल पर आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के विचार इस प्रकार थे– “जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में नहीं रहना चाहिए कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है, यह खतरा अभी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा है।”[15]

गुरु गोलवलकर वर्ण व जाति-व्यवस्था के तो पक्के समर्थक थे ही, इस व्यवस्था का विरोध करनेवालों तथा जाति-विरोधी आंदोलन के नेताओं के प्रति भी उनका रवैया निंदक का ही था। वे बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के प्रति तो घनघोर घृणा का भाव रखते थे। हिंदू कोड बिल पर बाबासाहब के कटु आलोचक और विरोधी स्वामी करपात्री से उनकी नजदीकियां जगजाहिर थीं।

रमेश पतंगे अपनी किताब में एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं– “सन् 1960-61 के दौरान श्रीगुरुजी स्वामी करपात्री जी से मिलने उनके दिल्ली के निवास स्थान पर गए तो स्वामी करपात्री जी ने उन्हें ‘अपने स्वयंसेवकों से वर्ण-व्यवस्था के अनुसार व्यवहार करने’ हेतु प्रेरित करने को कहा था। गुरुजी ने जवाब दिया कि– ‘आपके हजारों शिष्य हैं, आप उनके गुरु हैं, आपकी आज्ञा वे मानेंगे, आप अपने शिष्यों से यह कहियेगा कि वे अपने-अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार करके एक उदहारण प्रस्तुत करें, फिर मुझसे जो बन पाएगा, वह मैं करूंगा।’”[16]

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के भीमा-कोरेगांव में जाकर हर वर्ष मेला शुरू करने को लेकर गोलवलकर के क्या भाव थे, यह उनके लेखन से साफ जाहिर होते हैं– “पुणे के निकट एक विजय स्तंभ है, जिसे सन् 1818 में अंग्रेजों ने पेशवाओं पर अपनी विजय की स्मृतिस्वरूप बनवाया था। एक प्रमुख हरिजन नेता [यही शब्द इस्तेमाल किया गया है] ने एक बार इसी स्तंभ के नीचे अपने जाति बंधुओं को संबोधित किया। उसने घोषणा की कि यह स्तंभ ब्राह्मणों पर उनकी विजय का प्रतीक है, क्योंकि उन्होंने ही अंग्रेजों के अधीन लड़कर ब्राह्मण पेशवाओं को परास्त किया था। एक प्रमुख नेता के मुख से गुलामी के इस चिह्न को विजय का प्रतीक कहा जाना एवं अपने ही बंधुओं से विदेशियों के दास के रूप में युद्ध को एक महान कर्तव्य के रूप में वर्णन करना कितना हृदयद्रावी है। घृणा के वशीभूत होकर वह कितना अंधा हो गया होगा? वह एक सामान्य सत्य भी नहीं देख पाया कि कौन विजयी हुए और कौन पराजित। कैसी विकृति है?”[17]

आज भले ही बाबासाहब को आरएसएस अपने प्रातःस्मरण हेतु एकात्मकता स्त्रोत[18] के श्लोक में जगह दे दे और उनके चित्र अपने कार्यालयों व हर कार्यक्रम में प्रदर्शित करे, लेकिन बाबासाहब के जीते-जी उनके किसी भी कार्यक्रम, नीति, आंदोलन व विचार से आरएसएस ने कभी भी सहमति नहीं जताई। यहां तक कि संविधान निर्माण में बाबासाहब की महत्ती भूमिका का उपहास करते हुए संविधान को पश्चिमी देशों से नकल किया हुआ दस्तावेज बताया और यहां तक कहा कि जब भारत में मनु का शानदार विधान पहले से मौजूद था तो विदेशों से आयातित इस संविधान की क्या जरूरत थी, जिसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।[19]

गुरु गोलवलकर तो आरक्षण को भी हिंदुओं की सामाजिक एकता पर कुठाराघात मानते थे और उनका कहना था कि आरक्षण से आपस में सद्भाव पर टिके सदियों पुराने रिश्ते तार-तार होंगे। वे निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिंदू जाति-व्यवस्था को ज़िम्मेदार नहीं मानते थे। उन्हें आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों से हिंदुओं में परस्पर दुर्भावना बढ़ने का खतरा लगता था।[20]

सन् 1964 में गोलवलकर के सरसंघचालक के कार्यकाल में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) की स्थापना हुई। विहिप के सम्मेलनों में धर्मांतरण को लेकर चिंताएं प्रकट की गईं और यह महसूस किया गया कि जब तक अस्पृश्य समुदाय साथ नहीं आएगा, तब तक उनका वृहत्तर हिंदू समाज बनाने का सपना दिवास्वप्न ही साबित होगा। सन् 1969 के दिसंबर में दक्षिण भारत के उडुपी शहर में विहिप द्वारा आयोजित धर्माचार्य सम्मेलन में जगतगुरु शंकराचार्य की उपस्थिति में अस्पृश्यता को सामाजिक कलंक मानकर उससे मुक्त होने की ऐतिहासिक घोषणा की गई। इसके दस वर्ष बाद जनवरी, 1979 में प्रयागराज (इलाहाबाद) के सम्मेलन में जगतगुरु शंकराचार्य ने कहा– “हिन्दव: सोदर: सर्वे:, न हिंदू पतितो भवेत्।”[21] (अर्थात, सभी हिंदू भाई भाई हैं, कोई हिंदू पतित नहीं है)

हालांकि संघ परिवार जिसे संघ-संप्रदाय कहना ज्यादा उचित होगा, वह अपने स्थापना के दिन से ही आंबेडकर विरोधी रहा है, उनके प्रति दुराव रखा, क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म पर बहुत-से तीखे सवाल उठाए। अपने लेखन व भाषणों में हिंदू धर्म शास्त्रों, जाति व वर्ण की विषम व्यवस्था के खिलाफ बहुत-सी बातें लिखते-बोलते रहे। इसलिए डॉ. के.बी. हेडगेवार-बी.एस. मुंझे-गुरु गोलवलकर काल में संघ ने बाबासाहब आंबेडकर से दूरी बनाए रखी। रणनीतिक रूप से आरएसएस कभी-कभी दिखावे के लिए ही सही, अस्पृश्यता के खिलाफ बात करता रहा, जातिवाद को कोसता रहा, लेकिन अस्पृश्यता और जातिवाद की जनक वर्ण व जाति की व्यवस्था के विरुद्ध उसने कभी कोई बात नहीं की।

आरएसएस की सोच में महत्वपूर्ण रणनीतिक बदलाव संघ के तीसरे सरसंघ चालक बालासाहब देवरस के आने के साथ शुरू हुआ। उन्होंने 6 जून, 1973 को बागडोर संभाली और संघ में दलित, आदिवासी और पिछड़ों को योजनाबद्ध तरीके से शामिल करने का नया दौर शुरू हुआ। अगले ही वर्ष 1974 में पुणे की प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में बोलते हुए बालासाहब देवरस ने कहा– “यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो संसार में अन्य कुछ भी पाप नहीं है। इस प्रथा का समूल विनाश आवश्यक है।”[22] यहां से प्रारंभ हुआ बदलाव बाद में लगातार चलता ही रहा और अब तक भी जारी है।

गौरतलब है कि यही वह दौर था, जिसमें दलित-बहुजन चेतना का उभार हुआ। महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स और उत्तर भारत में बामसेफ और बाद में 80 के दशक में बसपा के प्रसार से आई राजनीतिक-सामाजिक चेतना ने आरएसएस के कान खड़े किए। उनको लगा कि फुले, आंबेडकर तथा पेरियार की विचारत्रयी संघ के हिंदुत्व के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। ऐसे में आरएसएस ने अपनी सर्वोच्च निर्णायक इकाई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में दलित चेतना के उभरने और उसके बढ़ते प्रभावों पर चर्चा करनी शुरू की। हम अगर सन् 1980 से सन् 2024 की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभाओं में पारित प्रस्तावों पर ही दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि नब्बे प्रतिशत मौकों पर आरएसएस की चिंताओं में सामाजिक समरसता का सवाल शामिल रहा है।

फुले, आंबेडकर और पेरियार की विचारसरणी के आंदोलनों ने समता और समानता की बात पुरजोर तरीके से रखी। उसके विकल्प के रूप में बंधुत्व के साथ समता के विचार को समरसता का नाम देते हुए संघ ने समरसता का नया राग अलापना शुरू किया। इसी समय में दलित की जगह वंचित और आदिवासी की जगह पहले गिरिजन और तत्पश्चात वनवासी का टर्म उपयोग में लाया जाने लगा। आरएसएस को लगा कि दलित एक मारक और प्रतिरोधी शब्द है, जो अछूत समुदाय को ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़ा करने के लिए गोलबंदी में सहायक है। उसके खिलाफ में वे वंचित जैसा निरापद व असहाय शब्द लेकर आए, जो कुछ दशक तक बाज़ार में तैरता रहा। लेकिन जब यह चल नहीं पाया तो पहले आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा ने और उसके बाद संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों ने दलित शब्द को बेमन ही सही, मगर स्वीकार लिया और उसका उपयोग करने लगे।

आरएसएस के दलित समुदाय से आने वाले भगवा विचारक रमेश पतंगे अपनी किताब ‘संघर्ष महामानव का’, जो कि डॉ. आंबेडकर की हिंदूवादी छवि गढ़ने वाली जीवनी है, उसमें साफ-साफ स्वीकार करते हैं कि उनको डॉ. आंबेडकर के साहित्य में कहीं भी समरसता शब्द नहीं मिला है। आंबेडकर समता और समानता जैसे शब्द ही प्रयोग करते हैं। लेकिन रमेश पतंगे अपनी दूसरी किताब ‘तथागत और श्रीगुरुजी’ में लिखते हैं– “समरसता इस शब्द को लेकर कुछ लोगों को आक्षेप है कि समता शब्द को विकल्प देने हेतु समरसता शब्द का प्रयोग किया गया है। समरसता शब्द का प्रयोग 2500 वर्ष पूर्व का है। भगवान गौतम बुद्ध की समरसता की परिभाषा ऐसी है– ‘यथा अहम् तथा ऐते, यथा ऐते तथा अहम्’, अर्थात– जैसा मैं वैसा वह और जैसा वह वैसा मैं। इसलिए समरसता की खोज संघ ने नहीं की, यह अत्यंत प्राचीन काल से है।”[23]

आरएसएस ने अपने कुछ लोगों को बाबासाहब के आंदोलन पर नज़र रखने और उसका अध्ययन करने तथा आंबेडकरी संगठनों के नेताओं से मेल-जोल बढ़ाने की जिम्मेदारी दी थी, जैसा कि आरएसएस का तरीका है कि वह अपने कुछ प्रतिबद्ध लोगों को अपने विरोधियों के मध्य घुसपैठ करवाकर उनकी रणनीतियों पर निगरानी करवाता है। ऐसे ही बाबासाहब के आंदोलन पर भी नज़र रखी जाने लगी थी। जब बाबासाहब ने धर्मांतरण किया था, तब आरएसएस कार्यकर्ता दत्तोपंत ठेंगड़ी नागपुर के श्याम होटल में जानकारी जुटाने के लिए सेवा कार्य के नाम पर मौजूद थे। बाद में उन्होंने यह खुद स्वीकार भी किया। हालांकि विद्याभूषण रावत को दिए एक साक्षात्कार में नागपुर के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं आंबेडकरवादी इतिहासकार डॉ. के. जमनादास बताते हैं– “दत्तोपंत ठेंगड़ी, जो आरएसएस के वरिष्ठ नेता बन गये थे, वे नागपुर के श्याम होटल में स्नैक्स परोसने वाले लड़के के रूप में मौजूद थे। यह चुनिंदा [चाय] पार्टी धर्मांतरण कार्यक्रम के दौरान नागपुर में हुई थी।”[24]

दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी किताब में लिखते हैं– “मैं तो संघ का प्रचारक था, फिर भी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के नेता तथा कार्यकर्ताओं के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए तब मैं उनके साथ भी काम करता था।”[25] इतना ही नहीं, शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की अधिकांश मीटिंगें शाम को शुरू होकर देर रात तक चलती थी, जिससे उनको सुबह की शाखा में जाने में अनियमितता होने लगी तो सरसंघचालक गुरु गोलवलकर से डांट भी खानी पड़ी थी।

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दलित-बहुजन संगठनों में घुसकर उनकी रीति, नीति व कार्य-व्यवहार का पता लगाया और उसका वैकल्पिक स्वरूप आरएसएस को प्रस्तुत किया। इसके बाद सन् 1980 में गुजरात में आरक्षण विरोधी दंगों पर संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के प्रस्ताव में लाकर चिंता प्रकट की गई। अगले वर्ष सामाजिक समरसता की जरूरत पर बल दिया गया और उसके अगले साल सामाजिक समरसता मंच के गठन को स्वीकृति प्रदान की गई। इस तरह 14 अप्रैल, 1983 को दत्तोपंत ठेंगड़ी की अगुवाई में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना हो गई। इसी दौरान चुपचाप डॉ. आंबेडकर प्रातः स्मरण में शामिल कर दिए गए। बाबासाहब और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य समानता के सूत्र ढूंढने वाले साहित्य की रचना की गई और बड़े पैमाने पर आरएसएस के भीतर बाबासाहब आंबेडकर पर चर्चा प्रारंभ हो गई।

उन शुरुआती दिनों को याद करते हुए सामाजिक समरसता मंच के राष्ट्रीय संयोजक रहे रमेश पतंगे बाबासाहब की जीवनी के मनोगत में लिखते हैं– “संघ का एक स्वयंसेवक, एक हिंदुत्ववादी संगठन का प्रमुख कार्यकर्ता होते हुए भी मैं डॉ. बाबासाहब के जीवन और विचारों पर थोड़ा बहुत बोलने-लिखने लगा। शुरुआती दौर में मेरे सहयोगियों को भी मेरी यह बात पसंद आई होगी, ऐसा मुझे लगता नहीं है। संघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष डॉ. आंबेडकर को प्रस्तुत करते समय बड़ी सतर्कता बरतनी पड़ती थी। डॉ. आंबेडकर के प्रति भावनात्मक प्रतिपादन भी कई लोगों को अच्छा नहीं लगता था। कई लोग मेरे मुंह पर ही मुझे सुना चुके थे कि जरूरत से ज्यादा आंबेडकर भक्त हो गए हो। कुछ लोग मुझसे कहते थे कि इतना आंबेडकर भक्त होने के बजाय यदि तुम सावरकर भक्त हो गए होते और सावरकर पर विषय रखने लगते तो वह अधिक अच्छा होता।”[26]

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना के साथ ही डॉ. आंबेडकर के संघ के साथ रिश्ते और स्वयं का डॉ. आंबेडकर के साथ जुड़ाव के भी बहुत सारे किस्से गढ़े, जैसे कि उनकी किताब ‘डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’ में संघ के शिविर में आंबेडकर का आगमन, भगवा को राष्ट्रध्वज बनाने, संस्कृत को राष्ट्रभाषा घोषित करने तथा देश को हिंदू राष्ट्र बनाने, सावरकर को सहयोग देने तथा हिंदू महासभाई नेता बी.एस. मुंझे से गुप्त समझौता करने और गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध झेल रहे आरएसएस पर से बैन हटवाने में सहयोग करने जैसे कई किस्से हैं। ठेंगड़ी तो यहां तक दावा करते हैं कि वे 1952 के भंडारा के चुनाव में बाबा साहब के इलेक्शन एजेंट भी थे।[27] हालांकि तथ्य इन दावों की पुष्टि नहीं करते हैं। लेकिन यह सब बातें संघ द्वारा लिखवाये गए और छपवाए गए साहित्य में आसानी से बार-बार निगाहों से गुजरती हैं।

लगभग ऐसा ही दावा राकेश सिन्हा द्वारा लिखित हेडगेवार की जीवनी भी करती है कि डॉ. आंबेडकर 1938 में पुणे में संघ के शिविर में आए थे और उन्होंने महार स्वयंसेवकों के साथ सम्मान एवं समानता का भाव देखकर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि– “मैंने इस तरह से अस्पृश्यता समाप्त करने का कार्य पहले कहीं नहीं देखा।”

राकेश सिन्हा आगे लिखते हैं– “डॉ. आंबेडकर के प्रति डॉ. हेडगेवार के मन में सम्मान का भाव था। यही कारण है कि डॉ. आंबेडकर को संघ ने प्रातःस्मरणीय नामों में शामिल किया है।”[28]

इस तरह हम पाते हैं कि 1980 के दशक में आरएसएस ने डॉ. आंबेडकर का इस्तेमाल शुरू किया। देवरस के काल में उन्हें संघ के प्रातःस्मरण में शामिल किया गया। सामाजिक समरसता कोर मुद्दा बना। ऐसा साहित्य रचा गया और उसे लोगों के बीच ले जाया गया, जिसमें कहा गया कि डॉ. आंबेडकर और हेडगेवार में दोस्ती थी। वे आरएसएस के बड़े प्रशसंक थे और हिंदुत्व के हिमायती तथा मुस्लिमों के विरोधी थे। यह आंबेडकर के भगवाकरण की वृहतर परियोजना थी, जिसे देवरस काल में अंजाम दिया गया और जिसके वाहक बने दत्तोपंत ठेंगड़ी, जिनकी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन और रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया से जुड़े कुछ नेताओं से दोस्ती थी और इन आंबेकरवादी संगठनों में घुसपैठ करके उन्होंने एक प्रतिक्रांति का रोडमैप तैयार किया था।

प्रसिद्ध लेखक ए.जी. नूरानी ने ‘फ्रंटलाइन’ में लिखे अपने एक लेख में सप्रमाण यह बताया है कि– “आरएसएस की विचारधारा को मानने की बात तो दूर रही, डॉ. आंबेडकर उसे एक प्रतिक्रियावादी संगठन मानते थे। सन् 1952 के पहले आम चुनाव में आंबेडकर के नेतृत्व वाली शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ने साफ कह दिया था कि वह हिंदू महासभा और जनसंघ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों से कोई रिश्ता नहीं रखेगा।”[29]

इसके बाद राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का संघर्ष का लंबा दौर आया। इस दौरान बहुत ही व्यवस्थित तरीके से दलित, आदिवासी समुदायों के मध्य सांस्कृतिक आध्यात्मिक तरीकों से पैठ बनाई गई। रामायण के कथानकों से विभिन्न जातियों को जोड़ा गया। कोई रामायण के रचियता का वंशज बनकर खुश हुआ तो किसी को केवट में अपने रिश्तेदार दिखे, किसी को शबरी अपनी लगी तो कोई हनुमान का वंशज बना, किसी ने जटायु को पकड़ा तो कोई निषादराज से जा जुड़ा। इस तरह राम कथा के किरदारों से दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय जोड़े गये। इस प्रकल्प ने काफी असर दिखाया। लाखों गांवों में हुए राम शिलापूजन रथों को सचेतन तरीके से दलित बस्तियों तक ले जाया गया। राम शिलाओं का दलित बुजुर्गों के हाथों पूजन करवाया गया, जिससे राम जन्मभूमि के साथ भावनात्मक जुड़ाव बनाया गया। जब राम मंदिर का 9 नवंबर, 1989 को शिलान्यास कार्यक्रम हुआ तो बिहार के एक दलित पासवान स्वयंसेवक कामेश्वर चौपाल से पहली ईंट रखवाई गई। इस तरह से दलित वंचित समुदाय को राम मंदिर प्रोजेक्ट का स्थाई हिस्सा बना दिया गया।

इसी दौरान डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह को सामाजिक समरसता को समर्पित कर दिया गया। इस समारोह का एक उद्देश्य यह भी निर्धारित किया गया कि हिंदू जागरण की तीव्र गति से उभरती हुई शक्तियों को एकजुट किया जाए और उसे सामाजिक कायापलट की सशक्त रचनात्मक दिशा प्रदान की जाए तथा इसके लिए छुआछूत को मिटाया जाए और वनवासियों, नगरीय गंदी बस्तियों और निर्बल ग्राम वासियों जैसे समाज के उपेक्षित एवं पिछड़े वर्गों का उत्थान किया जाए।[30]

इस साल 1989 में चारों तरफ समरसता का वातावरण बनाने के लिए अस्पृश्यता और जातिवाद के विरुद्ध जन-जागरण कार्यक्रम किये गए। ‘उपेक्षित बंधुओं के पास चलो’ अभियान हुआ, अस्पृश्यता के विरुद्ध पदयात्रा की गई। ‘अस्पृश्यता, एक जघन्य पाप -रा.स्व.संघ’ जैसा दीवार लेखन हुआ। भारी संख्या में ‘सामाजिक समरसता सम्मलेन’ हुए। डॉ. आंबेडकर और डॉ. हेडगेवार के अनुयायियों में पूर्ण सद्भाव कायम करने के प्रयास किये गए। देश भर में अनेक संतों, मठपतियों ने डॉ. हेडगेवार जन्मशती समारोह के मंच से अस्पृश्यता, जातिवाद व संप्रदायवाद को निर्मूल करने के संघ के प्रयासों को समर्थन दिया गया। यही वह वर्ष रहा जब ‘आंबेडकर-हेडगेवार युति’ बनाई गई।

इसका असर आरएसएस में इस तरह आंका गया– “मई 1989 के प्रारंभ में डॉ. हेडगेवार जन्मशताब्दी समारोह समिति ने जम्मू में कांची काम कोटि पीठ के शंकराचार्य का 9 दिनों का व्यापक भ्रमण आयोजित किया। अछूत बस्तियों में जगद्गुरु के दर्शन से दलितों में हिंदुत्व की भावना अति बलवती हुई। इससे उन्हें बोध भी हुआ कि संघ इस बारे में कृतसंकल्प है कि वह छुआछूत मिटाएगा और हिंदू समाज के दुर्बल वर्गों को समता और न्याय दिलाएगा।”[31]

जब मंडल आयोग के ज़रिए पिछड़े समुदायों को आरक्षण दिए जाने की घोषणा की गई, तब संघ-भाजपा का कमंडल आंदोलन फिर से जोर पकड़ने लगा। लालकृष्ण आडवाणी राम रथ यात्रा पर सवार होकर निकल पड़े, जिसने धर्मांधता की आग में देश को झोंक दिया। वहीं, दूसरी तरफ मंडल विरोधी आंदोलन व आत्मदाह के लिए उकसाने में सघियों की भूमिका किसी से ढंकी-छिपी नहीं है। आरएसएस का प्रचार तंत्र उस वक्त भी इसे दलित, आदिवासियों को और अधिक आरक्षण दे दिए जाने के रूप में प्रचारित करता रहा। हालात इस तरह बनाए गए कि जिन पिछड़ों को इस आरक्षण का लाभ मिल रहा था, उनको भी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने के खिलाफ चल रहे उपद्रवों में शामिल करवा दिया गया।

इसके बाद उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का नया आर्थिक दौर शुरू हुआ, जिसने दलितों-आदिवासियों से सार्वजनिक उपक्रमों से उनकी भागीदारी छिनने की शुरुआत की। संघ ने इसके प्रति मौन कायम रखा। निजी क्षेत्र में दलित, आदिवासियों को आरक्षण दिए जाने की मुखालफत की और अपने स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आने पर विनिवेश मंत्रालय स्थापित किया गया तथा जिन सार्वजनिक उपक्रमों में आरक्षण लागू था, उनको तेज़ी से बेचा गया। इसी दौर में संविधान की समीक्षा करने और उसे बदलने का विमर्श आगे बढ़ा।

सन् 1990 के दशक में डॉ. आंबेडकर की छवि ध्वस्त करने का कार्यभार खोजी पत्रकार अरुण शौरी ने अपने हाथ में लिया। शौरी ने ‘वर्शिपिंग द फाल्स गॉड’ नामक किताब लिखी, जिसमें बाबासाहब को अंग्रेजों का एजेंट और देशद्रोही सिद्ध करने के लिए भरपूर कलाबाजियां की गईं। शौरी इस हद तक नीचे गिरे कि उन्होंने संविधान निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका को भी पूरी तरह नकार दिया। इन महाशय को अपने आंबेडकर द्वेष का इनाम अटल बिहारी सरकार में विनिवेश मंत्रालय में मंत्री बनाकर दिया गया।

उल्लेखनीय है कि एक तरफ विश्व हिंदू परिषद अपने सम्मेलनों के ज़रिए अस्पृश्यता को पाप घोषित करवा रही थी, वहीं दूसरी तरफ उसने 1992 में एक धर्म-संसद आयोजित किया, जिसमें प्रस्ताव पारित कर कहा गया कि “भारतीय संविधान गैर हिंदू है, उसके स्थान पर हिंदू संविधान लाया जाना चाहिये।” इसके बाद संघ-भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठनों द्वारा संविधान बदलने की मांग और तेज़ की गई। अंततः अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जस्टिस वेंकटाचलैय्या की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया, जिसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया को देखते हुए इस आयोग की रिपोर्ट पर फिर कभी चर्चा नहीं की गई। लेकिन संविधान समीक्षा का राग कभी ख़त्म नहीं हुआ। संघी खेमे में यह सदैव बना रहा।

नब्बे के दशक में संघ समरसता की बात भी कहता रहा। दलित बस्तियों में हजारों स्थानों पर सेवा प्रकल्प खोले और वहां उसने पुस्तकालयों के ज़रिए अपने प्रचार साहित्य को रखा। दलित वर्ग के बेरोजगार युवाओं को निर्वाह भत्ता देकर उनको अपने सेवाकार्यों में जोड़कर दलित गांवों, बस्तियों, मोहल्लों और शहर की झुग्गी-बस्तियों में रहनेवाले दलित समुदाय में अपनी घुसपैठ को मजबूत बनाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, कैरियर आदि के नाम पर काम जारी रखा। इस बीच पंचायती राज और स्वायत्त शासन निकायों में प्रतिनिधित्व हेतु 73वां व 74वां संविधान संशोधन क्रियान्वित हुए और दलित, आदिवासी समुदाय में भाजपा के प्रवेश हेतु यह बड़ा जरिया बना। जिन बस्तियों में कभी संघ और भाजपा के झंडे नहीं पहुंचे, वहां अब इन संगठनों के लिए लोग तैयार होने लगे थे। जहां ऊपर बड़े पैमाने पर दलित-आदिवासियों के आरक्षण और संविधान पर संघ भाजपा प्रहार कर रहे थे, वहीं ग्रासरूट स्तर पर उनके बीच उसकी घुसपैठ बढ़ती जा रही थी। ‘सेवा भारती’ तथा ‘सामाजिक समरसता मंच’ के द्वारा काम भी सघन होता चला गया।

इसके बाद गुरु गोलवलकर का जन्म शताब्दी वर्ष 2006 में समरसता वर्ष के रूप में मनाया गया। तब भी समरसता यज्ञ और भजन पूजन कीर्तन सत्संग व कथावाचन जैसे धार्मिक आयोजन दलित बस्तियों में किए गए और दलित बुद्धिजीवियों से भगवा साहित्य तैयार करवाया गया। अब तक डॉ. आंबेडकर की तस्वीरें आवश्यक रूप से आरएसएस के दफ्तरों और कार्यक्रम के मंचों तथा पथ संचालनों में पहुंच गईं। हर साल प्रतिनिधि सभा में कोई न कोई मुद्दा होता, जिसका विषय सामाजिक समरसता होता। संघ में निचले स्तर के प्रचारकों में आरएसएस ने दलित-आदिवासियों को लेना प्रारंभ कर दिया। हालांकि उसकी सर्वोच्च इकाई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में दलितों का सहभाग नगण्य ही बना रहा और अखिल भारतीय कार्यकारी समिति में तो शून्य प्रतिनिधित्व ही दर्ज़ किया गया। फिर भी दलितों को धार्मिक तरीके अपनाकर जोड़ने का प्रयास जारी रहा। बड़े पैमाने पर वाल्मीकि जयंती, आंबेडकर जयंती और रविदास जयंती समारोह आयोजित किए जाने लगे और इतिहास लेखन के नाम पर आरएसएस ने दलित जातियों का ऐसा इतिहास लिखवाया, जिसने उनको मुस्लिम द्वेष के चरम पर पहुंचा दिया।

संघ के स्वयंसेवक रहे भाजपा नेता विजय सोनकर शास्त्री ने ‘हिंदू खटिक जाति का इतिहास’, ‘हिंदू चर्मकार जाति का इतिहास’ और ‘हिंदू वाल्मीकि जाति का इतिहास’ नामक तीन बड़े ग्रंथ लिखे, जिन्हें प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने छापा और वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने लोकार्पित किया। इन इतिहास ग्रंथों का कुल जमा स्वर और स्थापना यही है कि युद्धों में पराजित जो क्षत्रिय धर्म बदलने के लिए तैयार नहीं हुए, ऐसे धर्म योद्धाओं को मुगलों ने अस्वच्छ काम करने पर मजबूर किया और उनको सिर पर मैला ढोने, मरे पशुओं की खाल उतारने और साफ-सफाई करने तथा मांस बेचने जैसे धंधे में धकेल दिया। इन्हीं धर्म योद्धाओं की बदौलत आज हिंदू समाज का अस्तित्व कायम है। छुआछूत, घुंघट और गोमांस भक्षण जैसी तमाम बातें इन समुदायों पर थोपी गईं, लेकिन फिर भी ये लोग धर्म-परिवर्तन को राजी नहीं हुए। अस्पृश्यता जैसा जघन्य कर्म मुसलमानों की देन है। जाति जन्य भेदभाव के लिए सवर्ण हिंदू नहीं, बल्कि मुग़ल जिम्मेदार हैं।

संघ ने ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक शमशान’ अभियान भी चलाया। बाबासाहब से जुड़ी जगहों को तीर्थस्थल घोषित करके उनकी यात्रायें करवाने के आयोजन भी किये गए। दलित भी दूसरों की तरह घोड़ी पर चढ़ें, शिव मंदिरों में जलाभिषेक करें, वे भी यज्ञों में बैठे, मंदिरों में प्रवेश करें, इस प्रकार के बयान भी समय-समय पर संघ की तरफ से आते रहे हैं। इतना ही नहीं, वरन् जहां जहां भी दलितों और मुस्लिमों के मध्य किसी बात को लेकर छोटे-मोटे झगड़े हुए हैं, वहां पर उसे हिंदू- मुस्लिम प्रश्न बनाकर दलितों के पक्षधर होने का दिखावा भी संघ करता रहा है। दलित लड़कियों को मुस्लिम लड़कों के कथित लव जिहाद से बचाने के मामले भी संघी लोगों की तरफ से उछाले जाते रहे हैं।

इस बीच मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर अपना रूख बदलते हुए, जब तक विषमता रहेगी आरक्षण भी रहेगा, जैसी बातें करना शुरू करके दलितों को भ्रमित करने में सफलता पाई है। हालांकि यह भी सत्य है कि आरएसएस के बाकी आंदोलन बहुत प्रचंड और विशाल तथा त्वरित होते हैं, मगर समरसता का उसका अभियान अत्यंत धीमा है, जिसने अब तक कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं पाई है। समरसता हेतु किये जाने वाले सेवा कार्य भी दलित स्वयंसेवकों के जिम्मे ही रहते हैं। उनके द्वारा किये गए कार्य अन्य समुदाय के स्वयंसेवकों के न दिल तक पहुंचते हैं और न ही उनका दिमाग बदलते हैं।

बदलने के सारे प्रयासों के बावजूद ऐसा लगता है कि सांप के केंचुली उतारने की तरह संघ अपना चोला तो बदलता है मगर दलितों के प्रति विष को बचा लेता है और उसे वक़्त जरूरत काम में लेता रहता है। जैसे कि उसकी विचारधारा की सरकार बाबासाहब से जुड़े स्थलों का विकास करती है। प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ ऐसा करती दिखाती है कि वह दलित हितैषी लगे, आरक्षण समर्थक लगे, लेकिन यह भी सच है कि वह अपने कार्य-व्यवहार से आरक्षण को खत्म करती जाती है। जैसे लैटरल एंट्री हो अथवा निजीकरण को बढ़ावा देना। ताज़ा उदाहरण गत 1 अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटे में उपवर्गीकरण संबंधी अधिकार राज्यों के पास होने संबंधी न्यायादेश व इन वर्गों में क्रीमीलेयर को लेकर चल रही बहस है।

सनद रहे कि दलितों के पक्ष में दिखने का ढोंग करने के बावजूद 2 अप्रैल, 2018 के दलित-आदिवासी आंदोलन पर उसके स्वयंसेवकों द्वारा किये गए हमलों को लोग भूले नहीं हैं। एक तरफ संविधान दिवस मनाना, संविधान के प्रति नतमस्तक होना और दूसरी तरफ लगातार संविधान बदलने की बातें करते रहना, आरएसएस की एक ऐसी रणनीति है जो दलित-आदिवासी-ओबीसी समुदाय को निरंतर विभ्रम में डालती रहती है। इन समुदायों में संघ के इरादों को समझने वाला समूह बहुत छोटा है। उसके झांसे में आने वाला समूह निरंतर बढ़ता जा रहा है, क्योंकि संघ धर्म, आध्यात्म और संस्कृति तथा राष्ट्रवाद के खोल में आता है और उसकी राजनीति उजागर हो, इससे पहले ही वह खेल करने में कामयाब हो जाता है। आज हालात यह है कि दलित-बहुजन वर्ग में विमर्श रचने वाले अधिकांश लोग आरएसएस की लाइन ले चुके हैं। दलित-बहुजन राजनीति का भी वर्तमान फलित संघ-भाजपा द्वारा रचे जाल में फंसे रहने अथवा उनके द्वारा तय एजेंडे के इर्द-गिर्द प्रतिक्रिया करते रह जाना भर है। ऐसे में वे बाबासाहब की उस चेतावनी को भूल चुके हैं, जो उन्होंने किसी भी कीमत पर हिंदू राज न आने देने के लिए दी थी।

संदर्भ :

[1] 15 सितंबर, 2020 को ‘दैनिक जागरण’ में प्रकाशित
[2] 26 जुलाई, 2022 को वीएसके भारत द्वारा प्रकाशित
[3] आरसएस के संविधान की प्रस्तावना से
[4] देवेंद्र स्वरूप, संघ वृक्ष से बीज, प्रभात प्रकाशन, 2017, पृष्ठ 59
[5] राकेश सिन्हा, आधुनिक भारत के निर्माता : डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार (चौथा संस्करण), प्रकाशन विभाग, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 216
[6] वही, पृष्ठ 215
[7] वही
[8] एच.वी. पिंगले, स्मृति कण परमपूज्य डॉ. हेडगेवार, पृष्ठ 49-50
[9] राकेश सिन्हा, उपरोक्त, पृष्ठ 216
[10] गोलवलकर, विचार नवनीत, ज्ञान गंगा प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 110-111
[11] वही, पृष्ठ 111
[12] रमेश पतंगे, तथागत और श्रीगुरुजी, श्रीभारती प्रकाशन, नागपुर, 2008, पृष्ठ 26
[13] श्रीगुरु जी समग्र, खंड 9, पृष्ठ 168
[14] वही, पृष्ठ 167
[15] वही, खंड 6, पृष्ठ 64
[16] रमेश पतंगे, उपरोक्त, पृष्ठ 27
[17] विचार नवनीत, उपरोक्त, पृष्ठ 112
[18] ‘सुभाष: प्रणवानंद: क्रांतिवीरो विनायक: ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायनो गुरु:, ‘एकात्मकता स्त्रोत , श्लोक – 30
[19] आर्गेनाइजर, 30 नवंबर, 1949, पृष्ठ 3
[20] विचार नवनीत, उपरोक्त, पृष्ठ 355-356
[21] संपादक किशोर मकवाना, सामाजिक समरसता, प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ 52
[22] के. सूर्यनारायण राव, सामाजिक समरसता, संघ का व्यापक दृष्टिकोण, ज्ञान गंगा प्रकाशन, जयपुर, 2002, पृष्ठ 24
[23] रमेश पतंगे, उपरोक्त, पृष्ठ 22
[24] विद्याभूषण रावत, आंबेडकरवाद विचारधारा और संघर्ष, अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, 2024, पृष्ठ 97
[25] दत्तोपंत ठेंगड़ी, डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा, पृष्ठ 265
[26] रमेश पतंगे, संघर्ष महामानव का, पृष्ठ 15
[27] दत्तोपंत ठेंगड़ी, कार्यकर्ता : अधिष्ठान, व्यक्तित्व, व्यवहार, भारतीय विचार साधना पुणे प्रकाशन, 2016, पृष्ठ 271-272
[28] राकेश सिन्हा, उपरोक्त, पृष्ठ 216
[29] डॉ. एस.सी. कश्यप, हिंदुत्व पर आंबेडकर, पृष्ठ 3
[30] नवयुग का शंखनाद, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 9-10
[31] वही, पृष्ठ 55

(भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।)

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