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एक बार फ़िर दुनिया में तेजी से उभर रहा है विकसित राष्ट्र बनाम निर्धन राष्ट्र तथा पूंजी और श्रम का संघर्ष

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स्वदेश कुमार सिन्हा 

नब्बे के दशक के बाद सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी सत्ताओं के पतन के बाद सोवियत संघ और अमेरिका इन दो महाशक्तियों के बीच चल रहे शीतयुद्ध का अंत हो गया। अमेरिका ने घोषणा कर दी, कि वह शीतयुद्ध जीत चुका है। शीतयुद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों ने बड़े पैमाने पर परमाणु शस्त्रों का जखीरा इकट्ठाकर लिया था। कई बार ऐसा लगता था कि दोनों महाशक्तियों के बीच परमाणु युद्ध हो जाएगा तथा सम्पूर्ण दुनिया का विनाश हो जाएगा। उस समय परमाणु युद्ध की विभीषिका को दर्शाने वाली हॉलीवुड में अनेक फिल्में बनीं, बहुत से उपन्यास लिखे गए। यह भी कहा जाता है, कि यूरोप-अमेरिका में परमाणु अस्त्रों की विभीषिका से बचने के लिए अनेक बंकर भी बनाए गए।

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद एकध्रुवीय दुनिया का नेतृत्व अमेरिका के पास आ गया, अगर देखा जाए तो यह अमेरिकी प्रभुत्व वाली दुनिया बन गई थी। सोवियत संघ द्वारा बनाई गई वार्सा संधि समाप्त हो गई थी तथा नाटो अपना तेज़ी से विस्तार कर रहा था। यह कहा जाने लगा कि साम्यवाद की समाप्ति के साथ ही अब उदारवादी लोकतंत्र की जीत हो गई है और दुनिया बड़े महायुद्धों से हमेशा के लिए मुक्त हो गई है। इस तर्क के लिए वैचारिक आधार को गढ़ने का श्रेय फ्रांसिस फ़ुकुयामा को जाता है।

सोवियत ख़ेमे के पराभव के बाद 1992 में उनकी पुस्तक ‘द एण्ड ऑफ दी हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन’ का प्रकाशन हुआ, इसने फ़ुकुयामा को रातों-रात बौद्धिक सेलीब्रिटी बना दिया। इस पुस्तक में उन्होंने इतिहास के अंत की घोषणा कर दी। पुस्तक में वे कहते हैं कि, “सोवियत कम्युनिज्म के ख़ात्मे के साथ ही दुनिया के सभी देश उदारवादी लोकतंत्रों में बदल जाएंगे। बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में उदारतावादी लोकतंत्र और पूंजीवाद के संयोग को किसी भी वैकल्पिक राजनीतिक या आर्थिक प्रणाली के मुक़ाबले वास्तविक और नैतिक रूप से बेहतर साबित किया है।..

..इसका कारण यह है कि लोकतंत्र और पूंजीवाद के जोड़ में मानवीय प्रकृति की बुनियादी चालक शक्तियों को संतुष्ट करने की क्षमता है, लेकिन साथ में फ़ुकुयामा चेतावनी भी दर्ज़ कराते हैं, कि एक मानवीय मॉडल के रूप में उदारतावादी लोकतंत्र के अन्य मॉडलों पर विजय के बावज़ूद एक ऐसी स्थिति आ सकती है, कि उदारतावादी लोकतंत्र ऊर्जाहीन होकर मौत का शिकार हो सकता है। कुल मिलाकर उनकी रचना के अंत में भविष्य की निराशाजनक तस्वीर ही उभरती है।”

एक दशक के बाद ही लोकतंत्र के भविष्य के प्रति फ़ुकुयामा का भय सही सिद्ध हुआ। एक बार फ़िर दुनिया में एक नये शीतयुद्ध का आगाज़ हो गया और दुनिया कई गुटों में बंट गई। दुनिया में कोई महायुद्ध तो नहीं तो नहीं हुआ, लेकिन छोटे-छोटे युद्धों तथा गृहयुद्धों की विभीषिकाओं ने आज दुनिया को शीतयुद्ध के दौरान हुई बुरी हालतों से भी बुरे संकट में डाल दिया है, यहां तक कि आज द्वितीय महायुद्ध के बाद के दुनिया सबसे शरणार्थी संकट के मुहाने पर खड़ी है।

पूंजीवादी-उदारवादी लोकतंत्रों में दुनिया भर में फासीवादी और अर्धफासीवादी दक्षिणपंथी शासक सत्ता में आ रहे हैं। यह प्रवृत्ति केवल एशिया, अफ्रीका या लैटिन अमेरिकी देशों में ही नहीं, बल्कि यूरोप-अमेरिका में भी देखने में आ रही है। यूक्रेन और रूस में चल रहा युद्ध हो या इज़राइल और हमास के बीच चल रहा युद्ध हो, इन दोनों ने आज दुनिया को विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ा कर दिया है।

इन घटनाओं का विश्लेषण आज के संदर्भ में किस तरह किया जाए? कुछ लोग आज इसे सभ्यताओं के संघर्ष के रूप में पेश कर रहे हैं, विशेष रूप से इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष को यहूदी और इस्लाम के बीच संघर्ष के रूप में। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अमेरिकी विद्वान सैमुअल पी० हटिंग्टन ने सभ्यताओं के विश्लेषण की इकाई बनाकर अपनी भविष्य दृष्टि पेश की, जिसे ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के नाम से जाना जाता है।

1993 में फाॅरेन एफेयर्स पत्रिका में ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन?’ से अकादमीय क्षेत्रों में ज़बरदस्त बहस छिड़ गई। तीन साल बाद इसी नाम से उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई। इस बार उन्होंने प्रश्नवाचक चिह्न लगाए बिना ही अपना सूत्रीकरण पेश किया। सभ्यताओं के संघर्ष की थीसिस यह है कि लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में संघर्ष का प्राथमिक स्रोत होगी। अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक हटिंग्टन ने तर्क दिया, कि भविष्य के युद्ध देशों के बीच नहीं संस्कृतियों के बीच लड़े जाएंगे।

वे सारी दुनिया को दस मुख्य सभ्यताओं में बांटकर देखते हैं- पश्चिमी, लातीनी, अमेरिकी, अफ़्रीकी, इस्लामी, चीनी, हिन्दू, ईसाई, परम्परानिष्ठ ईसाई, बौद्ध और जापानी। सभ्यता की इकाई को परिभाषित करने के लिए उन्होंने माना है, कि अगर भाषा, इतिहास, धर्म, रीति-रिवाज की समानता के आधार पर बनी समान आत्म-पहचान किसी विशाल दायरे में फैले लोगों को एक सभ्यता की श्रेणी में ले आती है। इनमें से कुछ सभ्यताओं के मर्म में राज्य की संस्था है, जिसके पास आणविक हरबे-हथियार हैं।

चीनी सभ्यता के मर्म में चीनी राज्य और जापानी सभ्यता के मर्म में जापानी राज्य है। पश्चिमी सभ्यता के मर्म का निर्माण अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे राज्य करते हैं, लेकिन इस्लामी सभ्यता का मर्म इस तरह के किसी राज्य से वंचित है, यही हालत लातीनी, अमेरिका और अफ़्रीका की है। हटिंग्टन को लगता है कि आने वाले समय में ये सभ्यताएं आपस में टकराएंगी। परम्परानिष्ठ ईसाइयत का संघर्ष पश्चिमी ईसाइयत और इस्लाम से होगा। हिन्दू सभ्यता मुस्लिम सभ्यता से भिड़ जाएगी। चीनी सभ्यता भी हिन्दू सभ्यता से संघर्ष में आ सकती है। अफ़्रीकी और लातीनी अमेरिकी सभ्यताएं किनारे पर पड़ी रहेंगी।

हटिंग्टन विशेष रूप से इस्लाम द्वारा पश्चिमी सभ्यता को मिल सकने वाली चुनौती से चिंतित लगते हैं। उनकी दलील है कि एक तो मुसलमानों की जन्म-दर अन्य सभ्यताओं के मुक़ाबले ज़्यादा है, दूसरे बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में उसकी लोकप्रियता में ज़बरदस्त उछाल आया है। इस्लाम पश्चिमी मूल्यों को ख़ारिज करते हुए अमेरिकी रुतबे के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए पश्चिमी और इस्लामी सभ्यताओं के बीच संघर्ष अवश्यंभावी है। हटिंग्टन के अनुसार चीन इस्लामी राज्यों से जुड़कर अमेरिका को टक्कर देना चाहेगा, जिससे युद्ध का ख़तरा बहुत बढ़ जाएगा।

क्या हटिंग्टन का सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत आज की दुनिया में चल रहे संघर्षों पर लागू होता है? वास्तव में ‘फ्रांसिस फ़ुकुयामा का इतिहास के अंत का सिद्धांत’ तथा ‘हटिंग्टन के सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत’ एक दूसरे का पूरक है। एक सिद्धांत के असफल होने के बाद ही दूसरा सिद्धांत आया। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए, कि ये दोनों समाजशास्त्री अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान से गहराई से जुड़े हैं तथा वैचारिक रूप से उसी के हितों की पूर्ति कर रहे हैं।

आज दुनिया में जो भी संघर्ष चल रहे हैं, उसके पीछे धार्मिक या सांस्कृतिक कारण न होकर शुद्ध आर्थिक कारण हैं। यह सिद्धांत राष्ट्रों के साम्राज्यवादी शोषण को नकारता है। रूस और यूक्रेन का संघर्ष या इज़राइल और हमास के बीच का संघर्ष शुद्ध रूप से साम्राज्यवादी वर्चस्व का संघर्ष है, न कि सांस्कृतिक और धार्मिक संघर्ष। तुर्की और ईरान भले ही आज इज़राइल और हमास के संघर्षों को इस्लाम बनाम यहूदी संघर्ष के रूप में चित्रित करने की कोशिश रहे हैं, परन्तु यह शुद्ध रूप से इस्लामी दुनिया में वर्चस्व की लड़ाई है।

तुर्की जो कि इज़राइल के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा मुखर हैं, वह अमेरिकी समर्थित नाटो का सदस्य है तथा उसके देश में नाटो के परमाणु शस्त्र तक तैनात हैं, यही स्थिति सउदी अरब-कतर जैसे देशों की है। सउदी अरब में बड़े पैमाने पर अमेरिकी सेना मौजूद है, अरब सागर अमेरिका का सबसे बड़ा नौसैनिक बेड़ा है। वास्तव में सारे ही अरब देश अपनी रक्षा प्रणाली के लिए अमेरिका पर ही निर्भर हैं।

इस बहुध्रुवीय दुनिया में अनेक नये सैनिक और राजनीतिक ग्रुप बने हैं, जिसका मक़सद शुद्ध आर्थिक और सैन्य है, न कि धार्मिक और सांस्कृतिक- जैसे अमेरिका के ख़िलाफ़ रूस, चीन और ईरान का गठबंधन। तीनों ही देश धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से भिन्न हैं। भूमंडलीकरण नवउदारवादी नीतियों ने शीतयुद्ध के बाद दुनिया को पूरी तरह से बदल दिया है। एक बार फ़िर विकसित राष्ट्र बनाम निर्धन राष्ट्र तथा पूंजी और श्रम का संघर्ष दुनिया में तेजी से उभर रहा है, तब इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष जैसे सिद्धांत इन नयी परिघटनाओं को नकारने की असफल कोशिश करते दिखाई देते हैं।

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