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वन नेशन वन  इलेक्शन वह पुल है जिसके एक ओर संविधान का हलाल किया जाना है और दूसरी ओर झटका

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राजेंद्र शर्मा

वैसे ये भी अच्छा ही है कि मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं। वन नेशन, वन  इलेक्शन का ही देख लीजिए। मोदी जी चाहते तो एक ही झटके में वन नेशन नो  इलेक्शन कर सकते थे। कर सकते थे कि नहीं कर सकते थे! था कोई उनका हाथ पकड़ने वाला। संसद में अच्छा-खासा बहुमत है। राष्ट्रपति, मोदी जी जहां कहें, वहीं मोहर लगाने को तैयार हैं। न्यायपालिका बटुए में न सही, जेब में तो जरूर है। विरोध करने वालों के मुंह बंद कराने के लिए ईडी से लेकर सीबीआई, एनआईए तक और नये राजद्रोह कानून से लेकर यूएपीए तक, सारे पुख्ता इंतजामात हैं। मीडिया, गोदी में सवार है। और क्या चाहिए था। 

मगर नहीं किया। एक झटके में वन नेशन मैनी  इलेक्शन से वन नेशन नो इलेक्शन नहीं किया। सिर्फ  मैनी  इलेक्शन से वन इ इलेक्शन किया; जिससे झटका भले जोर का हो, पर धीरे से लगे। 

इसका मतलब यह नहीं है कि मोदी जी के न्यू इंडिया की प्रगति एक  इलेक्शन पर ही रुक जाएगी। आएगा, वन नेशन नो  इलेक्शन का भी नंबर आएगा। राम जी ने चाहा तो जल्द ही आएगा। पर तब तक वन नेशन में वन  इलेक्शन। पहले ही कहा, मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं।

वैसे ऐसा भी नहीं है कि मोदी जी हमेशा झटका, धीमे से लगाने में ही विश्वास करते हों। तब तो हलाल का मामला हो जाता और मोदी जी को मुसलमानों के साथ अपना नाम जोड़ा जाना जरा भी पसंद नहीं है। आखिर, मोदी जी के राज में हलाल के सबसे बड़े विरोधी तो उग्र शाकाहारी हिंदू ही हैं। उनकी भावनाओं का आदर तो मोदी जी को भी करना ही पड़ता है। यानी मोदी जी झटके की तरह झटका करना भी बखूबी जानते हैं, हालांकि वह खुद शुद्ध से भी शुद्ध शाकाहारी हैं। 

2002 में गुजरात में क्या हुआ था, भूल गए क्या ? गोधरा में रेल के डिब्बे में आग लगने के बाद, हफ़्तों पूरे गुजरात में हुआ था, उसे हलाल तो किसी भी तरह से नहीं कह सकते हैं। या नोटबंदी में जो हुआ था, उसे? था तो वह भी झटके का ही मामला। एक ही झटके में लोगों को बैंकों की लंबी-लंबी लाइनों में लगा दिया था। और कोरोना काल में भी लॉकडाउन किसी झटके से कम नहीं था। लाखों मजदूरों को पांव-पांव अपने गांव लौटने के लिए, बड़े-छोटे तमाम शहरों से बाहर धकेल दिया गया। रास्ते में पुलिस के डंडे खाए, सो ऊपर से। और तो और रफाल मामले तक में मोदी जी ने सालों में हुए खरीद के समझौते का झटका कर दिया और छोटे अंबानी के पुंछल्ले वाला, अपना नया सौदा आगे कर दिया।

लेकिन, इस सब का मतलब यह भी नहीं है कि मोदी जी की ज्यादा प्रैक्टिस झटका करने की ही है; कि वन नेशन वन  इलेक्शन के मामले में पहली ही बार वह इसका ख्याल रख रहे हैं कि जोर का झटका धीमे से लगे। मोदी जी ने साथ चलाते-चलाते शिव सेना के साथ क्या किया था? अकाली दल के साथ भी। और तेलुगू देशम के साथ। बीजू जनता दल के साथ। अजित सिंह के लोक दल के साथ। और तो और नीतीश बाबू के जदयू के साथ भी। 

हलाल अगर मुसलमानों के साथ चिपकने की वजह से वर्जित नहीं हो गया होता, तो मोदी जी हलाल के भी मास्टर कहलाते। और हलाल का सलूक सिर्फ साथ चलने वाली राजनीतिक पार्टियों तक ही सीमित नहीं था। कश्मीर के मामले में तो मोदी जी ने एक के बाद एक, हलाल और झटका, दोनों ही आजमा डाले। पहले, महबूबा के साथ सरकार में बैठकर उसी डाल पर धीरे-धीरे आरी चलाते रहे, जिस पर बैठे थे। और जब डाल करीब-करीब कट गयी तो, एकदम से डाल से नीचे कूद गए। और गेयर बदलकर डाल को झटके से हलाल कर दिया। फिर भी हो सकता है, मोदी जी का झटके का ही स्कोर ज्यादा बैठे। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, आदि में विरोधी सरकारों के विधायक खरीद-खरीद के जो झटका किया है, उसे भी तो हिसाब में लेना पड़ेगा।

सच्ची बात तो यह है कि मोदी जी ने इस मामले में विपक्ष वालों को पूरी तरह से कंफ्यूज कर के रखा हुआ है। बेचारे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि मोदी जी देश के संविधान के साथ जो कर रहे हैं, उसे हलाल कहेंगे कि झटका। उन्हें कभी लगता है कि संविधान को हलाल किया जा रहा है और कभी लगता है कि झटका किया जा रहा है। अलबत्ता वन नेशन नो  इलेक्शन हो जाता तो फिर भी विपक्ष वालों को कम से कम कुछ क्लेरिटी तो मिल जाती कि संसदीय जनतंत्र का झटका हो रहा है। लेकिन, उसमें भी मोदी जी ने मामला वन इलेक्शन पर अटका दिया। अब इसे संसदीय जनतंत्र का झटका होना, कहें भी तो कैसे कहें? अब तक कई चुनाव थे, अब एक चुनाव है; फिर भी चुनाव तो है! इसे जनतंत्र का झटका होना कहें भी तो कैसे?

तो क्या जनतंत्र का गला अब भी धीरे-धीरे ही रेता जाएगा—हलाल! हलाल की तोहमत लगवाना मोदी जी को हर्गिज मंजूर नहीं होगा। तभी तो वन इलेक्शन में, मोदी जी ने एक तत्व झटके का भी रखा है। वन नेशन की तुक वन  इलेक्शन से बखूबी मिलती तो है, पर वन  इलेक्शन में ज्यादा जोर वन पर ही है, इलेक्शन पर नहीं। बेशक, वन  इलेक्शन की इजाजत तो होगी, पर यह वन  इलेक्शन बार-बार यानी मिसाल के तौर पर हर पांच साल पर हो ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है। एक देश है, एक चुनाव है, एक सरकार है, बस। देश क्या हर पांच साल पर बदलता है? नहीं ना। तब हर पांच साल पर सरकार के लिए ही चुनाव कराए जाने की क्या जरूरत है? एक बार चुनाव हो गया तो हो गया। एक बार सरकार चुन गयी तो चुन गयी। यानी वन नेशन वन  इलेक्शन वह पुल है जिस से गुजर कर वन नेशन, नो  इलेक्शन तक पहुंचा जाना है। यह वह पुल है, जिसके एक ओर संविधान का हलाल किया जाना है और दूसरी ओर झटका। यह पुल, हलाल और झटके को जोड़ने वाला पुल है। यह पुल, संविधान, जनतंत्र, सब को बीच से तोड़ने वाला पुल है। यह पुल इसकी गारंटी का पुल है कि आज अगर संविधान को धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है, तो कल उसे झटके से तोड़ भी दिया जाएगा। हां! अगर पब्लिक  ही मोदी जी का खेल बिगाड़ने पर उतर आए, तो बात दूसरी होगी।   

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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