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एक राष्ट्र – एक चुनाव की संभावनायें और चुनौती

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अंकित पटैल

संविधान सभा की प्रारूप समिति के सामने निर्वाचन आयोग के गठन को लेकर दो विकल्प थे, निर्वाचन आयोग का गठन एक स्थायी संगठन के रूप में हो या चुनावों के पहले एक अस्थायी संगठन के तौर पर गठित किया जाये, और चुनाव संपन्न होने के बाद इसे भंग कर दिया जाये। लेकिन प्रारूप समिति ने राज्यों की विधानसभाओं के मध्यावधि चुनावों की संभवाना पर ध्यान केंद्रित किया और स्थायी निर्वाचन आयोग का गठन आवश्यक समझा।


एक साथ चुनाव कराने के वाजिब कारण:-

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में दो प्रमुख कारण हैं: पहला-  श्रम, समय और पैसे की बचत, दूसरा-  शासन संचालन के ठप्प पड़ने की समस्या का समाधान इन समाधानों पर विचार करने से पहले हमें एक साथ हुये चुनावों के इतिहास की और मुड़ना होगा।     संविधान लागू होने के बाद दो दशकों तक लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुये। इसमें अपवाद स्वरूप केरल, नागालैंड, पांडिचेरी शामिल हैं। वर्ष 1967 में गठित हुई चौथी लोकसभा 1971 में भंग कर दी गयी, और मध्यावधि चुनाव कराने पड़े, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की परंपरा टूट गयी। वर्ष 1975 में आपातकाल के दौरान लोकसभा का कार्यकाल विस्तार करने और 1977 में कई राज्यों को विधानसभाओं को भंग करने के बाद एक साथ चुनाव कराने का चक्र और भी गड़बड़ हो गया।वर्ष 1998 और 1999 में लोकसभा दो बार समय से पहले भंग हुई। 2019 के आम चुनावों के समय तक स्थिति यह बनी कि लोकसभा के चुनाव के साथ केवल चार राज्यों के चुनाव ही हो पाते हैं, और अब आलम यह हैं कि अब हर साल विधानसभा चुनावों में 2-3 राज्य उतरते हैं।


सदनों के कार्यकालों के बीच तालमेल :

 लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल आम तौर पर पांच साल का होता है। संविधान के अनुच्छेद 83 की धारा (2) में व्यवस्था है कि : लोकसभा अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से पांच वर्ष तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और पांच वर्ष की अवधि के बाद लोकसभा का विघटन होगा।  अनुच्छेद 172(1) में विधानसभाओं के बारे में भी इसी तरह के प्रावधान हैं। हालांकि ये उपरोक्त दोनों पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने से पहले भी भंग किये जा सकते है, (अनुच्छेद 85(2)(ख)) और 174 (2)(ख)), आपात स्थिति की घोषणा लागू होने को छोड़कर किसी भी अन्य स्थिति में पांच साल के कार्यकाल को बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं है। सभी सदनों के कार्यकालों में एक-दूसरे के साथ तालमेल बनाने के लिये यह जरूरी है कि कई राज्यों के सदनों का कार्यकाल बढ़ाया जाये या कुछ सदनों का कार्यकाल कम किया जाये। कार्यकालों का विस्तार और इसमें कटौती कुछ मामलों में तो दो से तीन साल तक की हो सकती है। कार्यकाल में इस तरह की कटौती या विस्तार करने लिये संविधान के ऊपर बताये गये अनुच्छेदों में संशोधन करने होंगे। अगर लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकालों में एक बार के लिए तालमेल बिठा भी दिया जाए तो भी हमें मध्यावधि में सदनों के भंग होने से बचने और एक साथ चुनाव कराने के चक्र को बनाये रखने के लिए आवश्यक प्रावधान करने होंगे। इसके लिये कुछ देशों ने संवैधानिक प्रावधान किये हैं, इन प्रावधानों में सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ ‘अविश्वास प्रस्ताव’ नहीं लाया जा सकता। बल्कि विपक्ष अपने नामजद नेता के नेतृत्व में बिना चुनाव कराये वैकल्पिक सरकार के पक्ष में विश्वास मत का रचनात्मक प्रस्ताव ला सकता है, इससे सदन के निश्चित कार्यकाल को बनाए रखने में मदद मिलेगी और सदन में गतिरोध की नौबत नहीं आयेगी जिसका एकमात्र परिणति चुनाव में होती है।(हालांकि ऐसा भारत में भी कई दफा देखने को मिला हैं, लेकिन कई बार सत्ता रूढ़ दल विपक्ष को सरकार बनाने से रोकने के लिये मध्यावधि चुनाव कराने की दिशा में जाते हैं)


आदर्श चुनाव आचार संहिता का प्रभाव –

निर्वाचन आयोग द्वारा दिये गये दिशा निर्देश या पाबंदियां लोकसभा चुनाव के समय केंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर होती हैं, जबकि विधानसभा चुनाव के समय सत्ता रूढ़ राज्य सरकार पर होती हैं, केंद्र सरकार लर लगने वाली पाबंदी उस राज्य से संबंधित योजनाओं की घोषणा को लेकर होती हैं।  इनका असर पहले से चल रही योजनाओं, कार्यक्रमों पर नहीं होता, अगर एक साथ चुनाव सम्पन्न होते हैं, तो आचार संहिता के प्रतिबंध एक साथ ही लग जायेंगे, शासकीय कार्य कम प्रभावित होगा।
बचत कैसे सम्भव -लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए मतदान केन्द्र और मतदाता सूचियां एक ही रहती हैं। इसके अतिरिक्त परिवहन, आवास, प्रशिक्षण, सामग्री, मानदेय आदि के खर्च में बचत की जा सकती हैं। राजनीतिक दलों के लिये भी चुनाव प्रचार के खर्च में बहुत बचत हो सकती हैं। रैलियों और विज्ञापनों में होने वाले खर्च को कम किया जा सकता हैं।


अतिरिक्त खर्च करने की तैयारी- 

 इस समय देश भर में 10 लाख से अधिक मतदान केंद्र बनाये जाते हैं, मतदाताओं की संख्या बढ़ने पर इनमें भी वृद्धि होती हैं। एक साथ चुनावों की स्थिति में 10 लाख से अधिक ईवीएम, वीवीपेट, कंट्रोल यूनिट आदि की आवश्यकता होगी, जिसमें 4500 करोड़ से अधिक रुपये खर्च करने होंगे।   ईवीएम मशीन का जीवन काल अनुमानित 15 साल माना जाता हैं, इतनी राशि एक साथ खर्च करने से 3 चुनाव सम्पन्न कराये जा सकेंगे।
देश भर में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ चुनावों से मतदाताओं की संख्या काफी बढ़ाई जा सकती है, क्योंकि पांच साल में एक बार चुनावों के आयोजन से सभी वर्गों के मतदाता बड़े उत्साहपूर्वक मतदान में हिस्सा लेंगे। एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर पहले भी चर्चाएं हुई हैं।एक चुनाव – एक देश के मुद्दे में व्यवहारिक चुनोतियों, दीर्घ कालीन लाभ और हानियों पर अभी और अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता हैं।

(लेखक सिविल सेवा प्रतियोगी परीक्षा से जुड़े हैं, और टेस्टपुर एप्प के साथ कई प्रतियोगी किताबों के लेखक हैं)

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