परंपरागत खेती-किसानी का अधिकांश कार्य महिलाओं पर निर्भर रहा है। वे खेत में बीज बोने से लेकर उनके संरक्षण, संवर्धन और भंडारण तक का काम बड़े जतन से करती हैं। पशुपालन से लेकर विविध तरह की हरी सब्जियां व फलदार वृक्ष लगाना व उनके परवरिश का काम करती हैं। जंगलों से फल-फूल, पत्ती के गुणों की पहचान करना व संग्रह करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही है। वे जैव विविधता की संरक्षक रही हैं। आज इस कॉलम में खेती में उनके योगदान को याद करना चाहूंगा, जिससे अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही खेती को समझा जा सके, बचाया जा सके।
बाबा मायाराम
मिट्टी की बड़ी कोठियों में, लकड़ी के पटाव पर, मिट्टी की हंडी में व ढोलकी में बीज रखे जाते थे। इसके अलावा, तूमा (लौकी की एक प्रजाति) बांस के खोल में बीजों का भंडारण किया जाता था। इसी प्रकार, बीजों को धूप में सुखा कर, कोठी या भंडारण के स्थान पर धुआं किया जाता था, जिससे पतंगे या घुन नहीं लगता। कीड़ों से बचाव के लिए लकड़ी या गोबर से जली राख या रेत भी बीजों में मिलाते हैं।
मैंने पिछले कुछ बरसों से देश भर में घूम-घूमकर खेती को नजदीक से देखा-समझा है। किसानों के खेतों में गया हूं और उनसे मिलकर खेती के बारे में जाना है। महिला किसानों से भी चर्चा की है। इस आधार पर खेती में उनके योगदान पर कुछ बातें कही जा सकती हैं।
कड़कड़ाती ठंड हो या मूसलाधार बारिश या फिर चिलचिलाती तेज धूप महिलाएं सभी परिस्थितियों में खेती का काम करती रही हैं। खेती के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, भोजन के लिए ईंधन जुटाना, खाना बनाना, मवेशियों को खेतों से घास लाना, खेतों में काम करने जाना और फिर खेत से आकर घर का काम करना आदि उनकी जिम्मेदारियों में शामिल है।
निंदाई-गुड़ाई के दौरान विजातीय पौधे और खरपतवार को फसल से अलग करना भी उनके काम का हिस्सा हुआ करता था। जब पौधों में फूल आ जाते हैं तब वे ऐसे विजातीय पौधों को आसानी से पहचान कर अलग कर देती थीं। कुछ फसलों में निंदाई-गुड़ाई तीन-चार बार करनी पड़ती थी। यह काम भी वे करती थीं। लेकिन अब नींदानाशक आने से उनकी भूमिका कम हो गई है।
इसके अलावा, बीजों के चयन में उनकी खास भूमिका होती थी। पहले खेतों में ही बीजों का चयन हो जाता था, इसमें देखा जाता था कि सबसे अच्छे स्वस्थ पौधे कि खेत में हैं। किस खेत के हिस्से में अच्छी बालियां हैं। वहां किसी तरह के कमजोर और रोगी पौधे नहीं होने चाहिए। अगर ऐसे पौधे फसलों के बीच होते थे तो उन्हें हटा दिया जाता था। फिर अच्छी बालियों को छांटकर उन्हें साफ कर और सुखा लिया जाता था। इसके बाद बीजों का भंडारण किया जाता था। इन सब कामों में महिलाओं की प्रमुख भूमिका होती थी।
बीज भंडारण, पारंपरिक खेती का एक अभिन्न हिस्सा है। अलग-अलग परिस्थिति और संस्कृति के अनुरूप किसानों ने बीजों की सुरक्षा के कई तरीके और विधियां विकसित की हैं। मक्का के बीज को घुन और खराब होने से बचाने के लिए चूल्हे के ऊपर छींके पर रखते हैं और सतपुड़ा अंचल में खुले में मक्के के भुट्टे को खंबे को छिलका समेत उल्टे लटका कर रखते हैं। छिलका बरसाती या छाते का काम करता है और बारिश का पानी भी उन्हें खराब नहीं कर पाता।
मिट्टी की बड़ी कोठियों में, लकड़ी के पटाव पर, मिट्टी की हंडी में व ढोलकी में बीज रखे जाते थे। इसके अलावा, तूमा (लौकी की एक प्रजाति) बांस के खोल में बीजों का भंडारण किया जाता था। इसी प्रकार, बीजों को धूप में सुखा कर, कोठी या भंडारण के स्थान पर धुआं किया जाता था, जिससे पतंगे या घुन नहीं लगता। कीड़ों से बचाव के लिए लकड़ी या गोबर से जली राख या रेत भी बीजों में मिलाते हैं।
बीज के अभाव में बीजों का आदान-प्रदान हुआ करता था। कई बार महिलाएं उनके मायके से ससुराल बीज ले आती थीं। और कुछ हद तक यह सिलसिला अब भी जारी है। खासतौर से सब्जियों के बीज की अदला-बदली रिश्तेदार और परिवारजनों में होना आम बात थी।
हाल ही में छत्तीसगढ़ में कुनकुरी के पास एक गांव में एक किसान से मिला था। उन्होंने बताया कि उनके पास मक्का व बरबटी का बीज उनके पुरखों के जमाने का है। यह देसी बीज वे पीढ़ियों से इस्तेमाल करते हैं। हर साल बोते हैं और बीज के लिए बचाकर रखते हैं। यानी बीज उनके पुरखों की विरासत भी है, और उसके साथ उसे बोने से लेकर भंडारण तक का परंपरागत ज्ञान भी उनके पास है।
धान रोपाई का काम तो महिलाएं करती हैं। जब वे रंग-बिरंगे कपड़ों में गीत गाते हुए धान रोपाई करती हैं तो देखते ही बनता है। इनमें कई स्कूली लड़कियां भी होती हैं। वे स्कूल में भी पढ़ती हैं और खेतों में भी काम करती हैं। लड़कियां कृषि में ज्ञान और कौशल सीखती हैं। सतपुड़ा अंचल में धान रोपाई को स्थानीय भाषा में लबोदा कहा जाता है।
पहले हर घर में सब्जी बाड़ी ( किचन गार्डन) हुआ करती थी, जिसे जैव विविधता का केन्द्र भी कहा जा सकता है। इसमें कई तरह की हरी सब्जियां, मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेमी (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोषण के स्रोत होते थे। इसमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न खाद की। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है। ये सभी काम महिलाएं ही करती थीं। हालांकि, अब भी कई इलाकों में सब्जी बाड़ी की जाती हैं।
सब्जी बाड़ी में अदरक, तुलसी, पुदीना, हल्दी जैसे औषधीय महत्व के पौधे भी होते थे, जो पारंपरिक चिकित्सा व नुस्खों में काम आते थे। इसके अलावा, जंगल में औषधीय पौधों, फलों व जड़ी-बूटियों की जानकारी भी महिलाओं को होती है। वे कई तरह के औषधीय पौधों के गुणधर्म जानती हैं, और कई छोटी-मोटी स्वास्थ्य समस्याओं का स्थानीय स्तर पर समाधान कर लेती हैं।
जंगल क्षेत्र में रहने वाले लोगों की आजीविका जंगल पर ही निर्भर है। खेत और जंगल से उन्हें काफी अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, जो पोषण के लिए नि:शुल्क और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। ये सभी चीजें उन्हें अपने परिवेश और आस-पास से मिल जाती है। जैसे बेर, जामुन, अचार, आंवला, महुआ, मकोई, सीताफल, आम, शहद और कई तरह के फल-फूल, जंगली कंद और हरी पत्तीदार भाजियां सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं। यानी खेती एक तरह की जीवन पद्धति है जिसमें जैव विविधता का संरक्षण होता है। मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण होता है और इन सबमें महिलाओं की भूमिका अहम है।
कुछ समय पहले मैं उत्तराखंड गया था, वहां अधिकांश गांवों के लोग रोजगार की तलाश में शहरों में पलायन कर गए हैं। वहां महिलाओं ने घर में बच्चों की परवरिश के साथ खेती की जिम्मेदारी भी संभाली। बल्कि खेती ही उनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत था, और बच्चों की परवरिश भी इसी कारण हो पा रही थी।
यहां अल्मोड़ा जिले में श्रमयोग संस्था ने महिलाओं को हल्दी की खेती के लिए प्रोत्साहित किया। सल्ट का क्षेत्र हल्दी व पीली मिर्ची के लिए प्रसिद्ध रहा है इसलिए यहां संस्था ने हल्दी, पीली मिर्च और अदरक की खेती पर जोर दिया। इसके अलावा, दालें, मसूर, उड़द, गहथ, भंगजीर, जख्या, काला भ_, धनजीरा की खेती भी की जाती है।
सब्जियों में ओगल, मूली, राई, धनिया, पालक, बैंगन, भिंडी, छिमी, कद्दू, चिचिंडा, बिन इत्यादि। श्रमयोग संस्था ने महिला किसानों के उत्पाद को उचित दाम मिले, यह सुनिश्चित किया है। हल्दी के अलावा, मंडुवा, दालें, जख्या, इत्यादि को वैकल्पिक बाजार से जोड़ा है। स्थानीय बाजार के अलावा दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, देहरादून जैसे महानगरों में श्रम उत्पाद बेचे जाते हैं और अच्छा लाभ भी कमाया। इससे परिवारों की आमदनी भी बढ़ी और महिलाओं में आत्मविश्वास भी आया।