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जनादेश की रक्षा के लिए कमर कसे विपक्ष और नागरिक

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लाल बहादुर सिंह

सांसदों पर सम्भावित पराजय का ठीकरा फोड़ना दरअसल मोदी को बचाने की कवायद है। सच्चाई यह है कि भाजपा ने पूरा चुनाव केवल और केवल मोदी के नाम पर लड़ा है। उनके तमाम सांसदों के खिलाफ तो एन्टी-इनकम्बेंसी है ही, लेकिन चुनाव अगर फंसा है तो इसका सबसे बड़ा कारण मोदी मैजिक और उनके हिंदुत्व के एजेंडा का पराभव है। युद्ध में सेना के हार की मुख्य जिम्मेदारी से सेनापति बच नहीं सकता।

यह चुनाव पूरी तरह मोदी ने अपने नाम पर लड़ा और अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी। उनके उम्मीदवार अपने लिए नहीं, मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर वोट मांग रहे थे। उससे बड़ी बात यह कि विपक्ष पर हमले में मोदी ने सरेआम तथ्यहीन झूठ और गलतबयानी का सहारा लिया और साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने और ध्रुवीकरण के लिए हेट स्पीच की सारी हदों को पार कर दिया। पूरा देश उनके अनर्गल, बेबुनियाद, नफरती बयानों को सुनकर स्तब्ध रह गया और शर्मसार हुआ। इन अर्थों में मोदी की नैतिक पराजय तो पहले ही हो चुकी है।

चुनाव प्रक्रिया में तमाम तरीक़ों से बड़े पैमाने पर धांधली की बात सामने आ रही है, लोग तरह-तरह की आशंकाओं से ग्रस्त हैं। क्या मोदी येन केन प्रकारेण अंततः बहुमत हासिल कर लेंगे। अथवा क्या वास्तविक जनादेश मोदी के खिलाफ आने जा रहा है? अगर ऐसा हुआ तो क्या विपक्ष इसकी रक्षा कर पायेगा?

कोई नहीं जानता कि भाजपा को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तब भी सत्ता हथियाने के लिए किन-किन संसदीय-गैर संसदीय तिकड़मों का इस्तेमाल किया जाएगा। इस बात को लेकर देश आश्वस्त नहीं हैं कि हार को मोदी और उनके भक्त सही तरीके से स्वीकार करेंगे और सत्ता का सहज ट्रांसफर हो पायेगा!

बहरहाल चुनाव का नतीजा जो भी हो, जनता का जो भाव दिख रहा है, भाजपा की सीटों और मत में भारी गिरावट होना तय है, अगर ईवीएम का कोई बड़ा खेल न हुआ। मोदी ने इस चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी है और ध्रुवीकरण की सारी हदें पार कर दीं, लेकिन जनता ने इन्हें नकार दिया है। चुनाव के नतीजे जो भी हों, यह साफ है कि मोदी मैजिक और हिंदुत्व का किला ढह रहा है।

यह देखना रोचक है और इस पर लंबे समय तक अध्ययन होता रहेगा कि जिस  अयोध्या मन्दिर कार्यक्रम को संघ भाजपा ने इस चुनाव में अपनी जीत का अमोघ मन्त्र बनाना चाहा था, जिसे 2019 के पुलवामा-बालाकोट जैसा इस चुनाव का ट्रम्प कार्ड माना जा रहा था,  वह देखतें देखते फुस्स हो गया, और संविधान की रक्षा इस चुनाव का सबसे बड़ा युद्ध घोष बन गया।

दरअसल एक के बाद दूसरे मुस्लिमद्वेषी कदमों- सीएए, एनआरसी, यूसीसी, धारा 370, मन्दिर-निर्माण, बुलडोज़र न्याय आदि -द्वारा नफरती माहौल बनाते हुए तथा पिछड़ों, दलितों, अदिवासियों के बीच सटीक सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से संघ-भाजपा पिछले 10 साल में हिंदुत्व की छतरी के नीचे एक व्यापक सामाजिक आधार का निर्माण करने में सफल हो गए थे, सवर्ण समुदाय तथा शहरी मध्यवर्ग तो उनका कोर समर्थक था ही।

लेकिन इस दौर में जिस तरह बेरोजगारी और महंगाई का संकट भयावह ढंग से बढ़ा है, उसने पूरे समाज में सरकार के विरुद्ध नाराजगी पैदा की। समाज के हाशिये के तबकों पर इसकी दुहरी मार पड़ी। अंधाधुंध निजीकरण और सरकारी नौकरिया खत्म होने से उनका आरक्षण भी खत्म होता गया। तरह-तरह की तिकड़मों के माध्यम से  शिक्षण संस्थानों समेत तमाम संस्थाओं में उन्हें आरक्षण से वंचित किया गया। सबसे बढ़कर यह कि जल्द ही वंचित तबकों के लोगों को यह समझ मे आता गया कि हिंदुत्व राष्ट्रवाद दरअसल सवर्ण एवम कारपोरेट वर्चस्व का राज है। समाज में तथा राज्य मशीनरी में ब्राह्मणवादी-सामंती वर्चस्व की ताकतों का बोलबाला होता गया, जिसके निशाने पर मुस्लिम ही नहीं, वंचित हिन्दू भी थे।

इस तरह हिंदुत्व की छतरी के नीचे मौजूद दलितों, ओबीसी आदि का मोदी राज से अलगाव शुरू हुआ। विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाया और जाति जनगणना तथा आरक्षण की सीमा खत्म करने की मांग कर और बिहार में इसे लागू कर इस अलगाव को और तीखा कर दिया। जाहिर है सवर्ण समर्थन पर खड़ी भाजपा के लिए यह catch 22 की स्थिति थी। वह उसे न निगल सकती थी, न उगल सकती थी।

चुनाव नजदीक आने पर जब मोदी ने 400 पार का नारा दिया और उनके कई नेताओं ने इसे जरूरी बताया ताकि संविधान बदला जा सके, तब वंचित तबकों के बुद्धजीवियों के कान खड़े हो गए। उन्हें तो पहले से ही यह अंदेशा था कि यह सवर्ण वर्चस्व की सरकार है और आरक्षण को खत्म करना चाहती है।

जाहिर है संविधान बदलने की चाहत भले ही हिन्दू राष्ट्र निर्माण के वृहत्तर उद्देश्यों से प्रेरित हो-जिसके अनेक प्रतिक्रियावादी परिणाम होंगे, परन्तु तात्कालिक तौर पर वह आरक्षण के खात्मे से जुड़ गई है और यह बात उन समुदायों के पढ़े लिखे हिस्सों से होते हुए अब उनके अंतिम पायदान तक पहुंच गई है।

यही वह क्षण था जब विपक्ष ने इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया कि सरकार संविधान बदलना चाहती है ताकि आरक्षण को खत्म किया जा सके। राहुल गांधी और इंडिया गठबन्धन ने संविधान की रक्षा और सामाजिक न्याय के विस्तार को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपने पक्ष में ओबीसी, दलित समुदाय के जबर्दस्त assertion को सम्भव बना दिया। मोदी जो स्वयं को चाय वाला और ओबीसी बताते रहे हैं, उनके पास इसका कोई काट नहीं थी।

इसका पूरे देश में वंचित तबकों में resonance हुआ और यह सवाल सबसे ऊपर उभर कर आ गया। बाबा साहब के बनाये जिस संविधान से दलित, वंचितों को नागरिक अधिकार, आरक्षण-नौकरी और सम्मान का जीवन मिला था, उस संविधान की रक्षा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया।

डॉ. आंबेडकर जीवन के अंतिम दिनों में पढ़े लिखे दलितों की भूमिका को लेकर दुःखी थे। वे कहते थे कि उन्होंने उनके मिशन को धोखा दिया। उनसे जो अपेक्षाएं थीं उसे उन्होंने पूरा नहीं किया। लेकिन इस चुनाव में दलित बुद्धिजीवियों, पढ़े-लिखे तबकों ने संविधान और लोकतंत्र को बचाने में जो भूमिका निभाई है उस पर वे होते तो निश्चय ही आज उन्हें गर्व होता। डॉ आंबेडकर ने चेतावनी दिया था कि हिन्दू राष्ट्र अगर कभी अस्तित्व में आया तो वह सबसे बड़ी विपदा साबित होगा। आज भारत मे जो de facto हिन्दू राष्ट्र कायम है और चुनाव में यदि संघ सफल हुआ तो de jure हिन्दुराष्ट्र बन जाने का जो खतरा है उसे देश के वंचित तबकों ने पहचान लिया है। जाहिर है यह हिंदू राष्ट्र बाबा साहेब के बनाये संविधान की कब्र पर ही तामीर होगा। इसीलिए आज वंचित तबके उस संविधान की रक्षा के लिए उठ खडे हुए हैं। न सिर्फ उनके पढ़े लिखे आगे बढ़े हिस्से, बल्कि ग्रामीण खेत मजदूर, गरीब किसान भी इस मुहिम में साथ हैं। और इसके लिये उनके बड़े हिस्से ने अपनी परम्परागत पार्टी बसपा को भी इस बार छोड़ दिया है।

वंचित तबकों के इंडिया गठबन्धन के पक्ष में इस अप्रत्याशित झुकाव ने संघ-भाजपा का सारा खेल बिगाड़ दिया है। बहरहाल यह कोई पुराने तरह का मंडल बनाम कमंडल का चुनाव नहीं है। विपक्ष के लोककल्याण के सर्वसमावेशी वायदों ने सभी तबकों के युवाओं, महिलाओं, किसानों, मेहनतकशों को आकर्षित किया है। लोकप्रिय जनादेश विपक्ष की ओर झुकता जा रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि विपक्ष तथा नागरिक समाज कमर कस कर खड़ा हो और जनादेश की रक्षा करे। देश बदलाव चाहता है।

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