*(आलेख : सुभाष गाताडे, अनुवाद : संजय पराते)*
राजनीति एक अजीब दास्तान है।यह अविश्वसनीय लगता है कि कैसे कभी-कभी यह शैतानों को संतों में बदल देती है और असहाय समुदायों के सबसे बड़े हत्यारे ‘अपने लोगों’ के रक्षक या ‘दिल की धड़कन’ के रूप में उभर आते हैं।
शायद यह इस विचित्रता का संकेत है कि डोनाल्ड ट्रम्प के हैती के अप्रवासियों को निशाना बनाने वाले तीखे भाषण — कि वे पालतू जानवरों को खाते हैं — अमेरिकी आबादी के एक बड़े हिस्से को अविश्वसनीय नहीं लगे, जो रिकॉर्ड के अनुसार 79% साक्षर है। अंततः, हैती के अप्रवासी समूहों को खुद ही अपने खिलाफ वर्षों से जारी “नस्ली दुश्मनी” को बेनकाब करने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
यह दिलचस्प है कि जहां दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र पालतू जानवरों को लेकर एक मनगढ़ंत विवाद में फंसा है, वहीं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारतीय उपमहाद्वीप की एक गोलाकार मिठाई — लड्डू को लेकर एक और मनगढ़ंत विवाद का सामना कर रहा है। नरम हिंदुत्व की राजनीति में ‘नए धर्मान्तरित’ लोगों के दखल के लिए धन्यवाद!
वास्तव में एक सुबह/शाम को तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने एक बहुत प्रसिद्ध मंदिर, तिरुपति मंदिर के भक्तों को वहां परोसे जाने वाले लड्डुओं की गुणवत्ता के बारे में निराधार दावा करके चौंका दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि उनमें जानवरों की चर्बी मौजूद है।
इस मुद्दे को उठाने के पीछे की मंशा — यहां तक कि इसकी जांच का आदेश दिए बिना — सभी के लिए स्पष्ट थी। नायडू सर्वोच्चतावादी (सांप्रदायिक) ताकतों के साथ अपने मधुर संबंधों (या केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को उनके समर्थन) के बावजूद अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को आगे बढ़ाते रहे हैं। वे अपने पूर्ववर्ती जगन रेड्डी, जो जन्म से ईसाई हैं और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के नेता तथा राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं, को न केवल निशाना बनाना चाहते थे, बल्कि मतदाताओं को यह संदेश भी देना चाहते थे कि अगर समय आया, तो वे भाजपा से भी ‘बड़े हिंदू’ साबित हो सकते हैं, क्योंकि वे ‘बहुसंख्यक समुदाय की चिंताओं’ के प्रति समान रूप से संवेदनशील हैं।
इस लड्डू विवाद में नायडू की धर्मनिरपेक्ष छवि को जन सेना पार्टी के उनके उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने अपने काम से मटियामेट कर दिया। जुलाई माह की किसी रिपोर्ट की चुनिंदा सामग्री को सितम्बर में साझा करते हुए जहां नायडू ने लड्डू में पशुओं की चर्बी की मौजूदगी के बारे में निराधार दावे किए, वहीं कल्याण एक कदम आगे निकल गए। उन्होंने यह सिद्धांत पेश किया कि भारत में हिन्दुओं आस्था खतरे में है और सनातन धर्म रक्षा बोर्ड के गठन का समय आ गया है।
जब हम ये पंक्तियाँ लिख रहे हैं, ऐसी खबरें हैं कि कल्याण, जिन्होंने कभी चे ग्वेरा की प्रशंसा की थी और गर्व से अपना लाल दुपट्टा दिखाया था, अपना भगवा दुपट्टा लेकर वाराही यात्रा पर आंध्र प्रदेश के दौरे में व्यस्त हैं।
इस बात पर जोर देना जरूरी है कि सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल को बिगाड़ने की इन सभी कोशिशों को देश की सर्वोच्च अदालत ने कड़ी फटकार लगाई है, जिसने नायडू से कहा है कि ‘ईश्वर को राजनीति से दूर रखें’।
‘धर्मनिरपेक्ष’ नायडू और पवन कल्याण, जो कभी वामपंथी दलों/संगठनों के साथ मिलकर काम करते थे, का हिंदुत्व की नरम राजनीति को बढ़ावा देने वाले के रूप में रूपांतरण अब किसी से छिपा नहीं है।
दक्षिण एशिया के इस हिस्से में नरम हिंदुत्व की राजनीति के प्रति बढ़ते आकर्षण में कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
केंद्र और कई राज्यों में हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के उदय के साथ, खुद को नरम हिंदुत्व के समर्थक रूप में पेश करने की यह घटना विपक्षी खेमे के कई लोगों को आकर्षक लग रही है।
हिमाचल प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह के बेटे और वर्तमान में कांग्रेस राज्यसरकार में मंत्री विक्रमादित्य सिंह द्वारा हाल ही में राज्य में विक्रेताओं से उनके नाम प्रदर्शित करने के लिए कहने का प्रयास, भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में किए गए प्रयोग की तरह ही, इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। बाद में जब पार्टी हाईकमान ने हस्तक्षेप किया, तो उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि यह सब मीडिया द्वारा रचा गया है और वे पार्टी के एक वफादार सिपाही हैं।
साथ ही, याद करें कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमल नाथ ने भी भाजपा को हाशिए पर धकेलने के नाम पर इसी तरह की घटिया नौटंकी की थी। यह अलग बात है कि उनकी सार्वजनिक धार्मिकता या देवताओं की मूर्तियाँ बनवाने या यहाँ तक कि कांग्रेस कार्यालयों में हिंदू देवताओं की पूजा को बढ़ावा देने से पार्टी को कोई खास मदद नहीं मिली। यह उस साल राज्य चुनावों में पार्टी का सबसे खराब प्रदर्शन था।
यह स्पष्ट था कि नाथ ने कांग्रेस पार्टी में उनके सहयोगी, शशि थरूर की सलाह पर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई, जिन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि नरम हिंदुत्व का कोई भी प्रयास कांग्रेस को ‘जीरो कांग्रेस’ की ओर ले जाएगा और उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा और विस्तार की आवश्यकता पर बल दिया था।
हिंदुत्व की राजनीति के प्रति यह आकर्षण समझ में आता है। धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी कई बार जन दबाव में इसका शिकार होती नजर आती हैं।
दिलचस्प बात यह है कि मई 2024 में 18वीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनाव से ठीक पहले ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस भी धीरे-धीरे हिंदू हितों के आगे झुकती नजर आई।
उल्लेखनीय है कि जनवरी, 2024 में ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने राम मंदिर के उद्घाटन को एक ‘राजनीतिक स्टंट’ करार दिया था, 22 जनवरी 2024 को अवकाश घोषित करने से इनकार कर दिया था और कोलकाता तथा बंगाल के बाकी हिस्सों में सर्वधर्म रैलियां आयोजित की थीं।
केंद्र में हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के उदय के बाद से धर्मनिरपेक्ष दल भी अल्पकालिक चुनावी लाभ के लिए जन दबाव में इसके शिकार होते दिख रहे हैं।
तीन महीने बाद, ऐसा प्रतीत हुआ कि बनर्जी ने अपना रुख नरम कर लिया है और भाजपा की आलोचना को कम करने के लिए — जिसने हिंदू त्योहारों पर सार्वजनिक अवकाश घोषित न करने और शब-ए-बारात जैसे मुस्लिम उत्सवों के लिए सार्वजनिक अवकाश घोषित करने के लिए उनकी सरकार को घेरने की कोशिश की थी — अचानक राम नवमी (17 अप्रैल) को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया।
इस नरम हिंदुत्व के प्रयोग में शामिल ये सभी नए खिलाड़ी शायद खुद को भारतीय राजनीति का चतुर खिलाड़ी मानते हैं, जो कथित तौर पर अपनी पहचान बनाए रखने में सक्षम हैं, इसके बावजूद इस क्षेत्र में अपने पदचिह्नों का विस्तार करते हुए इस तथ्य को भूल जाते हैं कि धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और मूल्यों की रक्षा न करके और अपने तरीके से हिंदुत्व की राजनीति की नकल करने की कोशिश करके, वे मूल रूप से हिंदुत्व की परियोजना को ही आगे बढ़ा रहे हैं और मजबूत कर रहे हैं।
उनकी सभी तथाकथित चतुर चालें भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की भगवा परियोजना की गतिशीलता को और तेज़ कर रही हैं।
एक प्रमुख सार्वजनिक बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने कुछ समय पहले इस एजेंडे को इन शब्दों में समझाया था : “चुनाव आते-जाते रहेंगे। लेकिन भाजपा अपनी सफलता को दीर्घकालिक सांस्कृतिक परिवर्तन से मापेगी। इस सांस्कृतिक परिवर्तन का लक्ष्य दोहरा है। हिंदू बहुसंख्यकवाद को स्थापित करना इसका लक्ष्य है। लेकिन इसका एक उद्देश्य हिंदू धर्म की विभिन्न धार्मिक प्रथाओं को एक समेकित जातीय पहचान में बदलना भी है।”
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली आम आदमी पार्टी (आप), जो इस समय देश के दो राज्यों में सत्ता में है और शेष भारत में अपनी पैठ बढ़ाने को आतुर है, ने इस तरह की राजनीति को अपनाने में एक दुर्लभ सिद्धि हासिल कर ली है। यह अलग बात है कि वह विश्लेषकों/विद्वानों के एक वर्ग को यह समझाने में सफल रही है कि चुनावों में उसकी जीत नफरत की राजनीति को खारिज करने का नतीजा है।
उदाहरण के लिए, अयोध्या में राम मंदिर के अभिषेक समारोह पर नज़र डालें और इस समारोह के दौरान आप ने क्या किया। कांग्रेस ने इस समारोह को एक “राजनीतिक कार्यक्रम” करार दिया और निमंत्रण मिलने के बावजूद, इसके शीर्ष नेता इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। रिपोर्ट के अनुसार, आप ने इस अवसर को मनाने के लिए दिल्ली के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में ‘शोभा यात्रा’ निकालने और सामुदायिक रसोई (भंडारा) और ‘सुंदरकांड’ का पाठ आयोजित करने का फैसला किया।
जो बात ध्यान देने लायक है, वह यह है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं को ध्यान में रखकर यह काम करना आप की एक दशक पुरानी राजनीति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।
इसी तरह केजरीवाल के चुनाव लड़ने के पहले प्रयास को भी देखा जा सकता है।
2014 में जब चुनावी जंग शुरू हुई, तो आप ने गुजरात में अल्पसंख्यक समुदाय से एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा, जबकि राज्य में मुस्लिमों की आबादी 9% से ज़्यादा है। आप के राज्य नेतृत्व के अनुसार, उसे चुनाव लड़ने के लिए “समुदाय से कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिला”। जाने-माने लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने लिखा था कि इस तरह आप ने मुख्यधारा की पार्टियों द्वारा मुस्लिमों को टिकट न दिए जाने’ के प्रचलित नियम को चुनौती नहीं दी। (मोदी की राह चले केजरीवाल, देशबंधु, 30 अप्रैल, 2014)।
शायद यह 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की जीत — एक तरह की हैट्रिक — पर फिर से गौर करने का मौक़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा चुनाव हार गई थी, लेकिन पिछले चुनाव (2015) के बाद से उसके पक्ष में लगभग 8% – – यह कोई छोटी संख्या नहीं है — वोटों का उछाल भी देखा गया था। इसके वोट शेयर में यह उछाल निश्चित रूप से दिल्ली के इतिहास में भाजपा द्वारा चलाए गए सबसे ‘जहरीले प्रचार’ का नतीजा था।
अतीत को खंगालने से यह याद आता है कि इससे पहले कभी भी संविधान की शपथ लेने वाले कैबिनेट मंत्रियों द्वारा या भाजपा नेताओं द्वारा सार्वजनिक बैठकों में या रैलियों में ‘दूसरों’ के खिलाफ हिंसा करने के लिए सीधे उकसावे को नहीं देखा गया था। इससे पहले कभी भी संसद के निर्वाचित सदस्यों को किसी समुदाय को कलंकित करते हुए और खुले तौर पर सांप्रदायिक बयानबाजी करके बहुसंख्यकों की भावनाओं को भड़काते हुए नहीं देखा गया था।
भाजपा नेताओं के नफरत भरे भाषण सार्वजनिक तौर पर देखे जा सकते हैं, लेकिन आज जमीनी स्तर पर ‘दूसरों’ को निशाना बनाकर बड़े पैमाने पर कहीं अधिक घटिया और जहरीली बयानबाजी, और अधिक संगठित और योजनाबद्ध तरीके से की जा रही है। तर्क बस इतना है कि ‘हिंदू खतरे में हैं’ (यह मत पूछिए कि कैसे और क्यों, जबकि देश में उनकी आबादी 85% है) और अगर वे एकजुट होकर काम नहीं करेंगे तो ‘दूसरे लोग कब्जा कर लेंगे’।
इस उभरते परिदृश्य में, किसी भी राजनीतिक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि वह, जिसके पास लोगों पर शासन करने के लिए साधन और अनुभव हो, तथा जो सांप्रदायिक विश्वदृष्टिकोण को स्वीकार न करता हो, घृणा फैलाने वालों केस मुकाबला करे तथा यह सुनिश्चित करे कि देश के कानून का प्रयोग उनके विरुद्ध किया जा सके।
लेकिन, यह देखा गया है कि आप ने इन बहसों में शामिल न होने का फैसला किया है और ऐसा करके इस उभरते खतरे का मुकाबला करने में वह बुरी तरह विफल रही है। इसने चुप रहना और केवल अपने ‘काम’ पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति बनाई है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि राजनीति का मतलब किसी भी कीमत पर वोट बटोरना और देश में चल रही बहसों/विवादों से खुद को अलग रखना मात्र रह गया है, तो यह निश्चित रूप से आप द्वारा उठाया गया एक चतुर कदम था, लेकिन जब संविधान की पूरी इमारत सवालों के घेरे में हो और उसे धीरे-धीरे खत्म करने का सचेत प्रयास किया जा रहा हो, तो चुप रहना या चल रही बहस से खुद को अलग रखना अत्यधिक संदिग्ध है।
इससे भी ज़्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि केजरीवाल ने लंबे समय तक शाहीन बाग़ (नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़) पर कोई रुख़ नहीं अपनाया। जब उन्होंने खुद को बहस में घिरा पाया, तभी उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह की सड़क — जहां धरना प्रदर्शन हो रहा था — खाली कराने में असमर्थता पर सवाल उठाया और यहां तक कहा कि “अगर दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में होती, तो वह दो घंटे में शाहीन बाग़ रोड खोल देती।” इस तरह, अनजाने में आप नेता ने उस बहुसंख्यकवादी भावना को बढ़ावा दिया था, जो सामाजिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है।
चुनावों से कुछ दिन पहले केजरीवाल का अचानक हनुमान भक्त बन जाना — हनुमान चालीसा का पाठ करना और प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में जाना — मूलतः इसी प्रकार की भावनाओं को संतुष्ट करने का एक और कदम था।
सवाल यह है कि क्या बहुसंख्यकों की भावनाओं के प्रति केजरीवाल की बढ़ती चिंताएं (जिसे उनकी खुशामद भी कहा जा सकता है) कोई नई घटना थी या फिर वह हमेशा से इसके प्रति सचेत थे?
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए केजरीवाल के समर्थन का मामला लें, या मई 2019 के संसद चुनाव से कुछ महीने पहले के उनके दावों को लें, जब उन्होंने ऐसे बयान दिए जिन्हें ‘ध्रुवीकरण’ के रूप में देखा गया! कोई भी याद कर सकता है कि जब कांग्रेस के साथ गठबंधन की आप की संभावनाएं आखिरकार खत्म हो गईं, तो उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया था कि “हमारे सर्वेक्षण के अनुसार, कोई भी हिंदू वैसे भी कांग्रेस को वोट नहीं देगा। मुसलमान शुरू में भ्रमित थे, लेकिन अब वे हमें वोट देंगे।” सर्वेक्षण का कोई विवरण कभी नहीं दिया गया, और दावे को स्पष्ट रूप से एक बयान के रूप में समझा गया, जिसका उद्देश्य धार्मिक आधार पर मतदाताओं को ‘ध्रुवीकृत’ करना था।
विश्लेषकों ने इन चुनावों के बाद केजरीवाल को हिंदू के रूप में अपनी पहचान को मजबूत करने के लिए एक “स्पष्ट प्रयास” करते हुए भी देखा था।
केजरीवाल के नेतृत्व में, आप ने चुनाव जीते, लेकिन जैसा कि पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने सही ढंग से रेखांकित किया, “जो कोई भी कहता है कि दिल्ली के परिणाम कट्टरता पर लगाम लगाते हैं, वह भ्रम में है।”
शायद इस बारे में बात की जा सकती है कि क्यों और कैसे नरम हिंदुत्व विपक्ष में कई लोगों के लिए ‘कूल चीज़’ बन रही है और कैसे इस तरह की राजनीति को अप्रभावी बनाया जाए और देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मजबूत और गहरा किया जाए। अब समय आ गया है कि ऐसे नेता समझें कि निकट भविष्य में शेर की सवारी करना (शायद एक रूपक में) हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन शेर तो शेर ही होता है और ऐसी यात्राएं हमेशा अल्पकालिक ही होती हैं।
*(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। संपर्क : 97118- 94180 ; अनुवादक अ. भा. किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*