मुकेश असीम
आज फिर अखबार बता रहा है कि पेट्रोल डीजल में सरकारी तेल कंपनियों को भारी घाटा हो रहा है और डीजल की कीमतों में 30 रु प्रति लीटर व पेट्रोल में 10 रु लीटर की बढोत्तरी करनी जरूरी है नहीं तो श्रीलंका जैसी स्थिति होने का खतरा है।
एक तरफ खुद सरकार 60 से 70 रु लीटर टैक्स वसूल ले रही है, उधर सरकारी कंपनी घाटा बता रही है। वैसे भी घाटे का हिसाब इन कंपनियों की वास्तविक लागत को नहीं, अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों को बनाया जा रहा है अर्थात सरकारी कंपनियों के अनुसार उन्हें उनकी खरीद कीमत व लागत के आधार पर घाटा नहीं है, पर अमरीका यूरोप में डीजल बेचने से जितना लाभ होता, उसकी तुलना में ‘घाटा’ है! दुनिया की सबसे बड़ी रिफाइनरी चलाने वाली रिलायंस तो अपनी रिफाइनरी का डीजल भारत में सप्लाई करना बंद कर चुकी है, सारा का सारा निर्यात कर रही है।
अर्थात एक तरफ जनता को धमकाया जा रहा है कि कीमतें बढने का विरोध मत करो, मस्जिद पर हमले में, किसी दलित को घोडी चढने से रोकने में, स्वतंत्र मिजाज स्त्रियों को बलात्कार की धमकियां देने में मस्त रहो, नहीं तो श्रीलंका हो जायेगा, वहीं अंबानी आराम से डीजल निर्यात कर रहा है। अगर राष्ट्र की ही बात करें तो यहां राष्ट्र का असली शत्रु कौन है? किसी खास धर्म जाति के आम लोग या ये कॉर्पोरेट सरमायेदार?
अगर डीजल की कमी और उसकी कीमतें बढने का खतरा है तो गेहूं की तरह उसके निर्यात पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकती? रिलायंस की रिफाइनरी का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं किया जा सकता? सरकार टैक्स को आधा क्यों नहीं कर सकती? सेंट्रल विस्टा बंद कर दो पैसा कम है तो। केन बेतवा नदी लिंक पर पचास हजार करोड़ का विनाशकारी खर्च बंद कर दो, जिसने दोनों नदियों को सैंकड़ों किलोमीटर तक सुखा दिया है। पर नहीं, क्योंकि पूरी व्यवस्था पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए है। मेहनत करने वाले संकट में हों, खाने के लाले पड़ जायें, दवा तक न मिले, सब चलेगा, पर ऐसे प्रोजेक्ट में अनुत्पादक खर्च अर्थात पूंजीपतियों को दौलत का ट्रांसफर कैसे बंद होगा? उसके लिए तो इस व्यवस्था को ही बदल देना पडेगा।
*मुकेश असीम*