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 अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति-निर्माताओं को गंभीर चेतावनी देती है ऑक्सफैम की रिपोर्ट

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आनंद प्रधान

यह पीआर, इवेंट मैनेजमेंट और स्पिन डॉक्टरों का दौर है। जहां आधे भरे गिलास को भी पूरा भरा बताने और उसका जश्न मनाने का ऐसा ट्रेंड चल पड़ा है कि आधे खाली गिलास का जिक्र भी किसी कुफ्र से कम नहीं। लेकिन छुपाने की लाख कोशिशों के बावजूद आधे खाली गिलास की कड़वी सचाई गाहे-बगाहे सामने आ ही जाती है। इस मायने में अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ऑक्सफैम की इस सप्ताह जारी रिपोर्ट न सिर्फ आधे खाली गिलास की सचाई सामने लाती है बल्कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति-निर्माताओं को गंभीर चेतावनी भी देती है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी बेकाबू हो रही है।

गैर-बराबरी की रफ्तार

ऑक्सफैम की रिपोर्ट भारतीय अर्थव्यवस्था के ब्रिटेन को पीछे छोड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के जश्न या अगले कुछ वर्षों में 5 और 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के दावों के बीच सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के स्पिन के लिए रियलिटी चेक की तरह है। रिपोर्ट के कई तथ्य भारत में तेजी से बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी की ओर इशारा करते हैं:

  • देश में 2020 की तुलना में 2022 में अरबपतियों की संख्या 100 से बढ़कर 166 हो गई। देश के 100 सबसे अमीर अरबपतियों की कुल संपत्ति 54.12 लाख करोड़ पहुंच गई है। उनमें भी 10 सबसे अमीर अरबपतियों की कुल संपत्ति बढ़कर 27.52 लाख करोड़ हो गई है, जो वर्ष 2021 की तुलना में लगभग 33 फीसदी की बढ़ोतरी है।
  • दूसरी ओर, आबादी के निचले 50 फीसदी लोगों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी घटकर 13 फीसदी हो गई है। यही नहीं, कुल संपत्ति में उनका हिस्सा मात्र 3 फीसदी रह गया है।
  • देश की आबादी के ऊपरी 30 फीसदी का देश की कुल संपत्ति में हिस्सा बढ़कर 90 फीसदी तक पहुंच गया है। इसमें भी सबसे ऊपरी 10 फीसदी अमीरों का कुल संपत्ति में 80 फीसदी, सबसे अमीर 5 फीसदी का कुल संपत्ति के 62 फीसदी और सुपर अमीर एक फीसदी का कुल संपत्ति के 40 फीसदी से अधिक पर कब्जा है।
  • यानी देश की निचली 50 फीसदी आबादी की तुलना में एक फीसदी सुपर अमीरों की राष्ट्रीय संपत्ति में हिस्सेदारी 13 गुना से भी अधिक है।

हालांकि देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी और उससे गहराई से जुड़ी सामाजिक विषमता की यह कहानी नई नहीं है। लेकिन पिछले एक दशक खासकर महामारी के पिछले ढाई सालों में गैर-बराबरी के ये आंकड़े और ज्यादा तीखे और चुभनेवाले हो गए हैं। अब इसे और अनदेखा करना मुश्किल है। इसे यह कहकर टाला नहीं जा सकता कि समृद्धि की ऊंची उठती लहरों के साथ सभी नावें ऊपर उठ जाती हैं।

टैक्स स्ट्रक्चर बदले

यह स्पष्ट होता जा रहा है कि बढ़ती गैर-बराबरी के लिए वे आर्थिक नीतियां ज़िम्मेदार हैं, जिनके तहत टैक्स नीति की दिशा लगातार प्रतिगामी होती गई है।

  • पिछले वर्षों में कंपनियों और अमीरों पर लगने वाले कॉरपोरेट और इनकम टैक्स में लगातार कटौती की गई है, उन्हें टैक्सों में कई तरह की छूट और प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं। संपत्ति कर को भी खत्म कर दिया गया।
  • इसी बीच अप्रत्यक्ष करों जैसे जीएसटी और एक्साइज आदि का बोझ बढ़ता गया है।
  • हालत यह है कि आबादी का निचला 50 फीसदी हिस्सा ऊपरी 10 फीसदी की तुलना में 6 गुना ज्यादा अप्रत्यक्ष कर चुकाता है।
  • देश में कुल जीएसटी वसूली का दो तिहाई से कुछ ज्यादा आबादी के निचले 50 फीसदी हिस्से से वसूला जाता है, जबकि ऊपरी 10 फीसदी हिस्से से कुल जीएसटी का 3 से 4 फीसदी ही आता है। बाकी एक तिहाई जीएसटी आबादी के बीच के 40 फीसदी हिस्से से आती है।

साफ है कि बेकाबू आर्थिक गैर-बराबरी न तो दैवीय कारणों का नतीजा है और न ही किसी स्वाभाविक आर्थिक प्रक्रिया का परिणाम। बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी से निपटने के लिए उन आर्थिक नीतियों की दिशा बदलने की जरूरत है, जिनमें अमीर तो सुपर अमीर हो रहे हैं, लेकिन गरीब और गरीब। इसके लिए टैक्स नीतियों को प्रगतिशील बनाने की जरूरत है। जो जितना अमीर हो, उस पर टैक्स का बोझ उतना ज्यादा होना चाहिए। इसके लिए प्रत्यक्ष करों की दरों को बढ़ाने की जरूरत है। देश में सुपर अमीरों और डॉलर अरबपतियों पर दुनिया के कई विकसित देशों की तरह 40 से 45 फीसदी तक की दर से इनकम और कॉरपोरेट टैक्स लगाने के अलावा संपत्ति कर और उत्तराधिकार टैक्स लगाने का समय आ गया है।

मांग पर असर

सवाल यह है कि जल्दी ही अगला बजट पेश करने जा रहीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस दिशा में कदम बढ़ाएंगी? ध्यान रहे, यह सिर्फ ऑक्सफैम की मांग नहीं है। इसे आज कई नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों, यहां तक कि जॉर्ज सोरोस जैसे कई सुपर अमीरों का समर्थन भी हासिल है। वैश्विक स्तर पर धीरे-धीरे यह आम राय बन रही है कि बढ़ती गैर-बराबरी से निपटने के लिए सुपर अमीरों को ज्यादा टैक्स देना चाहिए। इसकी वजह यह भी है कि बढ़ती गैर-बराबरी ने न सिर्फ मांग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करके अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि की रफ्तार को सुस्त दिया है बल्कि जनमत को नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर भूमंडलीकरण के खिलाफ खड़ा कर दिया है। यही नहीं, बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी के बीच सुपर अमीरों और अरबपति कॉरपोरेट्स की राजनीतिक ताकत में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। महंगे होते चुनावों के बीच राजनीतिक पार्टियां उनके कब्जे में आ चुकी हैं। यह लोकतंत्र के लिए भी खतरे की घंटी है।

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