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पाकिस्तान,बांग्लादेश और भारत: लोकतंत्र की पोशाक में निरंकुश सत्ताएं? 

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“ न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।” ( दुष्यंत)

किसी भी देश में  सत्ता के केन्द्रीकरण व  समाज के ध्रुवीकरण से तानाशाही, वर्चस्ववाद,बहुसंख्यकवाद और सैन्यवाद की प्रवृत्तियां उभरने लगती हैं और लोकतंत्र भीतर से जर्जर होने लगता है। पाकिस्तान में यही हुआ है, जिसका विस्तारित संस्करण बांग्लादेश में देखने को मिल रहा है। दोनों ही देशों में विपक्ष के हाशियाकरण का सिलसिला चलता आ रहा है।लेकिन, आज के दौर में  भारत भी इस सिलसिले का अपवाद है, लेखक की दृष्टि में ऐसा नहीं है। देश में निर्वाचित तानाशाही और हाशियाकरण का भारतीय संस्करण तेज़ी से उभर रहा है। इसे समझने की ज़रुरत है। कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मलिकार्जुन खड़गे ने दल-बदल की तेज़ी से बढ़ती घटनाओं को लेकर चौंकानेवाली बात कही। खड़गे का कथन है,” वे लोकतंत्र के खात्मा के लिए धन का इस्तेमाल कर रहे हैं।  पिछले दस सालों में उन्होंने ( भाजपा) 411 विधायकों से दल बदलवा कर अपनी तरफ मिलाया है। हमारी ( कांग्रेस) कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, मणिपुर और उत्तरखंड में सरकारें थीं। आप सभी जानते हैं कि किस प्रकार से उन सरकारों को गिराया गया था। “ हो सकता है कांग्रेस अध्यक्ष के आंकड़े बड़े-चढ़े हों। लेकिन, लोकतान्त्रिक सुधार संगठन  के अनुसार 2016 और 2020 के बीच 45 प्रतिशत विधायकों ने अपना दल बदल कर सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था। 

रामशरण जोशी

अगस्त 1947 में श्वेत साम्राज्यवादी शासकों ने भारतीय उपमहाद्वीप को दो स्वतंत्र देशों में विभाजित किया था : भारत और पाकिस्तान। भारत में धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था ने जन्म लिया, जबकि पाकिस्तान का  राज्य चरित्र मज़हबी (इस्लाम) बना। विडंबना देखिये, दिसंबर 1971 में मज़हबी राष्ट्र पाकिस्तान टूट गया और स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश के रूप में  विभाजित अंग का जन्म हुआ। भारत में 1952  से अब तक विभिन्न संकटों से गुजरत हुए ‘वोटतंत्र’ के रूप में लोकतंत्र ज़िंदा है, जबकि पाकिस्तान में अब तक कोई भी निर्वाचित प्रधानमंत्री अपनी सरकार में पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है। सिर्फ 2008 से 2018  तक सरकारों ने पांच-पांच साल तक सत्ता संभाली अन्यथा सभी सरकारों की अकाल मौतें हुईं हैं।

 

यह भी विडंबना है कि 15 अगस्त को स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद महीनों के बाद ही 30 जनवरी 1948 में नियमित प्रार्थना सभा में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चरम दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके बाद भी त्रासदी ने देश का पीछा नहीं छोड़ा। अक्टूबर 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके निवास स्थान पर ही दो अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी। इसके पश्चात मई 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी चेन्नई के पास मानव बम से उड़ा दिया गया। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी त्रासदियों का सिलसिला शुरू हुआ। आज़ादी के करीब चार साल बाद ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की अक्टूबर 1951 में रावलपिंडी की एक सार्वजनिक सभा में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके करीब 28 साल बाद पूर्व पाक सदर और वज़ीरे आज़म ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को अप्रैल 1979 में जेल में जनरल ज़िया उल हक़ की  फौज़ी हुकूमत  ने फांसी पर लटका दिया। इसके करीब 28 साल बाद उनकी पुत्री और पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो की भी 2007 में हत्या कर दी गई। इससे पहले पाकिस्तान में ही 1987 में  फौज़ी  तानाशाह हक़ की भी एक विमान विस्फोट में हत्या हो चुकी थी।

नव स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश की नियति भी भारत और पाकिस्तान से भिन्न नहीं थी। दिसम्बर 1971 में आज़ाद देश के रूप में जन्म लेने के  चार साल बाद ही  15 अगस्त 1975 की भोर में इसके राष्ट्रपति बंग बंधु मुजीबुर रहमान और उनके परिवार की उनके ही निवास स्थान पर एक बागी फौज़ी टुकड़ी ने हत्या करदी। बांग्लादेश-मुक्ति संघर्ष के सूत्रधार  थे बंगबंधु रहमान। चूंकि उनकी सबसे बड़ी पुत्री शेख हसीना देश से बाहर थीं, इसलिए वे सुरक्षित रहीं और कुछ समय भारत में रह कर अपने को सुरक्षित रखा। इस देश में सैनिक विद्रोह, हिंसा और सरकार अस्थिरता का दौर बना रहा।

दक्षिण एशिया के उपभारतीय द्वीप के जिस्म से बने इन तीनों देशों की त्रासदीपूर्ण भूमि में लोकतंत्र अपनी यात्रा शुरू करता है। पहले पाकिस्तान में लोकतंत्र के सफ़र पर नज़र डालते हैं। यह संयोग है कि इसी वर्ष मई तक तीनों देशों के आम चुनाव संपन्न हो जायेंगे; बांग्लादेश में पिछली जनवरी में आम चुनाव हुए और शेख हसीना वाजेद ने चौथी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली; इसके बाद फरवरी के दूसरे सप्ताह में पाकिस्तान में चुनाव हुए हैं; दोनों ही देशों में चुनावों पर हिंसा, धांधली और विवादों का साया छाया  रहा है। यदि सब कुछ ठीक रहता है तो भारत में भी मई के मध्य तक आम चुनाव हो जाने चाहिए। यह लेखक पाकिस्तान की कई बार पत्रकारीय यात्रा कर  चुका है। 1971 में बांग्लादेश के  मुक्ति संघर्ष को भी कवर किया है। स्वाभाविक रूप से  देशज चुनाव यात्रा तो पत्रकारिता कर्म की अभिन्न हिस्सा रही है।

अब हम चुनावों पर सरसरी नज़र डालते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना भी अधिक समय तक जीवित नहीं रहे। 71 वर्ष के आयु में जिन्ना का विवादास्पद स्थितियों में सितम्बर 1948 में कराची में टीबी के रोग से निधन हो गया था। फिर प्रधानमंत्री लियाकत अली की हत्या कर दी गयी। अस्थिरता का सिलसिला शुरू हुआ। फौज़ी अफ़सर  मोहम्मद अयूब खां ने शासन में हस्तक्षेप किया और सत्ता को अपनी मुठियों क़ैद कर लिया। फील्ड मार्शल और सदर बन कर पूरे 11 साल तक देश की हुक़ूमत की। फ़ौज़ के संगीनों के साये में लोकतंत्र ने बराये नाम अपना सफर ज़ारी रखा।

इसके बाद सेना अध्यक्ष याहिया खां ने हस्तक्षेप किया और फौजी तानाशाही के माहौल में ही चुनाव हुए। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) में बंगबंधु रहमान के नेतृत्व में उनकी पार्टी  अवामी लीग को बहुमत मिला, जिसे भुट्टो और याहिया खां ने नामंज़ूर कर दिया। इसके साथ ही गृह युद्ध शुरू हो गया और अंततः 16 दिसंबर 1971 को  पाक सेना ने ढाका में भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। याहिया -हुक़ूमत का पतन हो गया और भुट्टो सत्ता में आ गए। लेकिन उनके सेनाध्यक्ष ज़ियाउल हक़ ने बगावत की और  ‘निज़ाम -ए -मुस्तफ़ा ‘ के नारे पर सवार हो कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। निर्वाचित प्रधानमंत्री भुट्टो को सत्ता से बेदख़ल कर  नज़रबंद किया गया। बाद में  किसी की हत्या के आरोप में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। लोकतंत्र का सफर रुक गया। पाकिस्तान की ज़िंदगी पर संगीनों का कब्ज़ा हो गया। जब 1987 में यह  लेखक पहली दफ़ा लाहौर पहुंचा तब एक लतीफ़ा हर जगह सुनने को मिला था: पाकिस्तान में शुरू से ही तीन ‘अ’ का गठबंधन है – आर्मी +अमेरिका + अल्लाह। इन तीनों की रज़ामंदी के बग़ैर पाकिस्तान में पत्ता भी नहीं हिल सकता है। तीनों का गठबंधन ही अवाम के लिए फैसले लेता और सुनाता है। मग़र, अवाम खुद लापता है।” हवाई विस्फोट में ज़िया की मौत के बाद चुनाव हुए और बेनज़ीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं लेकिन, लोकतंत्र अपनी रफ़्तार नहीं पकड़ सका। वे भी लम्बे समय तक नहीं रह सकीं। इसके बाद नवाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री बनते-उतरते रहे। सेनाध्यक्ष परवेज़ मुशर्रफ़ ने बग़ावत कर दी। विभिन्न आरोपों में नवाज़ शरीफ़ को गिरफ्तार किया गया, ज़ेल में रहे और गुप्त समझौते के तहत अंत में ईलाज़ के लिए लंदन जा बसे। मुशर्रफ़ को भी सत्ता छोड़नी पड़ी, वतन से निर्वासित हुए  और फ़ौज़ की मदद से  विख्यात  क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान प्रधानमंत्री बने। लेकिन, उनकी अमेरिका और सेना के साथ लम्बे समय तक पटी नहीं। दोनों ही ‘अ’ उन्हें नापसंद करने लगे जिसका अंज़ाम इमरान के जेल सफ़र में हुआ है।

ज़ाहिर है, अल्लाह की भी  मौन स्वीकृति  रही होगी ! इसके बाद 8 फरवरी को विवादास्पद चुनाव हुए , जिसमें भयंकर धांधली के आरोप लगने लगे। यहां तक कि रावलपिण्डी  के चुनाव आयुक्त लियाक़त अली चट्ठा ने इस्तीफ़ा देने से पहले आरोप  लगाए कि चुनावों में धांधली की गयी है। इस धांधली मेंपाकिस्तान के  मुख्य न्यायाधीश क़ाज़ी फाईज़ ईसा और चुनाव आयुक्त शामिल हैं। दोनों ने  नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग को फायदा और इमरान के उम्मीदवारों को नुक्सान पहुँचाया है। लियाकत अली ने अपनी आत्मस्वीकृति में यह भी कहा कि  वे सभी गलत कामों के लिए ज़िम्मेदार हैं। उन पर दबाव डाला गया था। वे इस दबाव के रहते हुए  ख़ुदकुशी करने की भी सोच रहे थे। लेकिन, सभी तथ्यों को वे जनता के सामने रखना चाहते थे। उनकी यह अपील भी थी ,” तमाम नौकरशाही से मेरी यह दरख़्वास्त है कि  वे राज  नेताओं के लिए कोई भी ग़लत काम न करें।”

हालांकि, मुस्लिम लीग के नेताओं ने अली के आरोपों का खंडन क्या है। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन, ऐसे आरोपों से लोकतंत्र और उसके अभिन्न अंग दाग़दार ज़रूर हो जाते हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी को चुनाव नहीं लड़ने दिया गया। उसका चुनाव चिन्ह ‘बल्ला’ भी निरस्त कर दिया गया। इमरान के समर्थकों ने निर्दलीय उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़े और पुरानी स्थापित पाकिस्तान पीपुल पार्टी और मुस्लिम लीग (नवाज़ शरीफ) से ज़्यादा सीटें जीतीं। इसका अर्थ यह हुआ कि अवाम ने पाकिस्तान के पुराने सत्ता प्रतिष्ठान (आर्मी +अमेरिका +अल्लाह) को नकार दिया। लेकिन, तीन ‘अ’ का गठबंधन किसी भी कीमत पर हुकूमत पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने पर आमादा है। निश्चित ही, इससे लोकतंत्र की सार्थकता ही प्रभावित होती है और यह संकटग्रस्त दिखाई देता है। 14 अगस्त 1947 से 18 फरवरी 2024 तक पाकिस्तान का लोकतंत्र ‘ढाई कोस’ का सफर भी तय नहीं कर सका है। यह भारत के लिए भी बेहद चिंता का विषय है।

अब हम दूसरे पड़ोसी ने राष्ट्र बांग्लादेश की तरफ आते हैं।1971 में पाकिस्तान का विभाजन किसी श्वेत शासक की वज़ह से नहीं हुआ था। बल्कि, देसी सांवले शासकों की लोकतंत्र- विरोधी करतूतों ने ही अंगभंग-ड्रामा को मंचित किया था। पाकिस्तान के पश्चिम और पूर्वी भागों में सुन्नी मुस्लिम भी बहुमत में रहे हैं। दोनों ही इस्लाम के अनुयायी हैं। फिर भी यह देश टूटा। इस विभाजन का गुरु निष्कर्ष यह निकला कि लोकतंत्र तथा फौज़ी तानाशाही  के बावज़ूद  किसी भी राष्ट्र को एकजुट रखने के लिए एकल धर्म-मज़हब और एकल समुदाय -जाति -नस्ल पर्याप्त नहीं है। और भी कारक हैं जिसे चिन्हित करने और समझने की ज़रुरत है।

बांग्लादेश में भी दो फौज़ी तानाशाह हो चुके हैं। 1975 में राष्ट्रपति मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद जनरल जियाउर रहमान ने देश की बागडोर अपने हाथों में ली। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं। उन्होंने बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी की स्थापना भी की। लेकिन, 1981 में उनकी हत्या कर दी गयी। रहमान अपने देश में लोकतंत्र के स्थान पर पाकिस्तान जैसी तानाशाही के समर्थक थे। इसके बाद  हुसैन मोहम्मद इरशाद दूसरे सैन्य तानाशाह थे, जिन्होनें सात वर्ष तक हुकूमत की और  लोकतंत्र को फौजी संगीनों की नोक पर रखा। 1983 – 1990 के बीच लोकतंत्र लुंजपुंज अवस्था में ही रहा था।

पिछली जनवरी में हुए चुनाव के बाद बंगबंधु की पुत्री शेख हसीना ने चौथी बार सत्ता अपने हाथों में ली है। लेकिन, जीत की दिलचस्प कथा यह है कि बांग्लादेश के प्रतिपक्ष ने चुनावों का बहिष्कार किया था। शेख हसीना की अवामी पार्टी को खुला मैदान मिल गया और 300 सीटों वाली संसद में दो तिहाई से अधिक बहुमत बटोरा। मीडिया में शेख हसीना पर ‘तानाशाह प्रधानमंत्री’ का तमगा चस्पाया जाता है। बेशक़, मज़बूत प्रतिपक्ष की गैर-मौज़ूदगी और प्रमुख विरोधी दलों के जेलों में होने की स्थिति में सत्तारूढ़ पार्टी को बहुमत प्राप्त होना अस्वाभाविक परिणाम नहीं है।किसी भी दृष्टि से लोकतान्त्रिक देश में एक ही दल का बीस साल सत्ता में रहना और एक ही व्यक्ति का चौथी दफे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनना, लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं कहा जाएगा।जब अमेरिका में  फ्रैंकलिन डी। रूजवेल्ट ने लगातार चौथी बार राष्ट्रपति का चुनाव जीता था, तब देश में हाहाकार मच गया था। इसके बाद निर्णय लिया गया कि कोई भी एक व्यक्ति लगातार दो बार से अधिक राष्ट्रपति नहीं  बनेगा। पिछले सत्तर सालों से डेमोक्रैट और  रिपब्लिकन, दोनों ही पार्टियां इस नीति का पालन करती आ रही हैं।

वास्तव में, किसी भी देश में  सत्ता के केन्द्रीकरण व  समाज के ध्रुवीकरण से तानाशाही, वर्चस्ववाद,बहुसंख्यकवाद और सैन्यवाद की प्रवृत्तियां उभरने लगती हैं और लोकतंत्र भीतर से जर्जर होने लगता है। पाकिस्तान में यही हुआ है, जिसका विस्तारित संस्करण बांग्लादेश में देखने को मिल रहा है। दोनों ही देशों में विपक्ष के हाशियाकरण का सिलसिला चलता आ रहा है।

लेकिन, आज के दौर में  भारत भी इस सिलसिले का अपवाद है, लेखक की दृष्टि में ऐसा नहीं है। देश में निर्वाचित तानाशाही और हाशियाकरण का भारतीय संस्करण तेज़ी से उभर रहा है। इसे समझने की ज़रुरत है। कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मलिकार्जुन खड़गे ने दल-बदल की तेज़ी से बढ़ती घटनाओं को लेकर चौंकानेवाली बात कही। खड़गे का कथन है,” वे लोकतंत्र के खात्मा के लिए धन का इस्तेमाल कर रहे हैं।  पिछले दस सालों में उन्होंने ( भाजपा) 411 विधायकों से दल बदलवा कर अपनी तरफ मिलाया है। हमारी ( कांग्रेस) कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, मणिपुर और उत्तरखंड में सरकारें थीं। आप सभी जानते हैं कि किस प्रकार से उन सरकारों को गिराया गया था। “ हो सकता है कांग्रेस अध्यक्ष के आंकड़े बड़े-चढ़े हों। लेकिन, लोकतान्त्रिक सुधार संगठन  के अनुसार 2016 और 2020 के बीच 45 प्रतिशत विधायकों ने अपना दल बदल कर सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था। 

रिपोर्ट का विश्लेषण है कि 443  विधायकों और सांसदों  ने दल -बदल किया है। विश्लेषण ने भी खड़गे के इस कथन की पुष्टि की है कि कांग्रेस शासित राज्यों की विधिवत निर्वाचित  सरकारों के पतन का मुख्य कारण ‘दल -बदल ‘ था। यहां तक कि  राजयसभा में भी दल -बदल हुआ है।सबसे अधिक शिकार  कांग्रेस के सदस्यों का हुआ। सबसे उस्ताद शिकारी भाजपा रही है। पिछले ही  दिनों  बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्वयं  दल-बदल+पलटू राम + झपटू दल नाटक का निर्लज्जता के साथ मंचन किया। उन्होंने अपने मुख्यमंत्री काल में पांच दफे पलटू राम का रोल अदा किया और नौवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने उन्हें सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। मोदी राज में कांग्रेस मुक्त का नारा लग चुका है। लेकिन, विपक्ष मुक्त भारत की स्थितियां पैदा की जा रही हैं। विभिन्न शासकीय एजेंसियों के माध्यम से विपक्ष में भय पैदा किया जा रहा है।संसद के अंतिम सत्र में 45 से अधिक सांसदों को निष्कासित किया गया। स्वेच्छाचारिता के साथ दोनों सदनों को चलाया गया।

अब दल बदल और मतदान धांधली महापौर स्तर तक होने लगी है। फरवरी में ही चंडीगढ़ के महापौर के चुनाव में भाजपा के मनोनीत चुनाव अधिकारी की धांधली पकड़ी गई थी। आप और कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी हार गया। इस गठबंधन के पास कहीं अधिक मत थे। लेकिन, चुनाव अधिकारी ने पक्षपात किया और अल्पमतवाले भाजपा प्रत्याशी को जिता दिया। जब इस धांधली को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और वीडियो का प्रदर्शन किया गया तो मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की  पीठ  को भी कहना पड़ा, “ हम लोकतंत्र की हत्या नहीं होने देंगे। चुनाव अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जानी  चाहिए। यह लोकतंत्र का मज़ाक है”।

आखिरकार बीजेपी को एक और आघात सहना पड़ा। आला अदालत ने 20फरवरी को अपने फैसले में आप और कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को मेयर पद पर विजयी घोषित कर दिया। इस फैसले का दिलचस्प पक्ष यह है कि न्यायाधीशों ने स्वयं अदालत में मतपत्रों को मंगवाकर सच्चाई का पता लगाया और गिनती की। इसके बाद ही कुलदीप कुमार की जीत घोषित की ।इसके साथ ही रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह के विरुद्ध विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज करने की भी घोषणा की। इससे पता चलता है कि भाजपा सत्ता की हरेक बुर्ज पर कब्जा जमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। उसे लोकतंत्र की न्यूनतम मर्यादा की भी परवाह नहीं है। आम जनता गंगा मईया में डुबकी लगा कर अपने पाप धोते आए है। लेकिन दल बदलू नेता भाजपा में शामिल हो कर अपने भ्रष्ट कृत्यों का प्रक्षालन करते रहते हैं।

1985  में राजीव गांधी की सरकार ने दल बदल विरोधी क़ानून बनाया था। लेकिन बावजूद इस क़ानून के, दल बदलुओं ने दल-बदल के लिए नई नई गलियां तलाश लीं। इसकी चिन्दी चिन्दी करदी। क़ानून के  होते हुए भी ‘आया राम-गयाराम कारोबार’ धड़ल्ले से फलता -फूलता चला; कई सरकारें गिरती रहीं और निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फ़रोख़्त ऊंची ऊंची दरों के साथ चलता रहा;  राजनीतिक गलियारों में प्रति प्रतिनिधि को  25  से 50  करोड़ रु। देने की आम धारणा रहती  है; विधायकों को शिकारी से बचाने के लिए विशेष विमानों में दूसरे राज्यों  की  होटलों में बंद रखा जाता है और सदन में  विश्वास  मत या शक्ति परीक्षण के समय वापस लाया जाता है।

सरेआम दल बदल विरोधी कानून की धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। अदालतों के फैसले भी आते हैं, लेकिन उसकी भी तोड़ निकाल ली जाती है। महाराष्ट्र में यही हुआ। चुनाव आयोग भी टुकुर टुकुर देखता रहता है। कुछ समय पहले आला अदालत के एक न्यायाधीश ने कहा था कि चुनाव आयोग में ऐसे आयुक्त होने चाहिए जो प्रधानमंत्री को भी कटघरे में खड़ा कर सकें। लेकिन, संवैधानिक संस्था होने के बावज़ूद आज चुनाव आयोग की हैसियत सरकारी विभाग जैसी बन गई है। सरकार स्वेच्छाचारिता  से आयोग के सदस्यों का चयन करती है। यहां तक कि अब मोदी -सरकार ने  आयोग के सदस्यों की चुनाव समिति से ही  देश के मुख्य न्यायाधीश को ही हटा दिया है। इससे पहले चयन  समिति  के सदस्य प्रधानमंत्री, प्रतिपक्ष का नेता और मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे। पाठकों को याद दिला दिया जाय।

कुछ साल पहले चुनाव आयोग के एक सदस्य अशोक लवासा हुआ करते थे। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सम्बंधित एक प्रकरण पर विपरीत दृष्टि अपनाई  थी, जिसे मुख्य चुनाव आयुक्त ने  पसंद नहीं किया था। मीडिया में विवाद छाया रहा। अंततः  अशोक लवासा को ही आयोग से हटना पड़ा था। वास्तव में,  पूर्व  मुख्य आयुक्त टी। एन। शेषन की सेवानिवृति के  बाद से ही आयोग की गरिमा पर गर्द  जमना शुरू हो गई थी। पिछले एक समय से यह एक  प्रकार-से  सरकारी खिलौने की भूमिका निभाता चला आ रहा है। यह आम धारणा है, विपक्षी दलों की।

फरवरी के दूसरे  सप्ताह में ही  सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की  पांच न्यायाधीश सदस्यीय पीठ ने एकमत से  मोदी-सरकार की विवादास्पद  चुनाव बॉन्ड योजना को खारिज़ करते हुए उसे “असंवैधानिक” बताया था। आला अदालत की दृष्टि में यह पारदर्शी नहीं है।   इस योजना को 2017 में शुरू किया गया था। आला अदालत का यह फैसला भाजपा सरकार  के लिए ज़बरदस्त आघात   था क्योंकि इसे एकमत से असंवैधानिक घोषित किया गया है। इतना ही नहीं, इस योजना से 90 प्रतिशत  से अधिक का लाभ भाजपा को पहुंचा है। कई पुराने नियमों को बदल कर मोदी-सरकार ने इसे शुरू किया था। अब आला अदालत ने चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि मार्च में  सभी सम्बंधित दस्तावेज़ों का खुलासा किया जाए और अपनी वेब साइट पर प्रकाशित करे। 

जनता को यह जानने का हक़ है कि किस व्यक्ति  या औद्योगिक घराने ने  कितना धन दिया और उसको कितना लाभ पहुँचा। निश्चित तिथि के बाद मिलनेवाले बॉन्ड को वापस लौटा जाय।  राशि वापस की जाये। निश्चित ही इस  योजना के माध्यम से ‘ बॉन्ड खरीद कर   धन दो और सरकार  से लाभ कमाओ ‘ जैसा कारोबार चलता हुआ प्रतीत होता है।किस पूंजीपति ने कितने के  बॉन्ड ख़रीदे और किस दल को पैसा दिया है, इस मामले में  जनता या मतदाता अँधेरे में रहते हैं। उन्हें जानकारी नहीं दी जाती है। पारदर्शिता के नाम पर सब कुछ गोपनीय रखा जाता है। इतना ही नहीं, इस योजना को सूचना के अधिकार के कानूनी – दायरे से भी बाहर रखा गया है। हज़ारों करोड़ रुपयों के महाघोटाले की आशंका दिखाई देती है। क्या ऐसी योजनाओं और घोटालों से लोकतंत्र आहिस्ता आहिस्ता जर्जर नहीं होता जायेगा? जहां पाकिस्तान और बांग्लादेश  में फौज़ी तानाशाही  के माध्यम से  लोकतंत्र को फलदार वृक्ष नहीं बनने दिया गया, वहीं भारत में भी लोकतंत्र  निर्वाचित तानाशाही या अधिनायकवादी हुकूमत  से दिन-ब -दिन कमज़ोर होता जा रहा है।  इसकी शाखें सूखने लगी हैं; आया राम – गया राम और  पलटू राम – झपटू दल जैसे दागदार कारनामों से लोकतंत्र की शाखें एक एक करके  गिरती चली जाएंगी  और अंत में नंगी तानाशाही का ही ताण्डव होगा।

इस दृष्टि से, भारत से टूट कर बनने वाले  भारतीय उप-महाद्वीप के तीनों देशों में  लोकतंत्र को गहरे संकट में धकेलने का  कारोबार अपने अपने अंदाज़ में समानांतर रूप से बेधड़क चलता आ  रहा है। पहले से ही पाकिस्तान और बांग्लादेश के शासक वर्ग  मज़हब को अपनी ढाल  बना कर अवाम पर हुकूमत  करते आ रहे हैं। बांग्लादेश के संविधान में भी  ‘इस्लाम’ को राज्य के धर्म के रूप में घोषित किया गया है। बंगबंधु के समय ऐसा नहीं था। तब यह पूरी तरह से  ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ था। लेकिन, बाद के  कट्टर दक्षिण पंथी शासकों ने संविधान में मज़हब को ठूंस दिया। शेख हसीना -सरकार से उम्मीद थी कि वह इसमें संशोधन करेगी और बंगबंधु- समय के संविधान के मूलचरित्र को बहाल करेगी। लेकिन, उसनेभी  ऐसा नहीं किया। दक्षिणपंथी मज़हबी ताक़तें हावी होती जा रही हैं। प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की हत्या करदी जाती हैं। सांप्रदायिक दंगे भी हुए हैं।

भारत की तरफ लौटते हैं। निःसंदेह भारत का लोकतंत्र अपने पड़ौसी  देशों से अधिक मज़बूत और टिकाऊ सिद्ध हुआ है। इसका श्रेय निश्चित ही महात्मा गांधी  सहित नेहरू युग को जाता है। उत्तर नेहरू कालीन सरकारों ने भी लोकतंत्र को स्थिर रखने की कोशिशें की थीं। लेकिन, 1975 में  इंदिरा -शासन ने देश पर आंतरिक  इमरजेंसी  थोप कर लोकतंत्र की  पम्परागत  इमारत पर प्रहार ही किया था। तत्कालीन जनसंघ सहित विपक्ष के प्रमुख नेताओं और हज़ारों  राजनीतिक  कर्मियों को जेलों में ठूंसा गया था। नतीजतन, 1977 के आम चुनावों में मतदाताओं ने उन्हें दण्डित भी किया था। कांग्रेस पार्टी के साथ साथ वे स्वयं और उनके छोटे बेटे संजय गांधी  भी उत्तरप्रदेश में   

चुनाव हार गए थे। इसके बाद इंदिरा गाँधी ने कुछ सबक़  सीखा भी।जनता पार्टी की सरकार की बदौलत  लोकतंत्र  फिर से पटरी पर आया भी। यह सिलसिला कम -अधिक 2014 तक जारी रहा है। परन्तु, इस यथार्थ को भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि  मोदी-शासन में भारतीय लोकतंत्र वैश्विक लोकतंत्र तालिका में निरंतर फिसलता जा रहा है। आज भारत दुनिया के लोकतान्त्रिक देशों में ।108 वीं पायदान पर आ गया है। एक दशक के  मनमोहन सिंह – शासन में यह 100 से काफी नीचे था। आज इसकी स्थिति निरंतर गिरती जा रही है। उदार लोकतंत्र संकटग्रस्त है। दुनिया के 10 निरंकुश देशों में भारत को शुमार किया जाता है। वज़ह है, मानव अधिकारों का उल्लंघन, मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप। इसीलिए भारत को ‘ निरंकुश चुनावतंत्र ‘के देशों की   कतार  में रखा गया है।  ‘ रिपोर्टर्स विथाउट बॉर्डर्स ‘ संगठन  की 2023 की रिपोर्ट   ‘विश्व –  प्रेस स्वतंत्रता की तालिका’ में भारत का स्थान निरंतर गिर रहा है। 180 देशों की तालिका में भारत का स्थान 161 वां है। पहले  2022 में इसका स्थान 150 था। केवल एक साल में ही यह 11 पायदान नीचे खिसक चुका  है। 2021 में इसका स्थान 142 था। हक़ीक़त यह है कि  प्रेस आज़ादी निरंतर गिरती चली आ  रही है;  1917 में  भारत का स्थान 136 था। इससे स्पष्ट है कि देश में  पिछले एक दशक  से  लोकतंत्र और प्रेस स्वतंत्रता का  समानांतर स्तर पर  अवसान -यात्रा चलती आ रही है।

सारांश में,   निर्वाचित अधिनायकवाद और निरंकुश वोटतंत्र  प्रॉक्सी से फौज़ी तानाशाही के समान है। लोकतंत्र का अर्थ केवल वोट देना ही नहीं है। बेशक, मतदान  लोकतंत्र का आधारभूत कर्म है। लेकिन, यह सर्वज्ञ नहीं है। लोकतंत्र एक जीवन शैली है। समाज के बहु आयामी व्यवहार में यह प्रतिबिंबित होना भी चाहिए।  नागरिक में मतदान के लिए विवेचनात्मक बोध होना चाहिए। उसमें इसकी चेतना होनी चाहिए कि  चुनाव के समय ‘ दल बदलुओं और शिकारी दलों’   के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। पिछली सदी में नव स्वतंत्र देशों में जनता को  मतदान का सांवैधानिक अधिकार तो मिला, लेकिन, उसे  लोकतंत्र व मतदान के प्रति ‘ विवेचनात्मक चेतना ( क्रिटिकल थिंकिंग )’ से वंचित रखा गया। इस दृष्टि से  तीनों पड़ौसी देशों के शासक व प्रशासकों का समान वर्ग चरित्र दिखाई देता है; पहले इस्लाम ने दोनों देशों में अपने जलवे दिखलाये , अब भारत में हिंदुत्व अपने चमत्कार दिखलायेगा।

और अंत में, बरसों पहले  पाकिस्तान की मरहूम शायरा फ़हमीदा रियाज़ कितना सटीक  कहती हैं:

“तुम बिल्कुल हम जैसे निकले,

अब तक कहां छुपे थे भाई ?

वो मूरखता वो घामड़ -पन

जिसमें हम ने सदी गंवाई

आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे

अरे बधाई बहुत बधाई। (

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