अग्नि आलोक
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 पर’काया सिद्धि!

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(पैरासाइकॉलिकल रियल स्टोरी)
~ डॉ. विकास मानव

    आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.

अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मानवश्री कहते हैं — “बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.“
लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं
वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।

सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.

       _जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के विषय में जो कि हम पहले भी बतला चुके हैं, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा या चेतना जैसी कोई शक्ति है अवश्य जो वैसे तो भीतर ही रहती है  लेकिन जो इतनी सक्षम है कि अवसर पड़ने पर शरीर छोड़कर बाहर निकल सके, दूसरे लोक-लोकान्तरों की यात्रा कर सके और इतना ही नहीं, आवश्यकता पड़ने पर किसी के मृत या जीवित शरीर में प्रवेश कर सके।_

 मेरे एक अध्यापक मित्र थे। बंगाली सज्जन थे। वैसे तो वह गणित के अध्यापक थे लेकिन साहित्य और संगीत में विशेष रुचि थी उनकी।
  रात में जब सितार बजाने लग जाते तो उन्हें अपनी ही सुधि नहीं रहती और जब उनकी भारी-भरकम पत्नी आकर जोर से आवाज देती--खाना-वाना कोरवे ना ? तब कहीं जाकर तानसेन महाशय का संगीत-मोह भंग होता था।
  नाम था उनका--मेघनाद भट्टाचार्य। भट्टाचार्य महाशय तो साधु-सन्तों के साथ सत्संग करने की भी लिप्सा थी। वेतन का थोड़ा हिस्सा साधु-संतो की सेवा में चला जाता था। सन्तान नहीं थी। कभी पत्नी विरोध करती तो महाशय हंसकर कहते--महालक्ष्मी तुमको पुत्र-लाभ हो, इसके लिए ही तो साधु-महात्माओं की सेवा करता हूँ। पत्नी भी बंगालिन थी, पति की बात सुनकर हंसकर रह जाती।
  _एक दिन भट्टाचार्य महाशय हंसते हुए आये। किसी प्रकार अपने को संभाला और बोले- विकास जी ! सुना आपने ? एक युवक आया है, आयु अधिक नहीं है उसकी, बस 24-25 वर्ष का है। नाम है--पूर्णागिरि। शुभ लक्षण वाला है। साधुवेश में है। ज्ञान का अपार भंडार भरा है उसमें। योग-तन्त्र-ज्योतिष का भरपूर ज्ञान है उसे। क्या आप उससे मिलना चाहेंगे ?--एक सांस में इतना सब बोल गये मेघनाद भट्टाचार्य महशय।_
  सब सुना और सुनकर कहा--कहाँ ठहरे हैं सन्यासी महोदय ?
  भजन मठ में।
  कल मेरे घर पर साथ लेकर आइयेगा।
  ठीक है, प्रतीक्षा करिएगा।
  दूसरे दिन सांझ के समय भट्टाचार्य महाशय आ गये और उनके साथ पूर्णागिरि भी थे।
  हे भगवान ! कितना तेज था उस किशोर साधु के चेहरे पर ! आँखें चुंधिया-सी गयीं। बड़ी-बड़ी अनुभवों से भरी गहरी आँखें, गौर वर्ण, लम्बी-चौड़ी कद-काठी, मुण्डित सिर, गले में रुद्राक्ष की माला, शरीर पर काषाय वस्त्र, पैरों में खड़ाऊँ। कुल मिलाकर आकर्षक व्यक्तित्व था।
  थोड़ी देर भट्टाचार्य महाशय रुके रहे और फिर अपने किसी आवश्यक कार्य से चले गये। उनके चले जाने के बाद गम्भीर स्वर में बोला वह युवा सुदर्शन सन्यासी--मेरे नाम से तो आप परिचित हो ही गये होंगे। मेघनाद जी ने बतलाया होगा आपको।
  हाँ ! उन्होंने यह भी बतलाया कि आप मीरघाट स्थित भजन मठ में ठहरे हुए हैं इस समय।
  _काशी के प्रति शताब्दियों से लगाव है बन्धु ! इसलिए चार मास के कल्पवास के लिए काशी आया हूँ मैं। पूर्णागिरि गुरु प्रदत्त नाम है। यदि जीवन-मृत्यु की बाधा को स्वीकार न किया जाय तो मेरी आयु अत्यधिक है, लेकिन गुरु-कृपा से मेरे शरीर में कोई किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं है। जहां तक काल के प्रभाव का प्रश्न है, वह तो सभी पर पड़ता ही है, लेकिन मेरे शरीर पर अति मन्द है।_
  यह सब सुनकर कुछ विचित्र-सा लगा मुझे। थोड़ा रुककर युवा सन्यासी आगे बोला--आपका परिचय मुझे प्राप्त हुआ था महात्मा दिव्य कैवल्य से।
  दिव्य कैवल्य से...!
  जी हाँ ! दिव्य कैवल्य से और तभी से आपके जैसे प्रकाण्ड विद्वान, सर्वशास्त्र मर्मज्ञ पुरुष से मिलने के लिए व्याकुल हो उठी मेरी आत्मा। आपका दर्शन प्राप्त हुआ--यह मेरा परम् सौभाग्य है। आप वास्तव में एक अति पुण्यवान और परम भाग्यशाली महापुरुष हैं और तभी ब्राह्मण कुल का शरीर प्राप्त हुआ और वह भी काशी में। लेकिन इस प्रसन्नता के साथ एक दुःख भी है कि शताब्दियों से चली आ रही काशी की साधना परम्परा की अन्तिम कड़ी हैं आप। फिर भविष्य में क्या होगा--कहा नहीं जा सकता।
  _नहीं..नहीं..ऐसा मत कहिए। कोई भी परम्परा नष्ट नहीं हो सकती। कुछ समय के लिए लुप्त अवश्य हो जाती है।_
  मेरी बात सुनकर पूर्णागिरि मुस्कराए और फिर कहने लगे--काशी की सारस्वत परम्परा का स्वयं विशेष अंग रहा हूँ मैं।
  यह सुनकर थोड़ा आश्चर्य हुआ मुझे लेकिन बोला कुछ नहीं। फिर थोड़ा आगे खिसककर पूर्णागिरि बोले--वैसे यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो महाभारत के भयंकर महायुद्ध की प्रचण्ड अग्नि में भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, साधना, उपासना, अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान सब कुछ जलकर भस्म हो गया। कुछ शेष नहीं बचा। जहां तक प्रश्न काशी की सारस्वत परम्परा का है, उसका बीजारोपण तेरहवीं शती में हो चुका था। आपका क्या विचार है ?
  _सायंकाल हो चुका था। मैंने हंसकर कहा--सायंकाल के समय चार कर्म नहीं करने चाहिए जिनमें एक शास्त्र-चर्चा भी है। अब कल बातें होंगी। आप दोपहर के समय आने का कष्ट करें।_
  ठीक है--यह कहकर पूर्णागिरि उठे चले गये। उनके चले जाने के बाद काफी देर तक मैं उन्हीं के विषय में सोच-विचार करता रहा।
  _सब कुछ ठीक था लेकिन दिव्य कैवल्य जैसे दिव्य पुरुष से पूर्णागिरि का परिचय कैसे हुआ और किस प्रसंग में दिव्य कैवल्य ने पूर्णागिरि को मेरा परिचय दिया ? इसी प्रश्न में उलझा रहा मेरा मस्तिष्क पूरी रात._
  _दूसरे दिन यथासमय पूर्णागिरि आये। प्रसंग मैंने ही शरू किया। आपने तेरहवीं शती की चर्चा की है, लेकिन तेरहवीं और चौदहवीं शती में ग्रन्थ-रचना-कार्य अत्यंत अल्प मात्रा में हुआ है। मैं तो यह कहूंगा कि आरम्भ से ही काशी की सभी विषयों में अपनी विशिष्टताएं रही हैं, किसी एक विषय में नहीं।_
    साहित्य, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, व्याकरण तंत्र, वैष्णव तथा तांत्रिक आगम, मीमांसा, वेदांत, न्याय वैशेषिक आदि भारतीय संस्कृति के सभी विभाग काशी की देन से परिपुष्ट हुए हैं।
  क्यों नहीं, सिर हिलाकर बोले पूर्णागिरि। अब आगे सुनिए--वैसे भारत काशी के एक निर्दिष्ट प्रदेश का नाम विशेष है। इसका गौरव और माहात्म्य अन्य अनेक स्थानों से कहीं अधिक है। मैं इस प्रसंग में जिस समय की चर्चा करना चाहता हूं, उस समय काशी एक विशेष धाम था।  उसके बाद ही चारों धाम का अस्तित्व सामने आया।
   _कहने का तात्पर्य यह है कि चारों धाम के पूर्व केवल मात्र एक ही धाम था  और वह था काशी धाम। समझ सकते हैं कि मैं किस काल की चर्चा कर रहा हूँ। उस समय काशी अध्यात्म-क्षेत्र में ही नहीं, विद्या के पीठ के रूप में भी विशेष आसन पर आसीन थी। यवन काल में हिन्दू समाज की संस्कृति का भार प्रधान रूप से काशी पर ही निर्भर था। भारत के विभिन्न प्रान्तों में भी विद्या के केंद्र थे और उनका प्रभाव भी कम नहीं था। फिर भी ऐसा विशिष्ट केंद्र शायद ही कोई होगा जिसकी काशी से तुलना की जा सके।_
  मध्ययुग में यवनों के उपद्रव भारत के बहुत से स्थानों पर होते रहते थे। उनसे तंग आकर ही भारत के विभिन्न प्रदेशों से पंडितों के समुदाय काशी की ओर आकृष्ट होते थे। परिणाम यह हुआ कि मध्ययुग के अन्त होते-होते महाराष्ट्रीय, गुजराती, बंगाली, मद्रासी, उड़िया विद्वानों से भर गई काशी। बहुत से विद्वान जीवन का अन्तिम भाग काशी में व्यतीत करने के लिए यहां आते थे और मृत्यु पर्यन्त काशी में ही रहते थे।
   _कभी-कभी मनीषी वर्ग अपने परिवार के साथ अपने देश को छोड़कर सदैव के लिए काशी आकर बस जाता था तथा वंशानुक्रम से काशीवासी होकर रहने का प्रयास करता था। सभी प्रदेशों के पण्डित परस्पर सम्मिलित होकर काशी के विद्वत समाज का संगठन करते थे। धार्मिक कर्तव्य का निर्णय अथवा किसी दार्शनिक तत्व की मीमांसा के विषय में प्रयोजन होने पर काशी की विद्वद मण्डली द्वारा दी गयी व्यवस्था ही मानी जाती थी। धर्म और परात्पर ज्ञान के विषय में काशी का यह उच्चासन शताब्दियों तक अक्षुण्ण रहा।_
 केवल इतना ही नहीं, संस्कृत भाषा के प्रत्येक विभाग के साहित्य-सृजन में भी काशी सर्वोपरि रही।
  क्या आप यह स्पष्ट कर सकते हैं कि धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि परात्पर विषयों पर क्रम-बद्ध रूप से ग्रन्थों की सृष्टि कब से हुई काशी में ?
  पूर्णागिरि का यह प्रश्न सुनकर मुझे ऐसा लगा कि मेरे सामने बैठा यह सन्यासी साधारण नहीं है। मैंने कहा--आपकी इस जिज्ञासा के समाधान में इतना ही कहूंगा कि तेरहवीं शती के पूर्व सन 1194 ई. में बनारस मुस्लिम शासन के अधीन था। उस समय काशी की स्थिति काफी दयनीय थी।
  _काशी विश्वनाथ मन्दिर मुसलमानों द्वारा अशुद्ध हो चुका था। बाद में सुल्तान अल्तमस के समय काशी विश्वनाथ मन्दिर की पुनः शुद्धि हुई और नियम बनाया गया कि आर्यधर्म को स्वीकार करने वाले लोग ही मन्दिर में प्रवेश करें। उसी काल में गुजरात के प्रसिद्ध जैन सेठ वस्तुपाल ने काशी विश्वनाथ मन्दिर में पूजा के निमित्त एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दी थीं।_
  प्रमाण के लिए आप देख सकते हैं 'प्रबन्ध कोष' कलकत्ता 1935 ई.पृष्ठ नम्बर 132 । यह सुनकर मेरी ओर देखने  लगे पूर्णागिरि आश्चर्य से। अब इस प्रसंग में यह भी सुन लें कि सन 1296 ई.काशी के विश्वेश्वर मन्दिर के निकट पदमेश्वर मन्दिर का निर्माण हुआ था।
   अब रही ग्रन्थ-रचना की बात तो यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो सच्चे अर्थों में तेरहवीं शती के आरंभ में  कविकान्त सरस्वती नाम के एक प्रसिद्ध विद्वान का आविर्भाव काशी में हुआ। उन्होंने विश्वदर्शन नाम के एक वृहद ग्रन्थ की रचना की जो धर्मशास्त्र से सम्बंधित था.
  _समयाभाव के कारण अब मैं आप से इतना ही कहूँगा कि तेरहवीं शती से उन्नीसवीं शती पर्यन्त काशी में विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न विषयों पर ग्रन्थ लिखे गये। उस समय प्रकाशन व्यवस्था तो थी नहीं, इसलिए विद्वान और पण्डित अपने से सम्बंधित विषय पर अपने हाथ से ग्रन्थ लिखते थे, बाद में जिनकी तीन प्रतियों में-- एक प्रति काशी विश्वनाथ को अर्पित हो जाती थी, एक प्रति राजा को भेंटस्वरूप प्रदान कर दी जाती थी तथा अन्तिम प्रति विद्वद-मण्डली को समर्पित की जाती थी।_
   इन छः सौ वर्षों में विभिन्न विषयों पर कितनी पुस्तकें लिखी गईं--इसका अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता।
  सब कुछ सुनकर पूर्णागिरि कुछ देर मौन साधे न जाने क्या सोचते-विचारते रहे फिर बोले--आत्मा संसार में अवतरित होने के बाद कितनी बार शरीर धारण करती है ? इसका लेखा-जोखा कोई नहीं बतला सकता किन्तु मैं अपने सम्बन्ध में अवश्य बतला सकता हूँ। आप सत्यान्वेषी हैं, आपको भी अपने विषय में बतलाऊंगा।
  _यदि मेरे सत्यान्वेषण की परिधि में होगा तो अवश्य विश्वास करेगी मेरी आत्मा--मैंने सहज भाव से उत्तर दिया। अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में फंसाते हुए युवा सन्यासी कहने लगा--मेरी आत्मा की भौतिक यात्रा तेरहवीं शती के आरम्भ से हुई। इसके पहले मेरी आत्मा मेरे निज शरीर और निज लोक में थी। मेरी आत्मा ने कैसे और क्यों भौतिक वातावरण को स्वीकार किया--यह तो बतलाया नहीं जा सकता परन्तु इतना तो अवश्य स्पष्ट है कि गर्भ के मार्ग से मेरी आत्मा ने शरीर धारण नहीं किया।_
  फिर क्या हुआ ?--प्रश्न किया मैंने।
  यही तो बतलाने जा रहा हूँ--गले में उलझी मालाओं को ठीक करते हुए सन्यासी ने कहा--आत्मा ज्योतिस्वरूप है और वह जिस शरीर में रहती है, उसे ज्योतिर्मय शरीर कहते हैं।
  _इसी प्रकार आत्मलोक को कहते हैं ज्योतिर्मय लोक जहां सब कुछ है स्वप्रकाशी। आत्मशरीर भी स्वप्रकाशी और ज्योतिर्मय है।_ 
 _उस समय भूमण्डल के निकट मैं एक रमणीक स्थान में भ्रमण कर रहा था, तभी मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरा आवाहन कर रहा हो। निश्चय ही कोई परम् योगी था वह, क्योंकि ऐसे ही लोगों की पुकार पहुंचती है आत्मलोक तक। वह अज्ञात योगी आत्मा का आवाहन कर रहा था। ऐसी अवस्था में आवाहन करने वाले योगी की आत्मा के साधना-संस्कार के अनुरूप ज्योतिर्मय शरीरर्धारिणी आत्मा उसकी ओर आकर्षित होती है।_
     निश्चय ही आवाहन करने वाले उस अज्ञात योगी का आत्म संस्कार मेरे अनुरूप था। तभी तो सुनायी दी उसकी पुकार।
  आत्मा का अस्तित्व कालातीत होता है। समय-सीमा उसके लिए नगण्य है। भ्रमण करते हुए स्थिर हो गया मैं। कौन करुण स्वर में पुकार रहा है ? इस प्रश्न का उदय होते ही मैंने भूमण्डल में एक ऐसा शान्त, रमणीक, प्राकृतिक छटाओं से घिरा स्थान देखा जो चारों ओर से हिमाच्छादित पर्वत-मालाओं से घिरा हुआ था।   
    _समझते देर न लगी मुझे कि वह स्थान हिमालय ही है। इस बात से मैं भली-भाँति परिचित था कि जो योगात्मायें भूमण्डल के बाहर किसी विशेष कारणवश निकलना नहीं चाहतीं, वे हिमालय में ही रहकर कालक्षेम करती हैं।_
  ध्यान से देखा उस स्थान पर--एक महात्मा ध्यानस्थ बैठे हुए थे पद्मासन की मुद्रा में और उनके सम्मुख भूमि पर एक दस-बारह वर्ष के बालक का शव पड़ा हुआ था। निश्चय ही उसी महात्मा की पुकार थी जिसे मैंने सुना था। किसी भी उच्च लोक की आत्मा का  भूमण्डल में प्रवेश करना कठिन होता है, इसलिए कि भूमण्डल के चारों ओर चन्द्रमण्डल का प्रभाव रहता है। भूमण्डल जड़तत्व प्रधान है, जबकि चन्द्रमण्डल मनस्तत्व प्रधान है। उच्च योगात्मा में मन का अभाव होता है। यही कारण है कि कोई स्वतंत्र उच्च योगात्मा बिना 'मनस्तत्व' को स्वीकार किये भूमण्डल में प्रवेश नहीं कर सकती और न तो मानव शरीर धारण कर सकती है।
  _भूमण्डल के जड़पदार्थ में मन का संयोग होने पर चेतना का आविर्भाव हो जाता है। शरीर मन और आत्मा की चेतना को एक सूत्र में बांधने वाला प्राण  है। इसी का नाम मानव जीवन है। प्राण-सूत्र टूटने पर तीनों का अस्तित्व टूटकर अलग हो जाता है। इसी का नाम मृत्यु है।_
   आगे क्या हुआ ?
  होगा क्या मानव जी ! जो होना था, वही हुआ। मेरी आत्मा 'मनस्तत्व' को स्वीकार कर भूमण्डल में प्रवेश कर गयी और तत्काल पहुंच गई उस स्थान पर जहां महात्मा ध्यानस्थ बैठे हुए थे। 
  एक दिव्यात्मा से योगात्मा का संपर्क हुआ। परिणाम स्पष्ट हो गया। वास्तविकता समझते देर न लगी। महात्मा की आयु 480 वर्ष थी। अब तक कठोर साधना के परिणामस्वरूप उनकी आत्मा आत्मलोक यानी ज्योतिर्मय जगत में प्रवेश कर चुकी थी। अब वे शरीर-त्याग करने के लिए व्याकुल थे, क्योंकि उन्हें शरीर की आवश्यकता नहीं रह गयी थी।
  _यदि आवश्यकता थी तो एक सुयोग्य शिष्य की। जैसे एक संसारी व्यक्ति के लिए एक सुयोग्य पुत्र की आवश्यकता होती है, वैसे ही एक परम दिव्यात्मा योगी के लिए एक सुयोग्य शिष्य की आवश्यकता होती है, क्योंकि वह उसके साधनात्मक ज्ञान और अनुभवों का उत्तराधिकारी बन सके। इस विषम समस्या को लेकर महात्मा चिन्तित थे।_
    एक साधक, योगी, सन्त, महात्मा के लिए सब कुछ सुलभ है, लेकिन सुयोग्य शिष्य को प्राप्त करना कठिन है। महात्मा के पास समय का अभाव था, वह भारस्वरूप शरीर को शीघ्र त्यागना चाहते थे। उसी मानसिक उद्वेलन की अवस्था में एक दिन महात्मा की दृष्टि अलकनंदा की प्रखर धारा में बहते हुए एक बालक के शव पर पड़ी। महात्मा के नेत्र चमक उठे। उनका कार्य सिद्ध होता हुआ प्रतीत हुआ। प्रसन्न हो उठे वह एकबारगी। धारा से किसी प्रकार शव को बाहर निकाला और अपने स्थान पर ले आये।
  _जल की शीतलता के कारण शव का आंतरिक स्वरूप विकृत नहीं हुआ था अब तक। आंखों की पुतलियां अपने स्थान पर स्थिर थीं। महात्मा को अपनी अभिलाषा साकार होती हुई लगी। तत्काल शव में अपने योगबल से प्राणों का संचार कर दिया उन्होंने। पूरा शरीर गतिमान हो उठा।_
    सम्पूर्ण नस-नाडियों में प्राण और रक्त का संचार होने लगा। फिर भी हृदय में धड़कन उत्पन्न नहीं हो रही थी और न तो उत्पन्न हो रही थी किसी भी प्रकार की क्रियाशीलता ही।
  योग के अनुसार यह तभी सम्भव है, जब शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। क्योंकि आत्मा का स्थान हृदय है, आत्मा की ऊर्जा से जब मन का संयोग होता है तो ही हृदय में धड़कन और क्रियाशीलता उत्पन्न होती है।
   _हृदय की परिधि में एक छोटा-सा गोल स्थान है जिसको योग की भाषा में 'आत्मपुर' कहते हैं। आत्मपुर में निवास करने वाली आत्मा पुरुष वाचक है। आत्मा पुरुष का पर्याय है।_
  आपको यहां यह बतला दूँ  कि आत्मा के अस्तित्व में दो मूलतत्व हैं। पहला है--पुरुष तत्व और दूसरा है--स्त्रीतत्व। ये दोनों आदि तत्व हैं और इन्हीं के संयोग से सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हुई है।

पूर्णागिरि इतना कहकर कुछ सोच में पड़ गए। अब तक मैं भी उनसे काफी प्रभावित हो चुका था उस सन्यासी से।
धीरे-धीरे वह जिन गोपनीय रहस्यों को अनावृत करता जा रहा था, वे आध्यात्मिक भूमि से गहरे सम्बन्ध रखते थे। अब मैं थोड़ा सतर्क हो गया था। सन्यासी ने सिर उठाकर मेरी ओर देखा। मेरे चेहरे पर तैरते हुए कौतूहल और जिज्ञासा के मिले-जुले भावों को संभवतः समझ लिया उस सन्यासी ने। जरा हँसकर बोला–आप मन को व्याकुल न होने दें।
आपकी जो जिज्ञासाएं हैं और जो कौतूहल हैं, उन सभी का समाधान समय-समय पर हो जाएगा। उद्विग्न न हों आप।
मैं बोला तो कुछ नहीं लेकिन मुझे यह समझते देर न लगी कि मेरे सामने निर्भय मुद्रा में बैठा हुआ सुदर्शन सन्यासी साधारण नहीं है। मेरे आगे क्या हुआ ? मेरा प्रश्न सुनकर पूर्णागिरि ने एक बार ऊपर की ओर देखा और फिर एक लम्बी सांस ली। संसार के मायाजाल से अनभिज्ञ एक दिव्यात्मा एक महात्मा के अनुरोध को टाल न सकी जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके योग-बल से मैं बालक के अर्ध जीवित शव में हृदय में प्रवेश कर गया।
पहली बार शरीर के बंधन का हुआ अनुभव विकास जी। बड़ा ही विचित्र अनुभव हुआ था–इसमें संदेह नहीं। समझ लें–किसी स्वतंत्र रूप से आकाश में विचरण करने वाले पक्षी को पिंजड़े में एकाएक बन्द कर दिया गया हो या किसी को सुन्दर महल से निकाल कर झोपड़ी में डाल दिया गया हो। यह सब तो ठीक है। मायाराज्य में प्रवेश करने पर ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है।
लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है मानवजी कि पुरुष तत्व प्रधान आत्मा जब पुरुष शरीर में प्रवेश करती है तो उसमें केवल पुरुष तत्व ही शेष रहता है। दूसरा स्त्री तत्व स्त्री शरीर में प्रवेश करने के लिए बाहर ही रह जाता है–युवा सन्यासी बोला–ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरी आत्मा का स्त्री तत्व बाहर छूट गया। तुरन्त व्याकुल हो उठा मैं। स्त्रीतत्व के अभाव में अपने-आपको अधूरा और असमर्थ अनुभव कर रहा था मै और साथ ही अतृप्त भी। सच पूछा जाय तो मेरे ही आत्मा के स्त्रीतत्व से हुआ वह वियोग असहनीय था मेरे लिए। बाद में सब कुछ स्पष्ट हो गया। महात्मा ने ही बतलाया मुझे इसका रहस्य।
जिस प्रकार परमात्मा के पुरुष और स्त्री तत्व (शिव और शक्ति) हैं, उसी प्रकार आत्मा के भी पुरुष और स्त्री तत्व प्रधान दो खण्ड हैं। आत्म लोक और भूलोक में अवतरित होते ही नैसर्गिक रूप से आत्मा दो खण्डों में विभाजित हो जाती है जिनमें एक खण्ड पुरुषतत्व प्रधान होता है और दूसरा होता है स्त्रीतत्व प्रधान। आत्मा के दोनों खण्डों का परस्पर वियोग उसके जन्म-मरण का कारण बन जाता है।
दोनों खण्ड एक-दूसरे की खोज में भटकते रहते हैं, एक-दूसरे को प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। यही लालसा, यही कामना, यही अतृप्ति, यही पीड़ा स्त्रीतत्व को स्त्री का और पुरुषतत्व को पुरुष का शरीर धारण करने के लिए बार-बार प्रेरित कती रहती है। आत्मा की इसी व्याकुलता का यह जीवन-चक्र है।
ब्रह्माण्ड-संचालिका महाशक्ति योनिरूपा है और भूमण्डल में आने के लिए दो ही मार्ग हैं और वे मार्ग है–मातृ-गर्भ द्वारा और दूसरा है–परकाया प्रवेश। तुमको संसार में आने के लिए गर्भ में प्रवेश नहीं करना पड़ा। यदि ऐसा होता तो अपने स्वरूप को तुम भी अन्य दिव्यात्माओं की तरह भूल जाते। इसलिए तुमको इस बालक के शरीर में प्रविष्ट कराना पड़ा मुझे। इसे तुम परकाया प्रवेश भी कह सकते हो।
इससे तुमको सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि तुम अपने ज्योतिर्मय आत्मलोक को और अपनी ज्योतिर्मयी आत्मा के स्वरूप को विस्मृत न कर सके जिस कारण तुम इस संसार में अपने-आपको एक मनुष्य नहीं, स्वतंत्र आत्मा समझोगे।
ऐसे आत्म निष्ठ व्यक्ति को संसार का माया-मोह आकर्षित नहीं कर पाता। वह संसार में जल-कमलवत रहता है और आगे की साधना पूर्ण करता है।
पूर्णागिरि एक परम सन्त थे। उनका ज्ञान अद्भुत था। चूँकि उस समय मैं जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म पर या कहिए कि आत्मा की अवस्थाओं पर विशेष शोध कर रहा था। मेरे शोध के समय में ही माँ की कृपा से पूर्णागिरि से परिचय हो गया था। यह एक संयोग था कि मैने अपने मनोभावों को उनसे अवगत नहीं कराया। लेकिन मेरी जिज्ञासा को और अन्य विषयों को जानने की जो मेरी उत्सुकता थी, वह बराबर बनी रही।
बहुत-से ऐसे प्रश्न थे जो मैं तत्काल उनसे नहीं पूछ सकता था, क्योंकि मैं जानता था योगियों और साधकों की मतिगति को। उनके लिए संसार का कोई महत्व नहीं है। अगर महत्व है तो केवल स्थूल शरीर का जिससे वे अपनी आगे की साधना पूर्ण कर सकें। इसलिए एक दिन उनके मनोभाव को देखते हुए मैंने प्रश्न किया–आपका प्रवास कब तक है काशी में ?
पूर्णागिरि बोले–मैं तो कल्पवास के लिए चार माह काशी में निवास करूँगा। उसके बाद आगे की साधना के लिए मैं वापस गिरिनार चला जाऊँगा।
बस दिव्य कैवल्य के कहने पर आपसे मिलने की जिज्ञासा थी जो पूर्ण हो गयी।
खैर, मैंने इस बात का जिक्र नहीं किया कि दिव्यकैवल्य से आपको मेरे बारे में कैसे पता चला। यह योगियों की माया है जो अपने-आप में किसी रहस्य से कम नहीं है। पता नहीं क्यों कोई मुझे अन्दर से रोक रहा था। इसका क्या कारण है ?
मेरा सत्संग चार माह तक चला युवा साधक के साथ। अक्सर मेरी मुलाकात होती ही रहती थी। बस, मैं उस रहस्य को जानना चाह रहा था जो मेरे लिए अबूझ था।
ऐसे ही एक दिन समय देखकर प्रश्न किया–आप तो जागृत हैं क्योंकि आप गर्भ से पैदा नहीं हुए हैं, परकाया प्रवेश किया है। बस उस महात्मा के आवाहन के द्वारा उस बालक के शरीर में प्रवेश कर गये, लेकिन आपकी चैतन्यता तो यथावत बनी रही। तभी तो आपने अपना परिचय दिया और कथा सुनाई।
पूर्णागिरि बोले–बात तो सत्य है, मैं पूर्ण चैतन्य हूँ और बंधनरहित हूँ। जब चाहूँ यह भौतिक शरीर छोड़ सकता हूँ–पूर्णागिरि आगे बोले–उस सन्यासी ने मुझे देखा और अपनी सिद्धि और ज्ञान अपरोक्ष रूप से मेरे मानस-पटल पर स्थानांतरित कर दिया। वह सिद्धि और ज्ञान मेरे लिए अमूल्य है। अब मैं भौतिक शरीर द्वारा अपनी साधना आगे बढ़ाऊंगा। काशी में कल्पवास उस साधना की एक कड़ी है। चातुर्मास यहां रहना है। महाकाल की साधना करनी है। दिव्यकैवल्य से आपका परिचय कैसे हुआ ?
सन्यासी जरा हँसकर बोला–सन्त-समाज की अपनी मण्डली होती है। बस सूक्ष्मशरीर से विचरण कर रहा था, सत्संग हो गया। प्रसंगवश काशी की चर्चा हुई और मुझे चार मास का कल्पवास भी करना था, इसलिए दिव्यकैवल्य ने बतलाया कि आप काशी चले जाएं। आपका नाम लेते हुए कहा कि विकासजी से अवश्य मिलियेगा, आनन्द आएगा। बस सोच ही रहा था कि आपसे कैसे मुलाकात हो ? साधना के बाद खाली समय में सत्संग करना चाह रहा था। माँ की कृपा से संयोग बन गया और देखिये आज मैं और आप एक साथ बैठे हैं।
चर्चावश आत्मा सम्बन्धित प्रसंग चला–पूर्णागिरि बोले–आज शायद आपको विश्वास हो, न हो–मैं सूक्ष्मशरीर द्वारा स्वतंत्र था। शरीर नहीं था, लेकिन शरीर की कमी कभी-कभी खलती थी। आत्मा की चर्चा तो हम बाद में करेंगे, पहले शरीर के विषय में कुछ सत्संग कर लिया जाये।
परमात्मा और आत्मा के बाद साधना-भूमि में यदि किसी वस्तु का महत्व है तो वह है–मानव शरीर का। जिस प्रकार आत्मा परमात्मा का लघु संस्करण है, वैसे ही ब्रह्माण्ड का लघु संस्करण है–मानव शरीर। जिन तत्वों से ब्रह्माण्ड की रचना हुई है, उन्हीं तत्वों से मानव शरीर की भी रचना हुई है। योगियों का कहना है कि पिण्ड यानी मानव शरीर ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है।
योग-मार्ग में मानव शरीर को ही पिण्ड मानकर ब्रह्माण्ड की व्याख्या की गयी है और यह बतलाया गया है कि मनुष्य के किस-किस अंग में ब्रह्माण्ड का कौन-कौन-सा भाग विद्यमान है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्माण्ड की कौन-सी वस्तु मानव शरीर में किस रूप में अवस्थित है। वास्तव में यदि देखा जाय तो मानव शरीर में सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड सिमट गया है। मानव शरीर में वह सर्वाधिक स्पष्ट है, इसलिए कहा गया है–“ब्रह्मांडे$प्यस्ति यत्किंचित तत्पिण्डे$प्यस्ति सर्वथा।”
मानव शरीर को महत्व देने का यह एक रूप है, किन्तु केवल एक शरीर ही नहीं, मनुष्य की वाणी, उसका प्राण, उसका मन और उसका बिन्दु (शुक्र)–सब अपार और अनंत शक्ति के आश्रय हैं। इनमें से किसी एक की साधना से परम् सत्ता को उपलब्ध हुआ जा सकता है।
इसका दूसरा रूप भी कम महत्व का नहीं है। परमतत्व की जो परमशक्ति है, वह जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार पिण्ड में भी व्याप्त है। अन्तर यह है कि वह परमशक्ति पिण्ड में ‘पराशक्ति’ के रूप में विद्यमान है। वही परमशक्ति अणु-परमाणु में व्याप्त है, मगर मानव शरीर में वह सबसे अधिक जागृत है। अन्य योनियों में वह सुप्त है।
योग-तन्त्र उसी को ‘पराशक्ति’ कहता है। इस पराशक्ति के तीन प्रारम्भिक रूप हैं–इच्छा, ज्ञान और क्रिया। इसलिए इस महाशक्ति को ‘त्रिधारा’ या ‘त्रिपुरा’ भी कहते हैं। मानव शरीर में ये तीनों रूपों के केंद्र हैं–हृदय, मस्तिष्क और नाभि। यह पराशक्ति देवताओं में भी जागृत नहीं है, क्योंकि देवता प्राकृतिक शक्तियों के रूप में हैं। उनकी योनि भोग- योनि है। उनमें केवल भोगने की शक्ति है।
वे जिस कार्य के लिए उद्दिष्ट हैं, उससे अधिक या कम की इच्छा ही नहीं होती है। अग्नि केवल जला सकती है। उसमें अन्य प्रकार के कार्य की इच्छा नहीं होती। क्रिया तो होगी ही कहाँ से ? इसलिए योग कहता है–देवताओं में पराशक्ति का अभाव है। वे प्राकृतिक शक्तियों के विभिन्न रूप मात्र हैं। मनुष्य में वह पराशक्ति ‘कुण्डलिनी’ के रूप में है जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में स्पष्ट है.
इसलिए मानव योनि देव योनि से भी श्रेष्ठ है। इसलिए परात्पर पुरुष यानी परमेश्वर को जब कुछ विशेष करना होता है तो उसे मानव शरीर धारण करना पड़ता है।
मानव शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण है–आत्मा। मन, पंचप्राण, वाणी और शुक्र–ये पांच शक्तियां केवल मानव में हैं, अन्य जीवों में ये एक साथ दुर्लभ हैं। तन्त्र में इन्हें ही ‘पंचाग्नि’ कहते हैं जिनका बहुत महत्व होता है।
परब्रह्म की जो आदिशक्ति है, वह जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में ब्रह्मांडीय ऊर्जा के रूप में व्याप्त है और है–क्रियाशील, उसी प्रकार सूक्ष्म रूप से वह मानव शरीर में भी क्रियाशील है। मानव योनि कर्मप्रधान है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश इन पञ्च महाभूतात्मक पदार्थों से स्थूल शरीर और स्थूल जगत की रचना हुई है।
अन्य जीवों और अन्य लोकों में पृथ्वी तत्व न होने से वे दृश्य जगत में प्रकट नहीं हो सकते– पूर्णागिर बोले–जैसे पहले मैं सूक्ष्म शरीर में था। मैं सब कुछ देख सकता था, सब कुछ अनुभव कर सकता था, जहां चाहे वहाँ जा सकता था, लेकिन पृथ्वी तत्व न रहने से प्रत्यक्ष न हो सका।
देखा जाए तो मानव शरीर ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों का केंद्र है। बस उसे जागृत कैसे किया जाय–यह महत्वपूर्ण है। शर्माजी !–पूर्णागिरि बोले–आप जानते हैं–शरीर में सबसे महत्वपूर्ण चक्र है–मूलाधार चक्र। इसे सिद्ध किये बिना आगे का मार्ग कभी भी प्रशस्त नहीं हो सकता। एक प्रकार से इसका सूक्ष्म रूप त्रिकोण है।
यह त्रिकोण वास्तव में ‘योनिरूपा’ है। तंत्र में योनिरूपा त्रिकोण को मातृरूपा शक्तिपीठ कहते हैं यानी ‘मातृअंक’। इस त्रिआयामी जगत में जीव का आविर्भाव इसी मातृअंक से ही सम्भव है–यह प्रकृति का रहस्य है। इस त्रिकोण पीठ यानी योनिपीठ का बायां कोण ‘ज्ञानशक्ति’ का, दायाँ कोण ‘इच्छाशक्ति’ का और नीचे वाला कोण ‘क्रियाशक्ति’ का है।
तीनों कोण पराशक्ति के तीन रूप सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में सक्रिय हैं जिससे सारा ब्रह्माण्ड चल रहा है। तीनों कोणों के मध्य लिंगस्वरूप शिव विद्यमान है जिससे चिपटकर कुण्डलिनी युग-युगांतर से सुप्तावस्था में विद्यमान है।
समय कब व्यतीत हो गया–पता ही नहीं चला। युवा सन्यासी की साधना का समय हो गया। फिर मिलने की बात कहकर वह झटके से उठे और अपने गन्तव्य की ओर चले गए। हाँ, अपने स्थान का पता अवश्य दे गए। बोले–दो दिन मैं समाधि में रहूँगा, आप परसों आइयेगा मेरे निवास पर, वहीं सत्संग होगा। उस दिन मैं खाली हूँ। कोई काम नहीं है।

  रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। बस सोचता रहा। मन्थन चल रहा था। कब घर पहुंच गया पता ही नहीं चला। निर्धारित समय पर पहुँच गया सन्यासी के पास। हल्की सर्दी का एहसास हो रहा था।
  _जब पहुंचा तो दरवाजा बन्द था। जैसे ही मैंने दरवाजा खटखटाना चाहा, दरवाजा अपने-आप ही खुल गया। अन्दर से भीनी-भीनी सुगन्ध आ रही थी। दीपक की मन्द-मन्द रोशनी में वहां का वातावरण सम्मोहित-सा करने लगा। पूर्णागिरि ध्यानस्थ बैठे थे अपने आसन पर।_
     ऐसा लगा मानो आसन से थोड़ा ऊपर उठे हुए हैं। हो सकता है कि मेरा भ्रम हो। सामने त्रिकोण रूप में लाल रोली की योनिपीठ बनी हुई थी और उसी के सामने कुछ पूजा की सामग्री रखी हुई थी। योनिपीठ के सामने महाकाल का प्रतीक शिवलिंग था। स्वामीजी दो दिन से विशेष साधना (समाधि) में थे। सोचा--कहीं मैं जल्दी तो नहीं आ गया ? 
  पूर्णागिरि का ध्यान भंग हुआ तो वे मेरी ओर देखते हुए बोले--आप आ गए। आइए..आइए। तभी मेरी नजर पुनः उनके आसन की ओर गयी। देखा--उनका शरीर आसन से थोड़ा ऊपर उठा है। ऐसा लग रहा था कि उनका शरीर पद्मासन की मुद्रा में हवा में लटक रहा हो। मैं यही सोच रहा था कि शायद मेरा भ्रम है। तभी उन्होंने मेरा ध्यान भंग कर दिया। वह कहने लगे--भला शिव-साधना सबके वश की बात नहीं  है। उन्हें साधना सम्भव नहीं है।
  _ध्यान व समाधि की अवस्था में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण अवरोध पैदा करता है। इसलिए उच्चकोटि के साधक आसन-सिद्धि कर भूमि से अपने शरीर का आकाश तत्व से सहयोग लेकर जमीन से ऊपर उठकर लोक-लोकांतर की यात्रा करते हैं। जो आपने देखा, वह आपका भ्रम नहीँ था।_

आपने जो देखा वह आपका भ्रम नहीं था। देखना चाहते हैं तो चलिए एक बार पुनः आपके सामने करके दिखा सकता हूँ–युवा सन्यासी ने कहा।
मैं कुछ बोला नहीं। फिर देखा कि सन्यासी ने पहले पूरक करके कुम्भक किया तो क्या देखता हूँ कि उनका शरीर आसन से 10-12 इंच ऊपर उठ गया। फिर धीरे-धीरे यथास्थान वापस आ गया। एकबारगी तो मैं हतप्रभ रह गया। पहली बार आसन-सिद्धि का चमत्कार देखा था, इसलिए अपनी आंखों पर सहसा विश्वास नहीं हो पा रहा था।
सन्यासी सामान्य हुआ। प्रसाद दिया। कुछ देर विश्राम करने के बाद बोले–काशी आने का एक मात्र उद्देश्य है–महाकाल की साधना।
मैंने कहा–महाकाल साधना तो श्मशान साधना है।
सन्यासी पूर्णागिरि बोले–
श्मशान साधना तो है ही, तन्त्र में विकासजी ! आपको बता दूँ–आप संस्कारजन्य साधक हैं, आपके पास भी योग-तन्त्र का असीम ज्ञान है। महाश्मशान एक प्रकार से बिल्कुल अलग जगत है, बल्कि कहना चाहिए कि महाश्मशान का पूरा विस्तार विश्वब्रह्माण्ड है जहां हर पल निर्माण हो रहा है और हो रहा है–विनाश। हम साधकगण तो केवल महाकाल की आराधना करते हैं। उनकी कुछ इच्छाएं हैं, उन्हें कौन साध सकता है ? सब कुछ महाकाल में लय हो रहा है। बिना शिव के मोक्ष सम्भव नहीं है।
महाकाल को साधने का प्रयास महापण्डित रावण ने भी किया था, वह महाकाल को सिद्ध करना चाहता था। लेकिन उसके भीतर अहंकार उत्पन्न हो गया। महाकाल की अनुकम्पा ऐसे ही नहीं मिल जाती। उसके लिए समर्पण चाहिए। अहंकार समर्पण के भाव को नष्ट कर देता है।
जगत में तीन प्रकार की अग्नियां प्रत्यक्ष जल रही हैं। पहली अग्नि सूर्य है, दूसरी अग्नि श्मशान अग्नि है और तीसरी अग्नि मानव शरीर में जठराग्नि के रूप में निरन्तर जल रही है। अहंकार की अग्नि की उत्पत्ति विनाश की द्योतक है।
योग-तन्त्र और आत्मा सम्बन्धी चर्चा पूर्णागिरि से चार मास तक चली। जब उनका कल्पवास पूरा हो गया तो एक दिन उन्होंने कहा–शर्माजी ! अब मेरे प्रस्थान का समय हो गया है। माँ चाहेगी तो फिर भेंट होगी।
चार मास का समय कब समाप्त हो गया–पता ही नहीं चला। समय तो अपनी गति से चलता ही रहता है। वह रुकता नहीं। किसी का इंतज़ार नहीं करता। पूर्णागिर गिरिनार चले गए। मैं रह गया अकेला। ऐसे महापुरुष का सत्संग बड़े सौभाग्य से मिलता है।
वैसे तो आत्मा के वाहक पांच शरीर हैं–स्थूल शरीर, भाव या वासना शरीर, सूक्ष्म या प्राण शरीर, मनःशरीर अर्थात मनोमय शरीर और आत्म शरीर। इनमें तीन वाहक शरीर मुख्य हैं–स्थूल शरीर, सूक्ष्मशरीर और लिंग शरीर। स्थूल शरीर और वासना शरीर का समिश्रण सूक्ष्मशरीर है। सूक्ष्म शरीर की साधना योग-तन्त्र में काफी महत्वपूर्ण है। स्थूल शरीर रहते हुए ही सूक्ष्मशरीर की साधना से साधक सूक्ष्मशरीर के माध्यम से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर लेता है। वह सूक्ष्म जगत में आवागमन कर सकता है।
जब साधक की आत्मा को उच्चावस्था प्राप्त होती है तो सूक्ष्मशरीर और मनोमय शरीर का मिश्रण लिंग शरीर को वह उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार मनोमय शरीर आत्म शरीर का मिश्रण कारण शरीर कहलाता है। जाग्रत अवस्था में आत्मा स्थूल जगत में रहती है। स्वप्नावस्था में आत्मा लिंग शरीर में रहती है और तुरीयावस्था में आत्मा कारण शरीर में रहती है। यह आत्मा का निज शरीर है।
मरणोपरांत आत्मा जिस शरीर में जिस अवस्था में प्रवेश करती है, वह मूढावस्था है, स्वप्नावस्था है। मृत्यु के बाद हम स्वप्न की इस अवस्था में उसी प्रकार जागते हैं जैसे हम गहरी नींद के बाद जागते हैं। जागरण-काल से मृत्यु के पल तक सारी घटनाएं हमें स्वप्न-सी प्रतीत होती हैं।
उस समय ऐसा लगता है जैसे हम नींद से एक लम्बा स्वप्न देखकर जाग गए हैं। उस अवस्था में प्राप्त जीवन, जगत और वातावरण हम उसी प्रकार सत्य समझने लगते हैं जैसे जागृत जीवन में स्वप्न के देखने के बाद लौटते हैं। जब आत्मा जागने के बाद स्थूल शरीर-विहीन अपने को जिस शरीर में पाती है तो उसे ही प्रेत शरीर कहते हैं।
वासना क्षय होने के बाद आत्मा फिर सुप्तावस्था को प्राप्त कर लेती है, उसे एक प्रकार से मूढावस्था कहते हैं और उसके बाद सूक्ष्म शरीर को प्राप्त कर पुनर्जन्म के लिए तैयार पाती है अपने को। पुनर्जन्म होने पर अपवाद को छोड़कर आत्मा को पूर्व जन्म की स्मृतियाँ नहीं रहतीं। हां उनका संस्कार बीज रूप में अवश्य रहता है। आत्मा उन्हीं संस्कारों को लेकर पुनर्जन्म के लिए गर्भ में प्रवेश करती है। इस प्रकार आत्मा हज़ारों जन्मों के संस्कार समेटे हुए रहती है और जन्म-पुनर्जन्म के चक्कर पड़ती रहती है।
योग-तन्त्र में जितनी साधनाएं हैं, सब इन्हीं संस्कारों के क्षय के लिए हैं। जिस प्रकार हमारे सिर पर एक भारी-सा बोझ रख दिया जाय तो कुछ ही देर में उस बोझ से हम घबराने लगेंगे, उसी प्रकार हमारे सिर से संस्कारों का भारी बोझ उतर जाता है तो आत्मा को सुख-शांति मिलती है और यही सुख-शान्ति साधना के बाद मनुष्य को प्राप्त होती है।
(लेखक मनोचिकित्सक, ध्यानप्रशिक्षक एवं चेतना विकास मिशन के निदेशक हैं.)

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