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परामनोविज्ञान कथा : प्रथम पात्र

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[मेरे साधनाकालीन जीवन पर आधारित घटनाक्रम]

          *~ डॉ. विकास मानव*

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        पूर्वकथन : आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मेरा स्पष्ट उद्घोष है : “बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.“

       लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं. वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।

      तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. *इस युग से पहले किसी भी युग में तंत्र क़ो व्यापार का आधार नहीं बनाया गया. इसीलिए यह विद्या फलित होती थी. जैसे ही इसे व्यापार और शोषण का साधन बनाया गया, ये बे-असर हो गई*. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.

       तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। सुक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर परिचय देकर अपॉइंटमेंट लेने के बाद हमसे संपर्क कर सकते हैं.

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        _अपने शोध एवं अन्वेषण की दिशा में सर्वप्रथम जिस महापुरुष से मैंने संपर्क स्थापित किया, वे थे महातन्त्र-साधक भवानीशंकर भादुड़ी। भादुड़ी महाशय काशी के मानसरोवर मुहल्ले में रहते थे उन दिनों। मझोला कद, गौरवर्ण, खल्वाट सिर, दाढ़ी-मुछ सफाचट, दोहरी काया, थोड़ा आगे निकला हुआ पेट और साधना के तेज से दप-दप करता हुआ मुखमण्डल, नेत्रों में भी प्रखरता कम न थी।_

      संभवतः डॉ गोपीनाथजी कविराज ने बतलाया था कि भादुड़ी महाशय ढाका विश्वविद्यालय में कभी प्राध्यापक थे। परिवार में अकेले थे। शादी-व्याह नहीं किया था। शुरू से ही मनस्वी और एकान्त प्रिय थे। तब उनका थोड़ा-थोड़ा तांत्रिक साधना की ओर रुझान था।

     ढाका में ढाकेश्वरी देवी का मंदिर है। त्रिपथगा नदी मन्दिर के बायीं ओर वक्राकार घूमती हुई आगे बढ़ गयी है। धारा अत्यधिक प्रखर और प्रचंड है। मन्दिर के निकट काफी लम्बा-चौड़ा घाट है पक्का और उस पक्के घाट के ऊपर है एक विशालकाय पीपल का पुराना वृक्ष।

      प्रत्येक वर्ष अश्विन नवरात्र में दुर्गापूजा के अवसर पर बड़ा भारी मेला लगता है वहां। काफी दूर-दूर से लोग आते हैं वहां। पूरे नौ दिन ढाकेश्वरी देवी का पूजनोत्सव चलता है। अष्टमी की महानिशा बेला में माँ के सम्मुख महिषबलि दी जाती है और विशेष तांत्रिक विधि से दो दिन यानी यानी अष्टमी-नवमी को यूज-अर्चना होती है महामाया की।

       उस अवसर पर अनेक तन्त्र-साधकगण भी उपस्थित होते हैं। प्रत्येक वर्ष की तरह उस वर्ष भी दुर्गा पूजनोत्सव मनाया जा रहा था धूमधाम से।

      महास्टमी का प्रातःकाल। घाट पर स्नानार्थियों की भारी भीड़। बुर्जियों पर भट्टाचार्य लोक उच्च स्वर में चंडीपाठ कर रहे थे। थोड़ी दूर पर कुलवधुएं लालपाढ़ की साड़ी पहने, घूंघट काढ़े हाथ मे जलकलश लिए देवी की स्तुतिगान कर रही थीं।

      भवानी बाबू गंगास्नान करके धीरे-धीरे सीढियां चढ़ते हुए ऊपर आ रहे थे। तभी उनकी दृष्टि पीपल के नीचे बैठे एक साधु पर पड़ी। सिर पर जटाजूट, लम्बी दाढ़ी, लम्बी-चौड़ी काठी, शरीर पर लाल रंग का चोंगा और उसी रंग का अंगरखा, मस्तक पर त्रिपुण्ड और उस त्रिपुण्ड के बीचोबीच लाल सिन्दूर का बड़ा-सा गोल टीका, गले में झूलती हुई रुद्राक्ष, स्फटिक और मूंगे की मालाएँ।

      साधू तनकर बैठा हुआ था। उसकी आंखें मुदी हुई थीं। चेहरा दमक रहा था तेज से। निश्चय वह कोई तांत्रिक साधु था।

      काफी देर तक मंत्रमुग्ध से देखते रहे अपलक भवानी बाबू उस तांत्रिक साधु की ओर और फिर न जाने किस अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर उन्होंने दोनों हाथों से पकड़ लिये उस तन्त्र-साधक के चरण। झर,-झर कर आंसू भी गिरने लगे आंखों से। स्वयं भवानी बाबू को भी समझ नहीं आया कि वे आंसू क्यों गिर रहे हैं।

      कुछ क्षण बाद बन्द आंखें खुलीं साधु की। शायद अभी तक समाधिष्ठ था वह। आंखे खुलते ही एकबारगी चौंक पड़ा वह जैसे बिजली का करेंट लग गया हो अचानक उसे।

     फिर आश्चर्य भरे स्वर में बोला–अरे ! भवानी तू ! यहां कैसे ? तुझे तो न जाने कब से खोज रहा था मैं।

      कुछ समझ नहीं आया भवानी बाबू को। बस टुकुर-टुकुर देखते रहे वह साधु के चेहरे की ओर। साधु भी आगे कुछ नहीं बोला। उसने दाहिना हाथ उठाया  और भवानी बाबू के सिर पर रख दिया। दूसरे ही क्षण बेसुध हो गए भवानी बाबू और जब सुध लौटी तो अपने आपको पाया एक गुफा में। गुफा में कैसे और कब पहुंच गए–,समझ में नहीं आया उनको।

       यह भी समझ में नहीं आया कि वह गुफा में किस स्थान पर हैं। बाद में स्पष्ट हुआ सब कुछ।

      वह साधु और कोई नहीं, महातंत्र-साधक अघोरानंद थे भवानी बाबू के पिछले जन्म के गुरु।

      सिर पर हाथ रखकर भवानी बाबू को शक्तिपात दीक्षा दी थी उन्होंने जिसके फलस्वरूप उनका साधना-संस्कार जागृत हो गया था। अपने गुरु के सान्निध्य में रहकर पूरे दस वर्ष उस गुफा में तन्त्र-साधना की थी और उसके बाद गुरु के आदेश पर काशी चले आये वह।

      दस वर्ष के साधना-काल में कई अद्भुत तांत्रिक सिद्धियां प्राप्त की थीं भवानी बाबू ने लेकिन अपनी सिद्धियों की चर्चा बहुत कम करते थे वह। किसी प्रकार के प्रदर्शन का प्रश्न ही नहीं था।

      सिद्धियों की चर्चा और उनके प्रदर्शन के बिल्कुल विरुद्ध थे वह। उनका कहना था कि इससे साधक की शक्ति नष्ट होती है। लेकिन एक बार सौभाग्यवश भादुड़ी महाशय का एक अविश्वसनीय चमत्कार और वह भी पैशाचिक देखने का अवसर मिल ही गया था मुझे।

      भवानी शंकर भादुड़ी जिस मकान में रहते थे वह बंगाल के नाटोर स्टेट का था। मकान दो मंजिला था मगर था काफी छोटा। कुल पांच कमरे थे छोटे-छोटे। नीचे तीन कमरे थे और ऊपर दो। नीचे वाले एक कमरे को मन्दिर बना रखा था भादुड़ी महाशय ने जिसमें नर-मुंड पर विपरीत रति काली की कांस्य मूर्ति स्थापित थी। मूर्ति तो छोटी ही लेकिन थी अत्यंत तेजोमयी और भव्य। बगल वाला कमरा भादुड़ी महाशय का साधना-कक्ष था जिसमें प्रवेश करते ही एक विचित्र-सी शांति का अनुभव होता था।

       क्यों बन्द रहता था वह कमरा मेरी समझ के बाहर था। लेकिन उस दिन उसका रहस्य खुल ही गया।

      सावन-भादों का महीना था। सवेरे से ही पानी बरस रहा था जोर-जोर से। सांझ के समय जब पानी थोड़ा थमा तो नित्य की भांति पहुंच गया मैं भादुड़ी महाशय के निवास पर। संयोग से दरवाजा खुला था। सांकल खड़खड़ानी नहीं पड़ी। देखा–हमेशा बन्द रहने वाला वह कमरा खुला था। भीतर 25 पॉवर के बल्ब का प्रकाश फैला था और उस हल्के पीले प्रकाश में कमरे के भीतर जो आश्चर्यजनक और कौतूहलपूर्ण दृश्य उभरा, वह निश्चय ही रोमांचकारी और अविश्वनीय था।

      कमरे में एक ओर काले मारबल की पत्थर की एक चौकी थी और उस चौकी पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा था जो मनुष्य होते हुए भी पूर्ण मनुष्य नहीं था। उसके कुछ लक्षण विचित्र और अमानवीय थे। उस व्यक्ति का रंग बिल्कुल काला था। शरीर गठीला और कद ठिगना था। सिर तो सफाचट था पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी। उसकी आंखें गोल-गोल और स्थिर थीं।

       शायद पलकें झपक नहीं रही थीं। उन आंखों में विचित्र भाव था। यदि उसे घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध का मिला-जुला भाव कहा जाय तो उपयुक्त होगा।

      उस रहस्यमय व्यक्ति के हाथ तो सामान्य थे मगर दोनों हाथों की उंगलियां काफी लम्बी-लम्बी थीं। सर्वांग नग्न था वह। सबसे विस्मयकारी बात तो यह थी कि उसका सारा शरीर पारदर्शी था। पद्मासन की मुद्रा में बिल्कुल तनकर सामने की ओर स्थिर भाव से देखते हुए बैठा था वह विचित्र मानव। उसके सामने शराब की खुली बोतल और कच्चा मांस रखा हुआ था। थोड़ा-सा हटकर भादुड़ी महाशय भी बैठे हुए थे। उनकी पीठ दरवाजे की ओर थी, इसीलिए उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ने की संभावना ही नहीं थी। हाँ ! एक बात बतलाना तो भूल ही गया वह यह कि उस व्यक्ति के चेहरे और गर्दन पर चोट और घाव के कई ताजे निशान थे जिनमें से खून रिस-रस कर चू रहा था जिस कारण उसका चेहरा  वीभत्स दिखाई दे रहा था।

      पानी बन्द हो चुका था। सांझ गहरा गयी थी। मैं आंगन में लगे पारिजात के पेड़ की ओट में हो गया। अब मैंने देखा–अपने हाथों से मांस और मदिरा खिला-पिला रहे थे भादुड़ी महाशय उस रहस्यमय व्यक्ति को। उसके खा-पी लेने के बाद मैंने देखा–वह बैठे-बैठे अपने स्थान से अचानक गायब हो गया। निश्चय ही वह कोई रहस्यमय पैशाचिक चमत्कार था–यह समझते देर न लगी मुझे।

*अशीरगढ़ का पिशाच :*

         सब कुछ देखने के बाद चुपचाप लौट आया मैं। पूरी रात सोया न गया मुझसे। बराबर उस रहस्यमय व्यक्ति का चेहरा मेरे सामने थिरकता रहा। कभी-कभी चेहरे की वीभत्सता के कारण रोमांचित हो उठता था मेरा सारा शरीर। दूसरे दिन ज्वर हो आया मुझे। चार-पांच दिन ज्वरग्रस्त रहा मैं और जब उसके बाद भादुड़ी महाशय से मिलने गया तो मौन साधे बैठे हुए मिले वह। मुझे देखते ही हम्भीर स्वर में बोले–उस दिन तुमने जो कुछ देखा-सुना उसे भूलकर भी किसी को न बतलाना, समझे। वर्ना… वर्ना… खतरे में पड़ जाओगे।

      यह सुनकर भौचक्का पड़ गया मैं। कैसे पता लगा मेरी उपस्थिति का ? समझ में नहीं आया मुझे। बाद में सारा रहस्य अनावृत हो गया। सारी कथा भादुड़ी महाशय ने ही बतलायी मुझे। वह रहस्यमय व्यक्ति कभी मनुष्य था और उसका नाम था मल्थू अग्नेइया। अग्नेइया उसके बाप का नाम था। मल्थू मध्य प्रदेश के जिस गोड़ आदिवासी जाति का था, उसमें अपने नाम के बाद बाप का नाम भी जोड़ने की परंपरा थी।

      सौ–सवा सौ वर्ष पहले असीरगढ़ के किले के नर-बलि कक्ष की खिड़की से नीचे गहरी खाई में कूदकर अपनी जान दे दी थी मल्थू ने। जिस भादुड़ी महाशय के कमरे में मैंने मांस-मदिरा का भोग लगाते हुए देखा था भादुड़ी महाशय को, वह मल्थू का ही पिशाच था जिसे सिद्ध कर अपने अधिकार में कर रखा था उस तन्त्र-साधक ने।

      पिशाच और पिशाच- लीला के सम्बन्ध में काफी कुछ पढा-सुना था लेकिन कभी जीवन में पिशाच का दर्शन भी होगा इसकी कल्पना सपने में भी नहीं की थी मैंने।

      जिन दिनों की यह बात है उस समय मेरे एक मित्र थे। नाम था मदन मोहन चौबे। चौबेजी इतिहास के विद्यार्थी थे। मध्य प्रदेश और मध्य भारत के इतिहास का गहराई से अध्ययन किया था चौबेजी ने।   

        प्रसंगवश एक दिन उनसे असीरगढ़ की चर्चा की मैंने। चौबेजी ने बतलाया कि असीरगढ़ का किला आज भी भुतहा माना जाता है। भूत-प्रेतों का अड्डा ही मानें आप उस किले को।

      ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डालते हुए चौबेजी आगे बोले–दक्षिण भारत को शेष भारत से अलग कर देने वाले खानदेश की सीमा पर बुरहानपुर मुगलों के जमाने में दक्षिण सूबे की राजधानी थी। सभी दृष्टि से दिल्ली के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर  था बुरहानपुर उस समय। अबुल फजल ने उसे नाम दिया था–‘दारुर सुरूर’। खानदेश के फ़ारसी बादशाह नसीरूद्दीन ने उसे बसाया था और उसे सजाया था मुगल बादशाहों ने। फारूकी मुगल और सिंधिया सुल्तानों का उत्थान और पतन देखा था 1400 ई० में उस पाषाण नगर बुरहानपुर ने।

          विंध्याचल पर्वत की आखीरी श्रृंखला में स्थित इसी उजाड़ शहर से लगभग 14-15 मील दूर पर बना था असीरगढ़ का काफी लम्बा-चौड़ा किला, समुद्र की सतह से केवल चार-पांच फीट ऊँचा।

      50-55 वर्ष केअपने सुदीर्घ शासन काल में अपने 25 वर्ष आलमगीर यानी औरंगजेब ने इसी असीरगढ़ में गुजारे थे। अपनी शाखाएं-प्रशाखाएँ फैलाकर एक विराट चंदोवे जैसा समूचे खानदेश और गोंडवाना के भूखंड पर छा गया था असीरगढ़ जहाँ जिंदा आदमियों की बलि दी जाती थी हर वर्ष दीपावली की काली रात में।

       एक ही आदमी की नहीं, एक साथ कई-कई आदमियों की। रक्त से भीग जाती थी बलि- कक्ष की पूरी जमीन।

       यह सामूहिक नरबलि क्यों और किसलिए दी जाती थी ? मेरे पूछने पर चौबेजी ने धीरे से सिर हिलाकर बतलाया– मुझे नहीं मालूम। इतिहासकारों ने भी इस रहस्य पर प्रकाश नहीं डाला है। शायद आवश्यक नहीं समझे इसे। (आज के परिवेश में यह बात समझ में भलीभांति आती है कि सामूहिक नरसंहार नरबलि के नाम पर क्यों होता था )

      पूरी रात सोया न गया मुझसे। सामूहिक नरबलि की जो चर्चा चौबेजी ने की थी, उसने मेरे मन में तरह-तरह की जिज्ञासाओं की सृष्टि कर दी थी एकबारगी। शोध और अन्वेषण की वृत्ति प्रबल हो उठी थी मेरी। न जाने किस अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर दूसरे ही दिन रवाना हो गया मैं असीरगढ़ के लिए।

 *वह भयंकर पिशाच लीला :*

          उस जमाने में हावड़ा से चलकर मुगलसराय से गुजरने वाली बम्बई के लिए केवल दो ही गाड़ियां थीं– हावड़ा-बम्बई जनता एक्सप्रेस और हावड़ा–बम्बई मेल। उन दिनों एक्सप्रेस और मेल गाड़ियों में चार क्लास होते थे–थर्ड क्लास, इंटर क्लास, सेकेंड क्लास और फर्स्ट क्लास। जनता गाड़ियों में तो केवल थर्ड क्लास ही होते थे।

        किसी प्रकार बम्बई मेल के इंटर क्लास की बोगी में एक सीट मिल गयी जिस पर पूरा दिन और आधी रात  गुजर गई बैठे-बैठे। लगभग दो बजे बुरहानपुर पहुंचा मैं। पूरा स्टेशन सांय-सांय कर रहा था। जो लोग गाड़ी से उतरे थे, वे स्टेशन से बाहर जा चुके थे। हाथ में अटैची और बेडिंग लिए खड़ा-खड़ा न जाने क्या सोच रहा था मैं और तभी प्लेटफार्म पर जलने वाली किरोसिन ऑयल के लैंप की चिपचिपाहट भरी पीली रोशनी में अचानक मुझे एक आकृति दिखलायी दी।

       वह आकृति धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रही थी। कुछ ही क्षणों में वह मेरे बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गयी। ध्यान से देखा–एक आदिवासी युवक था वह–,मझोला कद, गठीला शरीर, काला रंग और आयु यही कोई 25-26 वर्ष के लगभग।

      मेरे बिल्कुल करीब आकर बोला वह–हुजूर ! असीरगढ़ जाएंगे न ?

      मेरे मुंह से अचानक निकाला–हाँ ! वहां तक पहुंचना कैसे हो सकता है ?

      हुजूर ! परेशान न हो। मैं असीरगढ़ का ही रहने वाला हूँ। आप लॉरी से आनू गांव आ जाएं हुजूर, वहीं मिल जाऊंगा मैं आपको, फिर कोई तकलीफ न होगी हुजूर को।

      तुमने अपना नाम नहीं बतलाया। क्या नाम है तुम्हारा, सिगरेट सुलगाते हुए पूछा मैंने– झूना, झूना नाम है हुजूर मेरा। ठीक है, सुबह मिलेंगे–झूना के हाथ पर एक रुपए का सिक्का रखते हुए कहा मैंने।

      लगभग तीन बजे पहुंचा मैं। आनू गोड जाति के आदिवासियों का एक छोटा-सा गांव था वह। झूना मुझे मिल गया स्टेशन पर ही। थोड़ी तसल्ली हुई। झूना के साथ एक और युवक था, नाम था रहलू। दो-चार दिन किले में रहूंगा–यह मैंने झूना को बतला दिया था इसलिए उसने अपने साथी रहलू को मेरी सेवा में नियुक्त कर दिया था। खाना और पांच रुपये रोज देना था मुझे रहलू को।

      झूना को साथ लेकर पहाड़ की चोटी पर पहुंचा मैं। फिर थोड़ा ढलान से उतर कर सामने की घाटी का दृश्य देखने लगा। दूर-दूर तक सांय-सांय करते हुए बियावान के बीच बना फारूकी बादशाहों का सदियों पुराना वह भीमकाय खण्डहर वहां से बिल्कुल साफ दिखलायी दे रहा था। झूमा ने बतलाया कि गोड सामन्त अपने युद्ध अभियान पर प्रस्थान करने से पहले वहां नरबलि दिया करते थे।

      भग्नावशेषों में परिणत हो आये उस किले के चारों ओर कीकर, आम, महुए और पीपल के घने वृक्ष क्रम से पहाड़ों पर चढ़ते चले गए थे। हरीतमा के बाद और गहरी हरीतमा पग-पग पर और गाढ़ी होती चली गयी थी। इन वृक्षों पर अमरबेल की लतारें लिपटी हुई थीं।

      बरसात खत्म होने को थी, लेकिन गाढ़ी हरियाली पर पिछली रात हुई बारिश के निशान मौजूद था। किले तक पहुंचने के लिए एक ओर संकरा-सा रास्ता दिखलायी दे रहा था पत्थरों से भरा हुआ। शेष सारी घाटी घने जंगलों से भरी हुई थी। सितंबर का महीना था उदास और स्याह। मैदानी इलाके में जहाँ दरवाजे और खिड़कियां खड़खड़ाने वाली बारिश से भीगी पागल हवा का शोर था, वहीं असीरगढ़ की धुंधली अंधेरी तलहटियों में शीत का आलम था।

      किले में रहलू ने मेरा सामान पहले ही पहुंचा दिया था। आनू गांव से लगभग हज़ार फ़ीट ऊपर स्थित असीरगढ़ के टेढ़े-मेढ़े रास्तों तक पहुंचाने के लिए झूना मेरे साथ हो लिया था। जब किले में मैं पहुंचा, उस समय शाम हो चली थी।

       रहलू लम्बी और कठिन चढ़ाई तय करके बैठा हुआ चिलम के कश लेकर सुस्ता रहा था। डूबते सूरज की सुनहरी किरणों से असीरगढ़ का हर कोना जगमगा रहा था। किले के पास ही 867 की ऊंचाई पर फारुखी बादशाहों की नायाब कारीगरों के मन को छू लेने वाले दिलकश नमूने सिकन्दरी तालाब के पानी पर आखीरी धूप की रोशन चिलमन झिलमिला रही थी। किले की हाथी से भी दो गुनी अधिक ऊंचाई वाली दीवारें,  जालीदार मेहरावें और आयताकार वारादरियां–सब कुछ टूट-फूट गयी थीं।.

       लेकिन बुझती हुई सांझ के धब्बे बड़ी प्रचुरता में उन पर बिखर गए थे। धूप वृक्षों की फुनगियों, जंगली बेलों पर और रंगबिरंगे फूलों पर छितराती हुई चौतरफा फैल गयी थी। समूची तलहटी को किसी करधनी की तरह पहने हुए बहुत लम्बा पांच मील के अहाते में फैला हुआ विशाल असीरगढ़–एक खामोश शान्त नीरव बुर्ज की तरह सुनसान घाटी में ठिठका-सा रह गया था।

      अंगारे की तरह धधकता हुआ सूरज अब बुझ चला था और उसकी लालिमा से पहाड़ों का चमकता स्वरूप हो गया था। उसके बाद धुन्ध थी। वह आधे चाँद की रात थी लेकिन चाँद अभी निकला नहीं था। किला नितान्त सुनसान निर्जन था और था निस्तब्ध। लेकिन तब भी मुझे लगता रहा कि वहां मैं अकेला नहीं हूँ।

        किले में घुसते ही एक विचित्र-सी धुंधली-सी एक बेचैनी हावी हो गयी थी मुझ पर। मेरे पैरों ने मुझे आगे ले जाने से इनकार कर दिया था मानो मैं कोई अवांछित व्यक्ति हूँ, जैसे कोई अशरीरी शक्ति यह अहसास दिलाती हुई मुझे वापस लौटने के लिए कह रही हो–जाओ, फौरन भाग जाओ यहां से वर्ना…।

      उस पहली सांझ के समय असीरगढ़ की निस्तब्ध पिशाचपुरी में जो मुझे भय लगा था उससे मैं सोचने को विवश था कि चौबे जी की बात सच थी। निश्चय ही यह किला भूत, प्रेत और पिशाचों का पुराना अड्डा था–इसमें संदेह नहीं।

        22 सितम्बर, 1990 की उस लम्बी अँधेरी और अराजकता भरी रात में अपने जीवन को और अपने प्राण को संकट में डालकर जो भयंकर, रोमांचकारी और अविश्वसनीय पिशाच-लीला मैंने देखी थी और नरबलि- कक्ष के गवाक्ष के बाहर निकला हुआ वह रक्तहीन झुलसा हुआ हाथ देखा था, उसे स्मरण करके आज भी कांप उठता हूँ मैं।

      यह किला तो काफी पुराना है, यहां कोई आता-जाता भी है ?– झूमा से पूछा मैंने।

      अक्सर एक गोड़ दीखता है लोगों को हुजूर–झूमा ने बुझी हुई बीड़ी फेंकते हुए जवाब दिया–बतलाते हैं कि पिछले सौ–सवा-सौ साल से वह इस किले में घूम रहा है और रात-दिन कभी भी नजर आ जाता है।

      कितनी उम्र होगी उस आदमी की ?–मैंने सहज पूछा।

      यही कोई 24–25 साल की रही होगी साहब–अपने अन्दर छायी हुई दहशत को हल्का करने के लिए हंसने लगा मैं। 24–25 वर्ष का आदमी  सौ वर्ष से घूम रहा है इस किले में। वाह ! वाह ! सुनकर मजा आ गया झूमा।

      उसके जिस्म से खून रिसता रहता है साहब–झूमा गम्भीर स्वर में बोला–आपको नरबलि की बात बतलायी थी न ? कहते हैं–भैरव बाबा के सामने जब नरबलि चढ़ाई जा रही थी तो नीचे कूद गया था वह। उसकी लाश तक नहीं मिली थी मरने के बाद। वह बहुत बड़ा पिशाच बन गया हुजूर।

      क्या उसका नाम जानते हो तुम ?

      हाँ ! हुजूर, मल्थू नाम था उसका–कांपते हुए झूमा ने जवाब दिया।

      अपने भय पर काबू पाने के विचार से थोड़ा हंसकर बोला मैं–बेवकूफ हो तुम। सौ-सवा-सौ बरस पहले मरा हुआ आदमी अब भला क्या करने आएगा ? इस टूटे-फूटे खण्डहर बने किले में और मुर्दा भला कैसे जिंदा हो सकता है पागल ?

      झूमा थोड़ी देर बाद कल आने को कहकर अपने गांव वापस चला गया। मोटी पथरीली दीवार में बनी खिड़की से मैंने नीचे की तरफ झांका। सैकड़ों मीटर गहरी खाई थी वहां। धुन्ध के रेले में झुरमुट और जमीन खो-सी गयी थी। जहां तक एक निगाह जाती थी, जंगल- ही-जंगल बिखरा हुआ था जिस पर रात की चादर फैली हुई थी।

        इक्की-दुक्की रोशनियां दीख पड़ती थीं नीचे और धुआं। आदिवासियों की छुट–पुट बिखरी झोपड़ियों में चूल्हे सुलग रहे थे, उनमें जलती आग पिशाच की आंख की तरह कौंध-कौंध-सी जाती थी–ठिठकी हुई, निष्पन्द और भुतैली।

      लालटेन जला दी थी रहलू ने। गांव के बाजार से आवश्यक सामान मैंने मंगवा लिया था उससे। घड़ी की ओर देखा–सात बजकर पैतीस मिनट। रहलू खाना बनाने में जुट गया और मैं टोर्च लेकर किले के बुर्जों की ओर टहलने के विचार से चला गया। बुर्जो से पहले एक लम्बा-चौड़ा दालान था जिसके बगल से नीचे की ओर सीढियां गयी हुई थीं।

        सीढियां टूटी-फूटी थीं और थीं धूल से भरी हुयीं। न जाने क्या सोचकर सीढियां उतरने लगा मैं। करीब 15-20 सीढ़िया उतरने के बाद मुझे एक हॉलनुमा कमरा दिखाई दिया। कमरे की दीवारें और जमीन दोनों लाल पत्थरों की थीं। चारों तरफ धूल-ही-धूल थी। लगा जैसे–बरसों से कोई आया न हो।

        अचानक 6 सेल की टोर्च की रुपहली रोशनी फिसलती हुई बायीं ओर घूम गयी। भौंचक्का-सा रह गया मैं।  आश्चर्य और कौतूहल के मिले-जुले भाव से भर गया मेरा मन। भय की भी अनुभूति हुई साथ-ही- साथ। टोर्च का तीव्र प्रकाश जिस वस्तु पर पड़ा था, वह थी कालभैरव की भव्य और विशाल मूर्ति।

        मूर्ति काले पत्थर की थी और लगभग सात फ़ीट ऊंची। चेहरे पर क्रोध का भाव स्प्ष्ट रूप से झलक रहा था। दो हाथ थे, एक हाथ में विशाल त्रिशूल था और दूसरे हाथ में था नरमुण्ड। मूर्ति चलायमान मुद्रा में थी और जिस पर वह स्थापित थी, वह थी सफेद संगमरमर के पत्थर की वेदी। वेदी दो फीट ऊंची थी और उसके ठीक सामने था काफी-लम्बा-चौड़ा हवन-कुण्ड।.

       उस हवन-कुण्ड के बगल में जो वस्तु थी उस पर नजर पड़ते ही रोमांचित हो उठा मेरा सारा शरीर।

      आप जानना चाहेंगे वह कौन-सी वस्तु थी जिसे देखकर रोमांचित हो उठा था मेरा सारा शरीर। वह था बलि-यूथ। सफ़ेद मार्बल का था वह दो फीट ऊंचा और उतना ही चौड़ा। खून के काले धब्बे अभी भी साफ नजर आ रहे थे वहां। जमीन और अगल-बगल की दीवारों पर भी खून के छींटे पड़े थे जो अब स्याह पड़ गए थे। सोचने लगा में–कितने आदमियों की, पशुओं की बलि दी गयी होगी महाकाल को प्रसन्न करने के लिए वहां ? कैसा वीभत्स और भयानक दृश्य रहा होगा  नरबलि के समय का ?

        बलि-यूथ में फंसी हुई गर्दन, धड़ से अलग हुआ नर-मुंड और खून से सना हुआ छटपटाता धड़–सब कुछ घूम गया एकबारगी काल्पनिक रूप से मेरे मानस-पटल पर।

      खाना बना चुका था रहलू। आलू परवल की मसालेदार सब्जी और पराठा उस मौसम का मेरा प्रिय भोजन। न जाने कहाँ से मेज-कुर्सी का भी इंतजाम कर दिया था रहलू ने। एक सिगरेट सुलगाकर  कुर्सी पर पसर गया मैं। महाप्रसाद की बोतल मंगवा ली थी मैंने।

       वाममार्ग से तांत्रिक साधना-भूमि में प्रविष्ट होने के कारण कभी-कदा आवश्यकता पड़ने पर महाप्रसाद का भी सेवन कर लिया करता था उस समय।

      घड़ी पर नज़र पड़ी 9,35 ।

      घाटी में अब अजीब किस्म का शोर होने लगा था। बरसाती मेढकों का शोर, गीदड़ों का शोर, शेर बाघों का शोर। घास में उड़ते हुए जुगुनू बून्द-बून्द रोशनी छिड़कते हुये मेरे पैरों के निकट मँडराने लगे।

      विंदयाचल के बीहड़ों में गोंडों की शक्ति को नामांकित करने वाला देवगिरि का जटवा गोंडों का पहला शक्तिपुरुष था जिसने मुसलमानों को भी अपने वजूद का अहसास करा दिया था। उसकी समाधि असीरगढ़ के किले में कहीं मौजूद थी। जटवा का बेटा बुलन्द बख्त बाद में मुगल दरबार का मनसवार बना।

       फिर हुए नरेंद्र बख्त और छतर बख्त। वे सारे गोड क्षत्रप खून के खिलाड़ी थे। आस-पास की जागीरदारियों पर हमला करने और अपने साम्राज्य में शामिल करने का उन्माद था उनमें। चूंकि उनमें मुगल  सल्तनत की सरपरस्ती हासिल थी, इसलिए वे दिन-व-दिन और भी अधिक बेरहम और मदान्ध होते गए थे।

        युद्ध में देवता भैरव के अनुयायी थे जटवा के वे सारे वंशज। इसलिए जब भी किसी अभियान पर वे निकलते अथवा नवरात्र का आयोजन करते तो कभी एक आदमी और कभी-कभी चार-पांच आदमियों की सामूहिक बलि अवश्य दी जाती थी। असीरगढ़ के किले का भैरव मन्दिर और नरबलि-कक्ष नौबतखाने के दक्षिण तरफ थोड़े ही फासले पर अवस्थित थे।

        नरबलि के समय नक्कारखाने से आने वाली नगाड़ों की आवाज वातावरण को और भी भयंकर बना देती थी। ठीक मध्यरात्रि के समय कालभैरव के सम्मुख विशाल खड्ग से नरमुण्ड को काटकर देवता को समर्पित कर दिया जाता था। जिस व्यक्ति की बलि दी जाने वाली होती थी, उसे पहले जंगली फलों से बनी शराब खूब पिलाई जाती थी।

         एक प्रकार से वह अपना होशोहवास गवां बैठता था। बलि के दो घण्टे पहले उसे पांच कुओं अथवा पांच नदियों के जल से स्नान कराया जाता था। माथे पर सिन्दूर का टीका लगाया जाता था। गले में जवा-कुसुम की माला पहनाई जाती थी। अन्त में वह बलि-मानव कालभैरव की विशाल पाषाण प्रतिमा के सम्मुख नतमस्तक हो जाता था और तत्काल ही उसका शिरच्छेद कर दिया जाता था।

      इन रक्त-पिपासु गोंडों का विनाश किया था रोहिल्लों ने। 18 वीं सदी में प्रभंजन की तरह वे बुरहानपुर को लूटने आये थे और तभी उन्होंने मिटाया था गोंडों को। कुछ ऐसा ही इतिहास गोड सामंतों का भी बतलाया गया था।

      रहलू आकर बोला–साहब ! खाना लगा दूँ मेज पर ?

      मैंने सिर हिलाकर कहा–हाँ ! लगा दो।

      कोने में रखी जलती लालटेन किले में रहस्यपूर्ण मटियाली-सी रोशनी बिखेर रही थी। सदियों पुराने उस किले में वह बेआव रोशनी उस खामोश और उदास माहौल को और भी ज्यादा जर्द बना रही थी।

      रहलू मेज पर खाना लगा रहा था। उसने कहा–साहब ! जहां आप खाना खा रहे हैं, वहीं पर यानी इसी कमरे में जटवा गोड की समाधि है।

      ऐं ! क्या कहा–समाधि ! चौंक पड़ा मैं।

      हाँ साहब ! समाधि ! इसी कमरे में दफन की गई थी जटवा की लाश।

      खाने के पहले मैंने मकडोवेल का एक पैग बनाया और उसे हलक के नीचे उतारते हुए सामने खिड़की की ओर देखा और गिलास लिए हुए मेरा हाथ उठा-का-उठा ही रह गया। खून जमा देने वाला दृश्य देखा था वहां मैंने।

      खिड़की में से एक हाथ कमरे के भीतर मेरी ओर बढ़ रहा था–एक विकराल सूखा हुआ काला हाथ। लगता था मानो किसी अधजली चिता से सीधा किले में चला आया हो। ठूंठ हो गयीं उसकी काली बदरंग उंगलियां खुल-खुल कर बन्द हो रही थीं। किसी को इशारा कर रहा था वह। और फिर कटा हुआ वह हाथ एकाएक गायब हो गया।

      रहलू…. रहलू….मैंने पुकारा।

      रहलू दौड़ा-दौड़ा आया।

      देखना वहां खिड़की की पास कौन है ?–मैंने कहा।

      रहलू गया, खिड़की के बाहर झांका–वहां सन्नाटा था।

      वह बोला–यहां तो कोई नहीं है साहब !

      भय, जिज्ञासा और कौतूहल के कारण खाना खाया न गया मुझसे। विश्वास नहीं हुआ रहलू पर। स्वयं उठा और चल पड़ा मैं।

      नगाड़खाना नीचे था। उसकी दीवारें और मेहरावें खंडित हो चुकी थीं। मगर नौबतखाने में नगाड़ों की पुश्तें बरकरार थीं। पत्थर के उन चबूतरों पर कटीले झाड़ उग आए थे। वहीं थी एक प्रशस्त बारादरी। उसी के पास था एक काफी गहरा कुआं। उसमेंअब भी काफी पानी था। कुएं के ऊपर थोड़ी ऊंची जगत थी।       

         नगाड़खाने और कुएं की जगत के जोड़ उखड गए थे। उसके परे जंगल था मानो पेड़ों की दीवार-ही-दीवार खड़ी हो वहां। मेढकों का शोर, झींगुरों की आवाज़ कहीं किसी निशाचर का स्वर और गीदड़ों के समवेत स्वर में सारा बियावान गूंज रहा था। मैं वहां कुछ क्षण खड़ा रहा और उसी नगाड़खाने के पीछे से कटीले झुरमुट बुरी तरह खड़खडाये और उसी के साथ मैंने पहली बार वह आवाज़ सुनी जैसे कोई कराह रहा हो वहां। गुगुआता हुआ भिंचे हुए गले का कण्ठ-स्वर कुंए के पास से उभरा था और फिर रिरियाने में तब्दील हो गया था वह भिंचा हुआ स्वर।

      हैरत में पड़ गया मैं। आखिर इस कुएं में कौन है ? मुझे बड़ा अजीब लगा।

      आकाश में चाँद निकल आया था। उसकी हल्की चाँदनी जंगलों पर फैल रही थी। मैंने कुएं में झांका। काफी नीचे कुएं के जगत के ऊपर से झांकती चाँद की धुँधली रोशनी में अपनी ही परछायीं नज़र आई मुझे और तभी मैं एकबारगी चिंहुँक उठा। पानी में अकेला मेरा ही प्रतिबिम्ब नहीं था। मुझे लगा जैसे वह हंस रहा हो। में पलटा। लेकिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मेरे अलावा वहां और कोई नहीं था।

      पर उस आदमी को तो साफ देखा था पानी में मैंने। उसका प्रतिबिम्ब स्पष्ट  नज़र आ रहा था और अगर वह सचमुच था जैसा कि मुझको विश्वास था तो फिर गायब कहाँ हो गया था ? आस-पास कोई ऐसी जगह भी तो नहीं थी कि बिजली जैसी तेजी से कूद कर छिपा जा सके और तभी रुंधे हुए कण्ठ की कातर पुकार इस बार बिल्कुल करीब से सुनाई पड़ी मुझको जैसे कोई रो रहा हो हिलक-हिलक कर।

        वह रुदन कुएं के भीतर से नहीं उभरा था, कोई उसके बिलकुल करीब से आ रहा था और फिर वह रुदन रुक जाता था।

      सन्नाटा… गहरी खामोशी…गहरी नीरवता। तभी फिर क्रन्दन का समवेत स्वर उभरा। इस बार कोई व्यक्ति नहीं, सिकन्दरिया तालाब के पास दुबके सियार रो रहे थे। लकड़बग्घे की आवाज भी उस रुदन में शामिल थी। वह हिनहिनाकर हंस रहा था। खून जमा देने वाली हंसी थी वह। बेचैन हो उठा मैं। आतंक से भर गया मन। भय भी लगने लगा कि कौन-सा कौतुक घटित होने जा रहा था उन लम्हों में ?

      काफी समय तक कोई सामने नहीं आया।

      फिर लगा जैसे कोई इंद्रजाल घट रहा हो। ऐसे व्याकुलता भरे इंतज़ार में नगाड़खाने की तरफ देखता रहा। धुन्ध के जाल में खो गयीं थी उसकी मेहरावें, लेकिन तब भी मुझे लग रहा था कि झाड़ी में छिपा हुआ आदमी अवश्य सामने आएगा।

      फिर चिता के धुएँ जैसा आवरण फाड़ कर वह बाहर निकला। काला विकराल चेहरा, समूचा शरीर जख्मों से भरा हुआ जख्मों से छल-छल बहता हुआ खून। उसके माथे पर लाल सिन्दूर लगा हुआ था, गले में थी दहकते हुए जवाकुसुम की माला भी। हु-ब-हु वही चेहरा जिसे अभी थोड़ी देर पहले मैने अपने कंधे के ऊपर से झांकते हुए कुएं के पानी में देखा था।

        उस समय मैं उस चेहरे को पहचान नहीं पाया था लेकिन इस बार बखूबी पहचान लिया मैंने। वह झूमा था जो मुझे किले तक पहुंचा कर और दूसरे दिन आने को कहकर शाम को ही चला गया था। इस समय तो झूमा को अपनी झोपड़ी में होना चाहिए था–मैंने सोचा–लेकिन इस असीरगढ़ के  सुनसान बियावान में वह क्या करने आया है ?

      झूमा तुम ! इस वक्त यहां कैसे ?–चीख कर पूछा मैंने।

      झूमा हंसा। उसके स्याह चेहरे पर वह हंसी बड़ी डरावनी और बड़ी वीभत्स लगी। आहिस्ता-आहिस्ता वह मेरे करीब आने लगा। तभी मैंने देखा– झूमा की एक बांह गायब थी–कन्धे से कटी हई थी उसकी एक बांह।

      मेरे दोनों कान सन-सन करने लगे। मुझे अपनी सुषुम्ना अवश होती जान पड़ी। ठंडा आतंक मेरी शिराओं उपशिराओं में दौड़ गया। शाम को झूमा के दोनों हाथ सही सलामत देखे थे। उन्हीं हाथों से मेरा सामान भी बस स्टैंड से ऊपर पहाड़ी तक ढोया था उसने।

        फिर एकाएक उसकी बांह कटकर कहाँ रह गयी थी चंद घण्टों में और उसके जिस्म से यह खून कैसा रिस रहा था। अचानक भयानक और दिल में दहशत पैदा करने वाला झूमा का चेहरा बदल गया और वह बदला हुआ चेहरा मल्थू का हो गया।

      एकबारगी आतंकित हो उठा मैं।

      तो क्या झूमा के रूप में मल्थू था वह ?

      सौ-सवा-सौ बरस पहले बलि की वेदी से भागकर गहरी खाई में कूद गया था जान बचाने के लिए जिसकी लाश बाद में किसी को नहीं मिली और अतृप्ति के अंधियारे में भटकता हुआ बुरहानपुर के रेलवे स्टेशन पर था और मिला था गांव के बस स्टैंड पर जिसने मुझे पहुंचाया था मेरा पथप्रदर्शक बनकर किले में। एकाएक मल्थू के बगल में प्रकट हुआ रहलू।

      भय और आश्चर्य से भर गया मैं रहलू को देखकर। किसी प्रकार आवाज़ निकली मुंह से–रहलू..तुम..तुम..यहां कैसे..तुम तो..?

      मेरी बात सुनकर जोर से हंस उठा रहलू। मल्थू मेरा साथी है साहब। जहां वह रहता है, वहां उसके साथ मैं भी रहता हूँ–इतना कहकर पहले की तरह हंसा रहलू।

      मल्थू और रहलू के पिशाच तनकर खड़े थे मेरे सामने। उनकी जलती हुई आंखें मुझ पर स्थिर थीं।

      सहसा मल्थू के कंधे के नीचे झूल आयी अपनी बची-खुची बांह हवा में लहराई और मेरी ओर बढ़ा। उसकी आँखों में उस समय एक विचित्र प्रकार की आसुरी चमक थी और चेहरे पर था प्रबल हिंसा का भाव।

      तेज हवा के हिम शीतल झोंकों के बावजूद भी सारा शरीर पसीने से तर हो उठा मेरा। अब मल्थू की बर्फ जैसी ठंडी उंगलियों के स्पर्श का अनुभव किया मैंने अपनी गर्दन पर। तभी एक विचित्र-सा प्रकाश फैला वहां। दोनों पिशाच छिटककर दूर जा गिरे।

     चूँकि मेरा शरीर विशेष तन्त्र-क्रिया द्वारा रक्षा के लिए बंधा है इसलिए कि कोई अशरीरी आत्मा मेरा नुकसान न पहुंचा सके। फिर मैं चेतनाशून्य हो गया। बह्यचेतना लुप्त हो गयी मेरी। कब तक अचेत रहा मैं वहां झाड़ियों और कीचड़ में पता नहीं।

       जब होश आया तो अपने को विदेशी पर्यटक और स्थानीयों लोगों के बीच घिरा पाया। एक मात्र संयोग ही कहा जायेगा कि पहली बार विदेशी पर्यटकों ने उस बियावान स्थान के धूल धूसरित भुतहे किले को देखने की इच्छा जाहिर की थी अपनी।

        अगर वे न आते तो मेरी लाश का भी पता किसी को न चलता और वह सड़ गल कर जंगली जानबरों और मांसखोर पक्षियों का आहार बन जाती।

*पिशाच सिद्धि का उद्देश्य :*

        बनारस लौटने पर 15-20 दिनों ज्वरग्रस्त रहा। जब स्वस्थ हुआ तो गया एक दिन गया भादुड़ी महाशय के यहां। सारी कथा सुनाई उन्हें मैंने। सुनकर काफी देर गम्भीर रहे। फिर वह बोले–बस, प्राण बच गए तुम्हारे…वर्ना…।

       अत्यधिक खतरनाक हैं वे पिशाच। गुरु कृपा से मेरी मन्त्रशक्ति से बन्धे हुए हैं वे और उसी शक्ति के वशीभूत होकर वे मेरे बुलाने पर आ जाते हैं यहां।

      सुना है पिशाच तमोगुणी प्राणी होते हैं–तामसिक शक्ति संम्पन्न तमोगुणी राज्य के अत्यंत भयंकर जीव समझे जाते हैं।

      ठीक ही सुना है तुमने। भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, हाकिनी, शाकिनी, डाकिनी आदि मुख्य तमोगुणी योनियां हैं। जैसे देवता के दो वर्ग होते हैं–स्थायी और अस्थायी। स्थायी वर्ग के देवता नित्य होते हैं और अस्थायी वर्ग के देवता अनित्य कहलाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, रुद्र, गणेश,, वरुण, इन्द्र, वायु, अग्नि, सूर्य आदि नित्य देवता हैं।

       अनित्य देवता वे हैं जिन्होंने मानव जीवन में कभी सत्कर्म किया, लोक-कल्याण किया। धर्ममार्ग पर चलकर पुण्यलाभ किया। उसी के प्रभाव से मरणोपरांत देवलोक पहुंचकर देवत्व को उपलब्ध हुए हैं।

      इसी प्रकार गुह्य योनियों के प्राणियों के भी दो वर्ग हैं और उनके अपने लोक भी हैं जिसे गुह्यलोक अथवा तामसिक लोक कहते हैं।

      देव लोक के दो भाग हैं–पहले भाग में नित्य देवगण और दूसरे भाग में अनित्य देवगण निवास करते हैं। इसी प्रकार गुह्यलोक के दो भाग हैं–पहले भाग में नित्य और दूसरे भाग में अनित्य गुह्य योनि के प्राणी निवास करते हैं।

       वे सारे स्थान इसी पृथ्वी पर कहीं हैं। मल्थू और रहलू के पिशाच इसी दूसरे गुह्य लोक में रहते हैं।

      भादुड़ी महाशय ने आगे बतलाया कि पहला गुह्यलोक भी ब्रह्माण्ड में कहीं स्थित है। तमोगुणी राज्य के उस गुह्यलोक का विस्तार जहां समाप्त होता है, वहीं से शुरू हो जाता है रजोगुणी राज्य के अंतर्गत आने वाले यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि लोकों का विस्तार तथा अन्य लोक-लोकान्तर की तरह इन लोकों और उनमें निवास करने वाले रजोगुणी प्राणियों का पृथ्वी से निकटतम सम्बन्ध है।

      हज़ारों-हज़ार वर्ष पहले उनके उपनिवेश थे पृथ्वी पर। कहते हैं–आज भी हिमालय में कहीं वे उपनिवेश अगोचर रूप से विद्यमान हैं। तुमको मालूम होना चाहिए–भादुड़ी महाशय आगे बोले–इस विश्वब्रह्माण्ड में पृथ्वी एक ऐसा भू-पिण्ड है जहां समस्त लोक-लोकान्तरों का अपना-अपना उपनिवेश विद्यमान है।

      सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हिमालय और भारतवर्ष में ही वे सभी उपनिवेश अवस्थित हैं।

      इसका कारण क्या है ?

      आगे मालूम हो जाएगा तुम्हें। एक महत्वपूर्ण बात तुम्हें बतलाता हूँ वह यह कि तन्त्र का मूल स्रोत अथवा मूल उद्गम एक मात्र यक्षलोक है। तन्त्र का आविर्भाव भगवान शिव-पार्वती के माध्यम से यक्षों द्वारा हुआ है, उसी प्रकार जैसे गन्धर्वो और किन्नरों द्वारा नृत्यकला और संगीत कला का आविर्भाव हुआ है।

      तुम तो जानते ही हो कि प्रकृति त्रिगुणात्मिका है–भादुड़ी महाशय मिट्टी के घड़े से गिलास में पानी उड़ेलते हुए बोले–सत्व, रज और तम–ये तीन गुण हैं प्रकृति के। प्रकृति विश्वब्रह्माण्ड की एक अद्भुत और अत्यन्त रहस्यमयी शक्ति है। आदिशक्ति उसी प्रकृति का आश्रय लेकर उसके तीनों गुणों के रूप में सृष्टि-भूमि में प्रकट होती है।

      तन्त्र-साधना का मतलब है–शक्ति-साधना यानी सैकड़ों-हज़ारों बोल्ट की बिजली के नंगे तार को छूना। शक्ति का दूसरा नाम है–विनाश। कोई भी शक्ति रक्षा का निर्माण नहीं करती सिवाय विनाश के। (आज के संदर्भ में भी यह बात निर्विवाद सत्य है)। उसे उपयोगी बनाना अनुकूल बनाना है। रक्षा व निर्माण में प्रयुक्त करना जिस माध्यम से सम्भव है, उसी का नाम तन्त्र है।

      शक्तिभेद से तन्त्र के भी तीन भेद हैं–सात्विक तन्त्र, राजस तन्त्र और तामस तन्त्र। इन्हीं को वैष्णव तन्त्र, शैव तन्त्र और शक्ति तन्त्र कहते हैं। इन तीनों प्रकार के तंत्रों के अधिष्ठाता क्रमशः देवगण, यक्षगण और पिशाचगण हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस दृष्टि से देवगण भी गुह्ययोनि के अन्तर्गत हैं। कहा भी गया है– पिशाचो गुह्यक: सिद्धो भूतो$पि देवयोनयः।

      तामस तन्त्र अन्य दोनोँ तंत्रों से अत्यधिक गुह्य और रहस्यमय है। वास्तव में उसकी गुह्यता और रहस्यमयता को जानने-समझने के लिए ही मैंने पिशाच सिद्धि की थी।

      मल्थू तो है अनित्य पिशाच योनि में लेकिन उसका सम्पर्क अन्य अनित्य पिशाचों की तरह नित्य पिशाचों से भी है।

      अब तक मैं अपनी इस पैशाचिक सिद्धि के बल पर तन्त्र के जिन गूढ गोपनीय और अत्यन्त रहस्यमय विषयों और साधनाओं से परिचित हुआ हूँ–वह निश्चय ही भारतीय अध्यात्म की अमूल्य तथा अति महत्वपूर्ण सम्पत्ति है–इसमें सन्देह नहीं।

      क्या आपने भी कभी अपनी पैशाचिक सिद्धि से किसी भी प्रकार का भौतिक लाभ उठाने का प्रयत्न किया ?

      मेरे इस प्रश्न के उत्तर में भडुडी महाशय बोले–चाहता तो भौतिक लाभ उठा सकता था। लेकिन कभी भी इस दिशा में प्रयास नहीं किया मैंने, क्योंकि जानता था कि भौतिक लाभ उठाने का मतलब है पैशाचिक शक्ति के बन्धन में बंधकर हमेशा के लिए उनके परतन्त्र हो जाना।

      *अथ तन्त्र- मीमांसा :*           

       अब मेरे सामने सारा रहस्य अनावृत हो चुका था। फिर उस दिन से तन्त्र के विभिन्न विषयों और विभिन्न पक्षों पर आम चर्चा होने लगी मेरी भादुड़ी महाशय से। एक दिन प्रसंगवश वे कहने लगे–यह व्यापक अश्रद्धा का युग है और इस युग में सबसे उपेक्षित विषय रहा है–तन्त्र। तन्त्र के प्रति अति व्यापक भ्रामक धारणा है।

      इसका कारण क्या है ?

      कारण तो बहुत से हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण है–तन्त्र की उदात्त भावना। इसी के फलस्वरूप अशिक्षितों की तो बात छोड़िए, प्रबुद्धवर्ग में भी तन्त्र के विषय में अनेक प्रकार की भ्रान्त धारणाएं फैली हुई हैं।

        तन्त्र-मन्त्र का नाम सुनते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं। वास्तव में ये सब तन्त्रों की उदात्त भावनाओं और विशुद्ध आचार-पद्धति तथा साथ ही उनके दार्शनिक आध्यात्मिक पक्ष से अपरिचित होने का परिणाम है। तुमको मालूम होना चाहिए कि तंत्रों के दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार उतने ही उदात्त हैं जितने कि अन्य दर्शनों के।

       उनकी साधना-पद्धत्तियाँ भले ही तमोगुणी, रजोगुणी और सत्वगुणी क्यों न हों, पूर्णरूप से पवित्र और योग पर आधारित हैं। उनकी उपादेयता उतनी ही है जितनी वेदों की।

      तन्त्र का सर्वाधिक गूढ पक्ष है–उसका भाव व आचार। तन्त्र का सारा रहस्य इसी में छिपा हुआ है। भागवत तो तुम पढ़े ही होंगे, उसमें 7, 11, 27 अध्यायों में वैदिकी, तांत्रिकी तथा मिश्रित नाम से जिस त्रिक विधा पूजा-परम्परा का संकेत किया गया है, उसमें तांत्रिकी पूजा ही वैदिकी पूजा के समान एक मान्य व प्रतिष्ठित संस्था प्राचीन काल से परिकल्पित है।

      तुमको मालूम होना चाहिए–वैदिकी पूजा की पृष्ठभूमि पर स्मृति और पौराणिक पूजा-पद्धतियों का विकास हुआ। तांत्रिकों की परम्परा में आगमिक पूजा-पद्धति भी गतार्थ है। अतः आगम एवम निगम (तन्त्र व वेद) जो सनातन से इस देश में समस्त ज्ञान, कर्म, उपासना और समस्त साधना के सदा स्रोत समझे जाते रहे, उनसे तांत्रिक परम्परा भी देश, काल, समाज एवं मानव संस्कृति के नाना घटकों से प्रभावित होकर यदि प्रबल उत्कर्ष को प्राप्त हुई तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?

      सांझ हो गयी थी.  नित्य की तरह पूजा आरती का समय हो गया था। भादुड़ी महाशय उठते हुए बोले– वास्तव में तंत्रों के सम्बन्ध में जो व्यापक रूप से भ्रमित धारणाएं फैली हुई हैं, उनमें तन्त्रों की परम्परा का दोष नहीं, वरन उन तांत्रिकों का दोष है जो बिना महती आस्था एवं बिना योग के ही तांत्रिक बनकर भ्रष्टाचार के उन्नायक बने।

*तन्त्र’ शब्द का अर्थ और उसकी व्यापकता :*

      भादुड़ी महाशय से काफी प्रभावित हो गया था मैं। दूसरे दिन जब पहुँचा तो पूजा  में लीन थे। थोड़ी देर बाद उठे। बोले- विकास! तन्त्र का ज्ञान बहुत कम लोगों को है। तुम तन्त्र पर खोज व अन्वेषण-कार्य कर रहे हो–यह प्रसन्नता की बात है। अपने प्रयास में सफलता अवश्य मिलेगी तुम्हें। भ्रम से मत घबराना।

      आपका आशीर्वाद मिला तो मेरा प्रयास अवश्य सफल होगा–इसमें सन्देह नहीं–मेंने विनम्र भाव से कहा।

      उस दिन का प्रसंग था ‘तन्त्र’ शब्द और उसकी व्यापकता–इस सम्बन्ध में भादुड़ी महाशय बोले–तन्त्र की विशेषता है–‘क्रिया’। वेद भारतीय अध्यात्म-ज्ञान का एक मात्र प्रामाणिक ग्रन्थ है। स्थितिप्रज्ञ अवस्था अथवा समाधि की विशेष अवस्था में इसका आविर्भाव हुआ है। मगर कब हुआ–इसका कोई इतिहास नहीं है–इसीलिए इसे अपौरुषेय एवं सनातन कहते हैं।

      वेद का जो आध्यात्मिक ज्ञान है, उसका उपयोग तभी सम्भव है जब उस ज्ञान को क्रियारूप में परिवर्तित किया जाय। तन्त्र यही कार्य करता है। तन्त्र ही वैदिक ज्ञान को क्रियारूप में परिवर्तित कर देता है। तन्त्र की विशेषता क्रिया है। समझ गए न ?

      तन्त्र के आध्यात्मिक पक्ष का एक मात्र लक्ष्य–अद्वैत लाभ है। यानी दो का एक-दूसरे में लीन हो जाना।

बिना पूर्ण वैराग्य के ज्ञान का आविर्भाव  कदापि सम्भव नहीं। तन्त्र के दार्शनिक पक्ष का उद्देश्य है– चित्त में स्थायी रूप से वैराग्य उत्पन्न करना–उस वैराग्य को जिसे योगीगण “परमवैराग्य” कहते हैं।

      बिना द्वैतभाव से मुक्त हुए परमवैराग्य सम्भव नहीं। तन्त्र का जो साधना पक्ष है, उसका एक मात्र लक्ष्य है–द्वैतभाव से मुक्त करना। तांत्रिक साधना का एक मात्र प्रयोजन यही है।

      भादुड़ी महाशय आगे बोले–वास्तव में तांत्रिक साधना के प्रति व्यापक भ्रम है। लोगों की धारणा यह है कि तांत्रिक साधना कल्याण के लिए है, कामना पूर्ति के लिए है और सभी प्रकार के कष्टों, विपदाओं, आपदाओं और तमाम समस्याओं के निवारण के लिए है।

      सच पूछा जाय तो इन सब बातों से तांत्रिक साधना का कोई भी सम्बन्ध नहीं है। उसका तो एक मात्र लक्ष्य है–उन सबका अतिक्रमण।

      मन की तीन  दशाएं हैं–पहली है बुरे मन की दशा, दूसरी है अच्छे मन की दशा और तीसरी है दोनों के पार अ-मन की दशा। तांत्रिक साधना का प्रयोजन है–अच्छे-बुरे दोनों मन की दशा से मुक्त हो जाना और अ-मन की दशा को उपलब्ध हो जाना। इसी उपलब्धि का नाम है–द्वैत से मुक्ति।

      तन्त्र का चौथा लक्ष्य है–उपासना। तांत्रिक उपासना का प्रयोजन है–उपासक का अपने उपास्य से तादात्म्य स्थापित करना। तुमको मालूम होना चाहिए कि तांत्रिक उपासना का क्षेत्र काफी व्यापक है। तन्त्र के इस लक्ष्य के अंतर्गत सात्विक, राजस और तामस–तीनों प्रकार की उपासनाएँ हैं।

         इन तीनों प्रकार की उपासनाओं के विधि-विधान गोपनीय और गुरुगम्य हैं। बिना सद्गुरु के तांत्रिक उपासना में सिद्धि और सफलता पाना सम्भव नहीं। सच बात तो यह है कि किसी भी प्रकार की तांत्रिक उपासना खतरे से खाली नहीं है। प्राण का संकट बराबर बना रहता है विशेषकर तमोगुणी तंत्रोपासना में। 

      तांत्रिक उपासना के पांच अंग हैं–पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्र नाम और स्तोत्र। सृष्टि, स्थिति और प्रलय भी तंत्रशास्त्र के विषय हैं। इसी प्रकार देवी-देवताओं, अंग-प्रत्यंगों, आयुधों, आसनों और उनसे सम्बंधित ध्यान, मन्त्र, यन्त्र, पुरश्चरण, अर्चन सर्वसाधन भी तांत्रिक उपासना के विषय हैं।

         ध्यानयोग तो तंत्रोपासना की मूलभित्ति है। इसके अभाव में किसी भी तंत्रोपासना में सफलता असम्भव है। वास्तव में ध्यान ही एक मात्र ऐसी वस्तु है जो तन्त्र को योग से जोड़ती है.

      *षट्कर्म साधन क्या हैं ?*

           मेरे यह पूछने पर भादुड़ी महाशय ने कहा–मारण, मोहन (वशीकरण), स्तवन, विद्वेषण, उच्चाटन और शान्तिकर्म–ये षट्कर्म हैं और तमोगुणी उपासना के मुख्य विषय हैं।

        इसी प्रकार तमोगुणी उपासना के अंतर्गत आठ विद्याएं भी हैं जिन्हें–डाकिनी विद्या, शाकिनी विद्या, हाकिनी विद्या, कपाल विद्या, कंकाल विद्या, महापात्र विद्या, दस महाविद्या आदि कहते हैं। ये अष्टविद्याएँ भयंकर तामसिक विद्याएं हैं।

      इस प्रसंग के अन्त में भादुड़ी महाशय ने कहा– ‘तन्त्र’ शब्द के व्यापक अर्थ के अंतर्गत सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान विषयक ग्रन्थ आ जाते हैं। शंकराचार्य ने तो “सारण्य” को भी तन्त्र के नाम से सम्बोधित किया है।   

          महाभारत में न्याय, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र, औषधिशास्त्र, कामशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र आदि के लिए भी ‘तन्त्र’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

*तन्त्र की मूलभित्ति ‘वेद’ :*

      तन्त्रों की आध्यात्मिक कल्पना बड़ी ऊंची है। परब्रह्म उसके लिए निर्विकार–सत चित और आनन्दस्वरूप है। उसकी शक्ति ब्रह्मशक्ति है और ब्रह्मशक्ति ही तंत्रशक्ति है जो तांत्रिक उपासना-भूमि में महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में प्रतिष्ठित होकर प्रकृति के तीनों गुणों का प्रतिनिधित्व करती है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि तन्त्र के जितने भी सिद्धांत हैं वे सब उपनिषदमूल्क हैं।

         इसी प्रकार ऋग्वेद के “वागम्भृणी” सूत्र में जिस शक्ति की चर्चा की गई है, वास्तव में उसी के भाष्य माने जाते हैं। निस्संदेह तन्त्रशास्त्र वेदमूलक है।

*तन्त्र के दो प्रकार और दो धाराएं :*

      भादुड़ी महाशय ने कहा–तन्त्र दो प्रकार हैं–पहला है वेदानुकूल और दूसरा है वेदवाह्य। कालीमय तन्त्रों का मूलस्रोत वेद से ही प्रवाहित होता है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो अत्यंत प्राचीनकाल से भारत की आध्यात्मिक साधना की दो धाराएं प्रवाहित होती चली आ रही हैं–वैदिक धारा और तांत्रिक धारा।

        पहली वैदिक धारा प्रकट रूप से सब के लिए है। उसके सिद्धांत को सभी वर्ग के लोग स्वीकार कर सकते हैं। उसका साधना-उपासना का द्वार सभी के लिए खुला है। लेकिन दूसरी धारा यानी तांत्रिक धारा में ऐसी बात नहीं है। वह चुने हुए अधिकारियों के लिए है।

         इस धारा में पात्रता और संस्कार-योग्यता का विशेष महत्व है। वास्तव में तांत्रिक धारा जिस साधना-उपासना का प्रतिनिधित्व करती है, वह गुह्य और गोपनीय है। उसका द्वार सभी पात्र व्यक्तियों के लिए खुला है। यह वैदिक और तांत्रिक–दोनों शक्तिसाधना का प्रतिपादन करती है। मगर उनमें अन्तर है।

         वैदिक साधना-भूमि में साध्य-साधक के बीच में साधन रूप देवता है अर्थात देवता के माध्यम से शक्ति की उपासना है। वैदिक साधना-उपासना में बाहर से तो देवता माध्यम दिखलायी देते हैं मगर ऐसी बात नहीं। देवगण एक ही शक्ति के विभिन्न रूपों और उनके गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

        जो देवता शक्ति के जिस रूप व गुण का प्रतिनिधित्व करते हैं, वेद में उनके अपने मन्त्र हैं और उस मन्त्र द्वारा उसी शक्ति की साधना या उपासना होती है। मगर तांत्रिक साधना में ऐसी बात नहीं है। तांत्रिक साधना-भूमि में देवता की आवश्यकता नहीं। उनका महत्व और उनकी गरिमा गौण है।

      तांत्रिक साधना व उपासना का तात्पर्य है कि बिना किसी माध्यम के सीधे शक्ति व उसके विभिन्न रूपों से सम्बन्ध। इसीलिए तांत्रिक साधना की दीक्षा अथवा उसका उपदेश सभी के लिए सम्भव नहीं। वास्तव में तन्त्र-साधना अथवा तंत्रोपासना तलवार की धार पर रखी शहद की बून्द के समान है।

         चाहो तो चाट सकते हो, मगर जीभ न चिर जाय–इसका ख्याल हर समय रखना होगा।

*साधक कातिक :

      लगभग 300 वर्ष पहले बनारस के दक्षिणी क्षेत्र में घनघोर जंगल था। इसलिए उस क्षेत्र को ‘बनकटी’ कहते थे। 40-45 वर्ष पहले बनकटी जैसा वातावरण तो नहीं था लेकिन दुर्गाकुण्ड, संकटमोचन, लंका और नंगवा के आस-पास का क्षेत्र अवश्य जंगल जैसा था। इमली, पाकड़, पीपल, बेर, नीबू और कैथ के घने पेड़ों से ढका था वह क्षेत्र।

        अघोर साधक बाबा कीनाराम के आश्रम से सटे हुए ताड़, खजूर और बेल के इतने ढेर सारे पेड़ थे कि उसे जंगल ही कहा जाय तो ठीक रहेगा।

      उसी जंगली सुनसान वातावरण में एक झोपड़ी थी। झोपड़ी की दीवारें कच्ची थीं और छत थी खजूर, ताड़ के पत्तों की। झोपड़ी के सामने एक कुआं था और उस कुएं के चारों ओर विभिन्न प्रकार के सुगन्धित फूलों की क्यारियां थीं।

       वहां का वातावरण सचमुच बहुत ही शान्त और मनोरम था। वह स्थान किसी प्राचीन ऋषि मुनि के स्थान जैसा लगता था।

      जिस झोपड़ी की चर्चा मैंने की है उसमें एक महात्मा रहते थे। उनका वास्तविक नाम क्या था–यह तो किसी को नही मालूम लेकिन लोग उन्हें “कातिक बाबा” के नाम से पुकारते थे। कातिक बाबा इसलिए नाम पड़ा था कि वे हर साल पूरा कार्तिक मास अन्न ग्रहण नहीं करते थे और मौनव्रत रहते थे।

         कार्तिक मास में नौदुर्गा की मिट्टी की मूर्ति की स्थापना कर उसका पूजन करते थे और फिर उसके बाद होता था भंडारा।

         भंडारे में सैकड़ों स्त्री-पुरुष-बालक भोजन करते थे। भोजन में होती दो-तीन तरह की सब्जी, पूड़ी, कचौड़ी और होते मोतीचूर के लड्डू। सभी पदार्थ देशी घी में तैयार होते थे।

      बाबा बिल्कुल फकीर थे। न किसी से कुछ मांगते थे और न तो किसी का कुछ लेते ही थे। भण्डारे का सारा इन्तजाम कैसे होता था, उसके लिए कहाँ से रुपया आता था–इसका रहस्य किसी को भी मालूम न था। इतना ही नहीं, बाबा शाहखर्च भी थे। कभी-कदा गरीबों की आर्थिक सहायता भी कर दिया करते थे।

        एक व्यक्ति कोइरी जाति का था। बहुत गरीब था। दोनों समय रोटी के लाले थे। एक कन्या थी उसे। उम्र अधिक हो गयी थी। पैसों के अभाव में विवाह नहीं हो पा रहा था। बाबा ने भरपूर सहायता की। कन्या की शादी  काफी धूमधाम से सम्पन्न हो गयी। कुल मिलाकर बाबा एक रहस्यमय व्यक्ति थे।

       एक बार मैं भी शामिल हुआ था भण्डारे में। चारों ओर घूम-घूम कर सारा इन्तजाम देख रहे थे बाबा। अचानक उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी। अपलक काफी देर तक मुझे निहारते रहे बाबा। उस समय उनकी आंखों में एक विचित्र चमक देखी मैंने।

      जब भोजन कर चलने लगा तो इशारे से बाबा ने मुझे अपने समीप बुलाया। सहमा-सा खड़ा हो गया मैं जाकर उनके सामने। बाबा ने अपनी फ़टी-पुरानी झोली में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और मुझे थमाते हुए कहा–ले रख ले, काम आएंगे तुझे।

      आश्चर्य हुआ मुझे। मेरा एम.ए. फाइनल था। फीस जमा करनी थी, पुस्तकें खरीदनी थीं, इनके अलावा और भी जरूरी खर्च थे।.

        चिंतित था। कुल तीन सौ रुपये चाहिए थे मुझे उस समय। बाहर आकर नोट गिने। पूरे तीन सौ ही निकले। कैसे जान गए बाबा मेरी आवश्यकता ?–समझ में नहीं आया मेरे।

      उस दिन से परमभक्त बन गया बाबा का मैं। जब भी समय मिलता, बाबा के यहां चला जाता। घण्टों बैठा रहता। कोई खास बात न होती। लेकिन बाद में धीरे-धीरे बाबा से सम्बंधित बहुत सारी जानकारी मिली मुझे।

      कातिक बाबा चम्बा (हिमाचल प्रदेश) के मूल निवासी थे। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन और पत्नी थी। बाबा शृरू से ही मनस्वी और एकांतप्रिय थे। एक दिन न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर परिवार त्याग दिया और हरिद्वार चले गए।

        वहां उन्होंने साधु का बाना धारण कर लिया। लेकिन उनके मन की अशान्ति दूर न हुई। बराबर भटकते रहे। एक दिन जोशीमठ के समीप एक महात्मा से भेंट हुई उनकी। महात्मा कोई सिद्ध पुरुष थे। बाबा उनके साथ कई साल रहे।

       इस अवधि में उक्त महात्मा द्वारा जहां एक ओर बाबा को तन्त्र का विशद ज्ञान प्राप्त हुआ, वहीं दूसरी ओर कई प्रकार की तांत्रिक सिद्धियां भी प्राप्त हुयीं जिनमें एक सिद्धि थी–“वटयक्षिणी सिद्धि”।

         वटयक्षिणी की सिद्धि अति महत्वपूर्ण सिद्धि मानी जाती है तन्त्र की। इस सिद्धि के फलस्वरूप साधक को किसी भी प्रकार का अभाव नहीं रहता। इतना ही नहीं, वह किसी के भी मन की बात बिना बताए ही जान जाता है। किसी के भावों और विचारों से भी अवगत हो जाता है।

         कुछ समय के बाद महात्मा के समाधि लेने के बाद बाबा काशी चले आये और हरिहर बाबा के आग्रह पर काशी में झोपड़ी डालकर रहने लगे।

      सांझ की कालिमा धीरे-धीरे रात्रि के अंधकार में बदलती जा रही थी। बाबा की पूजा-साधना का समय हो गया था। मैंने जैसे ही चलना चाहा, उसी समय मेरी दृष्टि उस रहस्यमयी  लड़की पर पड़ी जिसे देखा था मैंने दो दिन पहले। उसकी मुखमुद्रा विचित्र थी। बिना किसी ओर देखे बाबा के साथ भीतर चली गयी वह।

      कौन है यह रहस्यमयी लड़की ?

      दूसरे दिन जब मैंने बाबा से पूछा तो थोड़ा हंसकर बोले बाबा–तू जानना चाहता है कि कौन है यह।

      हाँ, बाबा !

      सुनकर विश्वास करेगा तू ?

      क्यों नहीं करूंगा बाबा ? आप इतने बड़े साधक और तंत्रशास्त्र के महान विद्वान हैं। क्या आपकी बात पर विश्वास नहीं करूंगा मैं ?

      वह मानवी नहीं है।

      ऐं ! क्या कहा ? मानवी नहीं है ?–आश्चर्य और कौतूहल मिश्रित स्वर में बोला मैं।

      नहीं, मानवी नहीं है। वटयक्षिणी है वटयक्षिणी– यक्षलोक की कन्या।

      थोड़ा रुककर बाबा आगे बोले–अत्यधिक कठोर साधना-बल पर सिद्ध किया है मैंने उसे। मानवेतर शक्ति सम्पन्न है वह। इच्छाशक्ति अति प्रबल है उसकी। कुछ भी असंभव नहीं है उसके लिए।

        समस्त यक्षिणियों में सर्वश्रेष्ठ है वटयक्षिणी है वह समझे। थोड़ा ठहरकर बाबा ने आगे कहा–अत्यधिक कठोर और जीवन-मरण जन्य तांत्रिक साधना के बल पर सिद्ध किया है मैंने वट यक्षिणी को।

      लेकिन तुझे कैसे प्रत्यक्ष दिखलायी दे गई–यह आश्चर्य की बात है। इतना कहकर बाबा झोपड़ी के भीतर चले गए और कपाट बंद कर लिए उन्होंने भीतर से।

*वट यक्षिणी से मेरा मिलन :*

      कुछ दिनों कलकत्ता रहना पड़ा मुझे आवश्यक कार्यवश। वापस लौटने पर ज्ञात हुआ कि समाधि ले ली कातिक बाबा ने। स्तब्ध रह गया मैं एकबारगी। उसी के साथ कातिक बाबा की छवि उभर आई मेरे मानस-पटल पर। तुरन्त भागा-भागा गया नगवा। गहरी निस्तब्धता छायी हुई थी  कुटिया के चारों ओर।

      पीपल के नीचे समाधि थी बाबा की। अभी समाधि की मिट्टी पूरी तरह सूखी भी नहीं थी। दरवाजा बन्द था कुटिया का। ताला लगा था। समाधि के बगल में बाबा का प्यारा कुत्ता वीरभद्र सिर झुकाए ऊँघ रहा था।

        उसकी आँखों में आंसू छलछला रहे थे जैसे बाबा की याद में रो रहा हो। बाबा ने उसका नाम वीरभद्र क्यों रखा था–यह तो वही जाने। मेरी उपस्थिति का आभास उसे लग गया था। एक बार सिर उठाकर मेरी ओर करुण दृष्टि से देखा उसने, फिर देखा उसने उस महान साधक की कुटिया के बन्द दरवाजे की ओर फिर अपनी गोद में छिपा लिया अपना सिर।

         काफी देर तक खड़ा रहा मैं मौन साधे चुपचाप। लगा–जैसे बाबा किसी क्षण फट से दरवाजा खोलकर बाहर निकलेंगे और रहस्यमय ढंग से मुस्कराकर मुझसे पूछेंगे–क्यों पण्डित ! आज क्या जानना-समझना है ?

      मगर ऐसा नहीं हुआ। पीपल के नीचे पड़े एक पत्थर पर बैठ गया मैं और गाल पर हाथ रखकर सोचने लगा–कौन समझायेगा इतनी सरल भाषा में तन्त्र के इतने गूढ रहस्यमय विषय को ? कौन करेगा साधना-निर्देश मेरे लिए ? और कौन बतलायेगा भावराज्य और दैवीराज्य के सम्बन्ध में ?

      पूरी रात सो न सका मैं। बार-बार बाबा का तेजोमय मुखमण्डल थिरक उठता था मानस-पटल पर। भोर के समय हल्की झपकी लगी और उसी अर्धतन्द्रिल अवस्था में मुझे दिखलायी पड़ी वह कृष्णवर्णा कन्या। मुग्ध हो गया मैं एकबारगी उसकी मनमोहिनी छवि देखकर।

        काफी देर तक निरखती रहीं मेरी आँखें उस यक्षकन्या के अमानवीय रूप सौंदर्य को।

      सहसा मोह भंग हुआ मेरा। उस यक्षिणी का कोमल स्वर सुनाई दिया मुझे। कह रही थी वह–मैं वटयक्षिणी हूँ वटयक्षिणी। पहचानना तुमने मुझे ?

      हाँ ! पहचाना। मैं धीरे से बोला–तुम वही यक्षबाला हो जिसे साधक कातिक बाबा ने सिद्ध किया था ?

      हाँ ! वही हूँ मैं लेकिन अब उनकी मृत्यु हो जाने के कारण उनकी तांत्रिक शक्ति के बन्धन से तो मुक्त हो गयी हूँ लेकिन मुक्ति व्यर्थ है मेरे लिए।

      क्यों ? मैंने उत्सुक होकर पूछा।

      इसलिए कि अब मैं पृथ्वी के प्रबल गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकलकर मैं अपने यक्षलोक में जा नहीं सकती।

      ऐसी स्थिति में फिर कहाँ रहोगी तुम ? मैंने पूछा–इसी धरती पर कई लोकों का अपना-अपना उपनिवेश है। मेरे लोक का भी उपनिवेश है। उदास स्वर में उत्तर दिया उसने।

      कहाँ है वह उपनिवेश ?

      हिमालय के उत्तर की ओर एक रमणीक घाटी में। बड़ा ही सुन्दर स्थान है वह। क्या तुम मेरे साथ चलकर मेरे लोक के उपनिवेश को देखना चाहोगे ?–मुस्कराते हुए पूछा उसने।

      हाँ, अवश्य !- जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर कह दिया मैंने। फिर थोड़ा सोचकर आगे कहा–लेकिन इतनी दूर किसी अज्ञात प्रदेश में मेरा जाना कैसे संभव होगा ?

 *यक्षिणी का मोह और एक अज्ञात प्रदेश की यात्रा :*

      मेरी बात सुनकर हँस पडी यक्षबाला। फिर थोड़ा मुस्करा कर बोली–इसकी चिन्ता तुम मत करो। जब तुमको पहली बार बाबा के पास देखा था तभी से तुम्हारे प्रति आकर्षित हूँ मैं। प्रेम हो गया है तुमसे मुझे। उसी समय से अदृश्य रूप से सदैव तुम्हारे निकट रहने लगी हूँ मैं।

        तुमको कभी अपनी उपस्थिति का आभास लगने नहीं दिया मैंने। सचमुच तुम पर मुग्ध हूँ मैं। क्या तुम मुझसे प्रेम करोगे ? क्या तुमसे प्रेम करने योग्य हूँ मैं ?

      हाँ, बिल्कुल–यक्षिणी बोली–तुम सुन्दर हो, आकर्षक हो, मन को विचलित करने वाला व्यक्तित्व है तुम्हारा। तुम्हारी आँखों में प्रखर तेज है आत्मा का। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुम्हारे शरीर में पौरुष की इतनी ऊर्जा बराबर प्रस्फुटित होती है कि कोई भी पागल और उन्मत्त हो सकता है।

       मैं तो एक साधारण यक्षिणी हूँ। जब तुम मुझे हृदय से एकान्त में स्मरण करोगे, उसी समय तत्काल पंचभूत तत्वों के अणुओं को संगठित कर जिस रूप में तुम चाहोगे, उसी रूप में तुम्हारे सामने आ जाऊंगी मैं–थोड़ा रुककर यक्षिणी आगे बोली–तुम्हें सिद्ध करना होगा पहले मुझे।

      वह कैसे ?–,थोड़ा व्यग्र होकर पूछा मैंने।

      मेरी आतुरता देखकर हंस पड़ी वह।

      समय पर बतला दूंगी सिद्धि की विधि। अच्छा अब चलो मेरे साथ–यक्षिणी के इतना कहते ही मैं अपने आपमें हलका महसूस करने लगा। न जाने कैसी विचित्र अनुभूति होने लगी मुझे–बतला नहीं सकता मैं।

         एक गहरा शून्य भर गया मेरे भीतर। न जाने कैसे और किस मार्ग से पहुंच गया मैं हिमालय के ऊपर। चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ। ऊपर नीला आकाश और नीचे हिमाच्छादित हिमालय के उत्तुंग शिखर। और तभी कोमल स्वर सुनाई दिया यक्षिणी का–मैं फिर कहती हूँ तुम्हारे प्रति आकर्षित हूँ। तुम्हें चाहती हूं। तुम्हारे बिना रहा न जाएगा मुझसे।

      स्निग्ध चांदनी जैसा रुपहला प्रकाश फैल रहा था उस शून्य और मनोरम वातावरण में। सिर घुमाकर देखा– उस यक्षकन्या की छवि बड़ी मोहक लगी उस प्रकाश में–नीलवर्णी काया, मोरनी जैसी सरल निच्छल रत्नारी आंखें, क्षीण कटि, उन्नत उरोज, सावन-भादों की घटा जैसी पीठ पर बिखरी स्याह केशराशि।

      उस लावलमयी के मादक स्पर्श से बार-बार सिहर उठता था मेरा सारा शरीर। धीरे-धीरे एक अबूझ-सा नशा छाने लगा मेरे मन मस्तिष्क पर।

      क्या वास्तव में तुम मुझसे प्रेम करने लगी हो ? विश्वास नहीं होता।

      मनुष्य हो न ? कैसे होगा विश्वास ? भ्रम और सन्देह मनुष्य का जो गुण है।

      नहीं, ऐसी बात नहीं है–मैंने धीरे से कहा–सच तो यह कि कहां मैं एक साधारण मनुष्य और कहां तुम एक मानवेतर प्राणी–बस इसी कारण…।

      मेरा वाक्य अधूरा रह गया। बीच में ही बोल पड़ी यक्षिणी–बस..बस..आगे कुछ मत बोलो। इस प्रकार की भेद वाली बात मुझे पसंद नहीं। बस मैं केवल इतना जानना चाहती हूं कि तुम्हें मेरे संसर्ग में रहना स्वीकार है या नहीं  तुनको ?

      हाँ स्वीकार है मुझे तुम्हारा सान्निध्य। लेकिन एक बात है।

      वह क्या है ?

      मैं शरीरी हूँ और तुम एक विदेही। इस स्थिति में बराबर सान्निध्य कैसे होगा ?

      मेरी बात सुनकर हंस पड़ी वह यक्षबाला। फिर बोली–इसकी चिन्ता तुम मत करो।

      वैसे अदृश्य रूप से बराबर साथ रहूंगी मैं तुम्हारे।।लेकिन जैसा कि मैं तुमको बतला चुकी हूँ कि जब कभी भी तुम एकान्त में स्मरण करोगे, मैं तुरन्त भौतिक शरीर में उपस्थित हो जाऊंगी तुम्हारे सामने।

*तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ढोंग और पाखण्ड :*

      लगभग एक मास का समय व्यतीत हो गया। कभी-कभी उस यक्षकन्या का रूप और सौंदर्य मानस-पटल पर उभर आता और तब विह्वल हो उठता एकबारगी में।

      एक दिन सांय के समय नित्य की भांति मैं चेतसिंह घाट के ऊपर किले की बुर्जी पर बैठा था एकान्त में। आकाश में काले-भूरे बादल छाए हुए थे।

        पानी बरसने ही वाला था। उस सुनसान निर्जन और सांय-सांय करते वातावरण में यक्षबाला की स्मृति जागृत होना स्वाभाविक थी। न जाने क्या सोचने लगा मैं उसके विषय में। और तभी उस बरसाती चिपचिपे अंधेरे में एकाएक एक प्रबल झोंका आया हवा का और मेरे सामने सिमट गया और सिमटकर चक्राकार घूमने लगा अपने सीमित स्थान पर।   

         देखते-ही-देखते वह आकार ग्रहण करने लगा जो अपने आप में चमकदार था। कुछ ही क्षणों के बाद वह आकार उसी यक्षकन्या के रूप में परिवर्तित हो गया। अब वह यक्षबाला मेरे सामने खड़ी-खड़ी मुस्करा रही थी। उसे देखकर स्तब्ध रह गया मैं एकबारगी। एकाएक मुंह से निकल पड़ा–अरे ! तुम !

      तुमने स्मरण किया और मैं आ गयी–फिर बोली वह–क्या चाहते हो ? किसलिए स्मरण किया मुझे तुमने ?

      एक बात बतलाओगी ?

      क्यों नहीं, पूछो।

      मैं तन्त्र-मन्त्र पर शोधकार्य कर रहा हूँ। क्या तुम इस कार्य मे मेरा सहयोग करोगी ?–मैंने पूछा।

      मेरी बात सुनकर एकबारगी चौंक पड़ी वह। सिर घुमाकर मेरी ओर देखा उसने एक बार और फिर बोली वह–इस चक्कर में कैसे पड़ गए तुम ? कभी भी किसी जंजाल में फंस सकते हो तुम समझे ? सभी के वश की बात नहीं है यह !

      मैं चुप रहा। फिर बोला–मेरी रुचि है इसमें, मेरी इच्छा है। इससे अधिक परम्परागत रूप से मेरे परिवार की साधना, उपासना रही है तंत्रविद्या। उसका संस्कार मुझमें भी होना स्वाभाविक है। उसी संस्कार के वशीभूत होकर संभवतः मेरी अन्तरात्मा में तन्त्र के प्रति रुचि जागृत हुई हो।

      मेरी बात सुनकर कुछ देर तक न जाने क्या सोचती रही वह। उसके बाद गम्भीर स्वर में कहने लगी–जानते हो तन्त्र और उसकी साधना-सिद्धि आदि को लेकर वर्तमान समय में कितना ढोंग और पाखंड फैल रहा है। कितना पापाचार, व्यभिचार आदि को बढ़ावा मिल रहा है। कितने लोग ठगे जा रहे हैं।

        तांत्रिक शक्ति एक ऐसी वस्तु है जिसका प्रलोभन देकर किसी भी वर्ग के लोगों को प्रभावित किया जा सकता है और अनचाहे ही अच्छा-बुरा कुछ भी करवाया जा सकता है। जो लोग तंत्रशात्र में एक अक्षर भी परिचित नहीं हैं, तन्त्र से सम्बंधित किसी देवी-देवता से परिचित नहीं हैं, इसके अतिरिक्त साधना-उपासना से अनभिज्ञ हैं, वे लोग तन्त्र से सम्बंधित  बडी-बड़ी पुस्तकें लिख रहे हैं।

        पूजा-उपासना की व्याख्या कर रहे हैं, प्रवचन दे रहे हैं। साधना की दीक्षा भी दे रहे हैं और बतला रहे हैं साधना का मार्ग भी। कैसी विडम्बना है ? यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग  के लोगों की श्रद्धा और उसका विश्वास समाप्त होता जा रहा है वर्तमान समय में। तन्त्र को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है इस समय।

         सबसे बड़ी बात तो यह है कि तन्त्र से सम्बंधित देवस्थानों और शक्तिपीठों की भी स्थिति भी शोचनीय हो गयी है। क्या-क्या नहीं होता तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ? वासना साधना-उपासना का रूपांतरण बन गयी है। सभी प्रकार के केंद्र शोषण के केंद्र बन गए हैं। तन्त्र के वास्तविक स्वरूप का दर्शन दुर्लभ हो गया अब। ऐसी स्थिति में, ऐसे वातावरण में क्या कर सकोगे तुम ?

        कैसे उद्धार कर सकोगे तन्त्र-मन्त्र के स्वरूप का ? कैसे तोड़ सकोगे तन्त्र मंत्र के नाम पर फैले मायाजाल को ? बोलो, उत्तर दो मुझे।

      यह सब सुनकर टुकुर- टुकुर देखने लगा मैं उस यक्षिणी की ओर। तत्काल कोई उत्तर न दिया गया मुझसे। कुछ कहा भी न गया मुझसे।

      थोड़ा रुककर यक्षिणी आगे बतलाने लगी–ऐसे लोगों की आत्माओं का वासना शरीर अत्यन्त घृणित और वीभत्स होता है। स्थूल शरीर भी अत्यन्त कष्ट से मृत्यु के समय छूटता है उनका। मृत्यु के समय भयंकर आकार वाले यक्ष उनको लेने आते हैं।

        पहले वे उनको उनकी कुकृत्यों की कथा सुनाते हैं जिसे वे तन्त्र-मन्त्र के नाम पर किये होते हैं। फिर उन्हें पकड़कर ले जाते हैं यक्षलोक में और उसके पहले यक्षलोक के उपनिवेश में रखकर विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करते हैं. उनको, उनकी दुर्दसा करते हैं, यातना देते हैं।

        फिर उस स्थान पर तब तक रखते हैं जब तक पश्चाताप की अग्नि में जलते हैं। इसकी कोई अवधि नहीं। फिर उनका जन्म मुर्गा, कबूतर, बकरा, भेड़, ऊँट, भैसा आदि पशु-पक्षियों की योनि में होता है। ये पशु-पक्षी धरती पर यक्षलोक से ही आये हैं।

        इन सबका सम्बन्ध यक्षलोक से है और यही कारण है कि तांत्रिक क्रियाओं को सिद्ध करने की दिशा में इनकी बलि दी जाती है।

      यक्षिणी आगे बोली–इसी प्रकार जो लोग किसी प्रकार तन्त्र-मन्त्र की थोड़ी-बहुत सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं और उसकी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, किसी का नुकसान करते हैं, किसी को किसी प्रकार हानि पहुंचाते हैं, अपनी सिद्धि व चमत्कार का प्रदर्शन करते हैं, अहंकारयुक्त व्यवहार करते हैं, उनके जीवन का अन्तिम समय अति दारुण होता है। बाद में उनकी भी यक्षलोक में बड़ी दुर्गति होती है।

      थोड़ा ठहर कर यक्षिणी फिर बोली–ऐसे तांत्रिकों को हमारे लोक में असद साधक. कहते हैं। इसके ठीक विपरीत जो तांत्रिक हैं, उनको सदसाधक कहते हैं।

         सदसाधक अपनी तांत्रिक साधना और सिद्धियों से लोक-कल्याण करते हैं, लोगों को दैवीय सहायता प्रदान करते हैं, सहयोग देते हैं, रोग-शोक हरण करते हैं। वे अहंकाररहित और सभी के प्रति विनम्र रहते हैं। उनका सभी नैतिक-अनैतिक कार्य सिर्फ साधना के लिए ही होता है। प्रत्येक कार्य में उनका एक मात्र लक्ष्य साधना ही होता है। सबके पीछे उनका उद्देश्य होता है लौकिक-पारलौकिक कल्याण। सच पूछो तो ऐसे सदसाधकों की मति-गति को जानना-समझना सबके वश की बात नहीं।

      एक और तन्त्र-साधक होते हैं जो योगमार्गीय होते हैं, वे सदैव संसार-समाज में अपने को गुप्त रखते हैं। उनकी साधना सदैव अन्तर्मुखी होती है। कोई देखकर नहीं जान सकता कि वे उच्चकोटि के साधक हो सकते हैं। उनकी साधना से सम्बंधित जितनी भी क्रियाएं हैं, वे सब भावराज्य में होती हैं।

         प्रत्यक्ष में वे कुछ भी करते हुए नहीं दिखलायी देते। कुछ भी न करते हुए वे बहुत कुछ करते हैं। वे प्रेम, स्नेह, दया, करुणा और अनुकम्पा के साक्षात रूप होते हैं। सुख-दु:ख से परे वे समदर्शी होते हैं। उनका संपर्क हर समय अपने गुरु और इष्ट से बना रहता है। उन्हें कोई समझे या न समझे, लेकिन वे सभी के अन्तर्मन को समझते हैं।

        ऐसे साधकों की साधना यदि भौतिक शरीर के रहते पूरी नहीं हो पाती है तो उसे पूरा करने के लिए वे यक्षलोक के उस भाग में चले जाते हैं, जिसका सम्बन्ध समस्त लोक-लोकान्तरों से है। ऐसे साधकों को ही महात्मा कहते हैं। किसी भाग्यवान को ही ऐसे साधक के दर्शन होते हैं।  उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान अपौरुषेय होता है। वे प्रायः सहज समाधि की अवस्था में रहते हैं।

      (चेतना विकास मिशन)

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