*सुसंस्कृति परिहार
“बात बोलेगी हम नहीं भेद खोलेगी बात ही।” कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की उपरोक्त पंक्तियां हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। “हरिशंकर परसाई अगर चौदहवीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और कबीर यदि बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते ” ।”आजादी के पहले के भारत को जानना हो तो हमें प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आजादी के बाद के भारत को जानना हो तो परसाई को पढ़ना होगा “इन मशहूर कथनों से हमें पता चलता है कि परसाई जी किस परंपरा से आते हैं ?
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ उनके पिता का नाम श्री झूमक लाल परसाई तथा माता का नाम श्रीमती चंपाबाई था। पांच भाई-बहनों में परसाई जी सबसे बड़े थे ।उनकी प्राथमिक शिक्षा रहटगांव प्राइमरी शाला में हुई एवं हाई स्कूल की पढ़ाई टिमरनी हाई स्कूल में सम्पन्न हुई।1940 में मैट्रिक परीक्षा पास करके उन्होंने वन विभाग में नौकरी की वहां से जबलपुर आ गए और जुलाई 1943 में मॉडल हाई स्कूल में शिक्षक हो गए।
होशंगाबाद से लेकर जबलपुर तक नर्मदा उनके साथ रही ।’नर्मदा तीरे’ से ही उनका लेखन प्रारंभ हुआ। सुदीप बनर्जी की कविता की पंक्ति है -मैं जहां जहां गया /नदियां मेरे बहुत काम आईं । यही हाल परसाई जी का था ।नर्मदा को कुंवारी नदी कहा जाता है परसाई जी भी आजीवन कुंवारे ही रहे ।यह भी विचित्र संयोग है।
जो बात परसाई जी को अति महत्वपूर्ण बनाती है वह है आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया जो हिंदी के रचनाकारों में छठे दशक में शुरू हुई जबकि परसाई जी का मोहभंग आजादी के 3 माह बाद ही हो गया था ।इसी से हम उनकी पैनी दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं उनकी पहली रचना’ प्रहरी’ में 23 नवंबर 1947 को ‘पैसे का खेल’ शीर्षक से प्रकाशित हुई ।आजाद भारत में उन्होंने पैसे का जो खेल शुरू होते देखा उसे बखूबी पहचान लिया था। प्रेमचंद जी ने ‘महाजनी सभ्यता’ लिखी बहुत बाद में किंतु महाजनी सभ्यता के विस्तार से परसाई का लिखना प्रारंभ होता है। आजादी के बाद से पाखंड, अनीति ,अनाचार ,अत्याचार ,शोषण संप्रदायवाद एवं साम्राज्यवाद के खतरों से परसाई जी आजीवन लड़ते रहे तथा देशवासियों को सतर्क भी करते रहे ।मुक्तिबोध जैसे युग प्रवर्तक कवि से उनकी मित्रता उनके जीवनकाल की अमूल्य निधि थी । खतरा उठा कर भी अभिव्यक्ति देने का संस्कार उन्होंने कबीर और मुक्तिबोध से पाया मुक्तिबोध के अलावा वे गालिब, निराला एवं फैज़ को अत्यधिक पसंद करते थे ।
परसाई जी व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। उनके लेखन को किस खाने में रखा जाए यह बात हमेशा समीक्षकों के लिए समस्या रही उसी तरफ इशारा करते हुए उन्होंने लिखा था-” मैं लेखक छोटा हूं किंतु संकट बड़ा हूं” मैं को आधार बनाकर जिस तरह उन्होंने अपने ऊपर निर्मम प्रहार किए हैं वैसा साहित्य में दुर्लभ है जो व्यंग्य लेखक अपनी आलोचना नहीं कर सकता सिर्फ दूसरों की आलोचना करता है उन पर व्यंग्य करता है वह सफल नहीं हो सकता।
परसाई की रचनाओं में गंभीर चिंतन है रचना पूरी तरह व्यंग्य के माहौल में डूबी रहती है पर दैनिक जीवन की वास्तविकताएं हमारे सामने आती रहती हैं ।उदाहरण के लिए एक स्थान पर वे लिखते हैं -“हमारे जीवन में नारी को जो मुक्ति मिली है ,क्यों मिली है ?आंदोलन से .आधुनिक दृष्टि से .उसके व्यक्तित्व की स्वीकृति से, नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है ।नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा एक कमाई से पूरा नहीं पड़ता।”
अपनी खुद की मुफ़लिसी पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। वे दीनता पर गर्व करते हैं। ‘दुख का ताज’ में लिखते हैं- “जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है और वह धीरे-धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भुगतता है ।जीने के लिए आधार चाहिए और तब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है।”
बाबा नागार्जुन ने ‘वाणी ने पाये प्राणदान’ कविता में उनके व्यंग्य बाणों के बारे में लिखा है –
छूटने लगे अविरल गति से /जब परसाई के व्यंग्य वाण सरपट भागे तक धर्म ध्वजी/ दुष्टों के कंपित हुए प्राण
उनके कुछ व्यंग्य देखिए-” इज्जतदार ऊंचे झाड़ की ऊंची टहनी पर दूसरों के बनाए भोंसले में अंडे देता है”
“दानशीलता, सीधा पन, भोलापन असल में एक तरह का इन्वेस्टमेंट है”
“सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार आने किलो के हिसाब से बिक जाता है”
“धर्म धंधे से जुड़ जाए इसे योग कहते हैं”
“अर्थशास्त्र जब धर्म शास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गौ रक्षा आंदोलन के नेता पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं “
परसाई जनजीवन से गहरे जुड़े रचनाकार थे ‘मेरे समकालीन’ शीर्षक से लिखते हुए साहित्यकार अपने समय के साहित्यकारों पर लिखते हैं किंतु परसाई ने रिक्शा वाले ,पान वाले ,चाय वाले को समकालीन लिखा है । जनजीवन से जुड़ाव की ये अनूठी मिसाल है।हजारों हजार छात्रों ,नौजवानों ने उनके लेखक एवं सानिध्य से प्रेरणा ग्रहण की। उनके ऊपर जब संघ वालों ने हमला किया तो बरसते पानी में जबलपुर के 5000 मजदूरों ने एक जुलूस निकाला और उनके निवास पर उनके प्रति समर्थन व्यक्त करने गए ।ऐसी घटना दुनिया में शायद कहीं और घटी हो।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ को मध्यप्रदेश में अग्रणी बनाए रखा और ‘वसुधा’ जैसी पत्रिका का संपादन किया ।आवश्यक लिखना, निरंतर लिखना परसाई जी से ही सीखने की चीज़ है।वे ऐसी विचारधारा को जरूरी मानते हैं जिसमें जीवन का विश्लेषण हो सके और ठीक निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके। इसके बिना लेखक गलत निष्कर्ष का शिकार हो जाता है। वे मानते हैं-” प्रतिबद्धता के गहरी चीज है जो इस बात से तय होती है कि समाज में जो द्वंद है उनमें लेखक किस तरफ खड़ा है पीड़ितों के साथ या पीड़िकों के साथ। वह मानते हैं जीवन जैसा है उससे बेहतर होना चाहिए जो गलत मूल्य हैं उन्हें नष्ट होना चाहिए क्योंकि साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं
परसाई जी के व्यंग्य की शिष्टता का संबंध उच्चवर्गीय मनोरंजन से ना होकर समाज में सर्वहारा की उस लड़ाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।