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प्रसन्न रहने के लिए पाथेय 

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        ~ पुष्पा गुप्ता 

  जीवन में सर्वतोमुखी सफलताओं के लिए चित्त को प्रसन्न रखना बहुत ही जरूरी है। चाहे कोई आदमी कितना ही धनी गुणी विद्वान या सुन्दर क्यों न हो, दुनियाँ उससे मिलकर तब तक हार्दिक प्रसन्नता प्रकट नहीं करती, जब तक कि उसका स्वभाव प्रसन्नता मय न हो। 

     दुनियाँ के पास अपने ही कष्ट बहुत हैं, वह तुम्हारा रोना सुनने के लिये तैयार नहीं है। हाँ, वह तुम्हारी प्रसन्नता का आनन्द लूटने में सम्मिलित हो सकती है। प्रसन्न मनुष्य को सुगन्धित पुष्पों की तरह दुनियाँ ढूँढ़ निकालती है और उसका समुचित आदर करती है।

      डॉक्टर शेल्डन लेविट लिखते हैं- व्यापार के लिये, बाह्य प्रभाव के लिए, अथवा आरोग्य प्राप्ति के लिए, हंसमुख रहना बहुत आवश्यक है। खिन्नता और उदासी का कारण अपनी नासमझी है, हम रोज-रोज नई जरूरत पैदा करते जाते हैं और जब वे पूर्ण नहीं होतीं तो दुख मानते हैं, एवं अप्रसन्न रहने लगते हैं। अपनी कमजोरियों पर ध्यान न देकर असफलता का दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। 

     वास्तव में समस्त इच्छाओं की पूर्ति होना बहुत ही कठिन है। क्योंकि यदि एक ही वस्तु चरम लक्ष हो और उसके लिए अनवरत तपस्या की जाए, तो वह समयानुसार मिल सकती है, किन्तु हमारी हर एक छोटी बड़ी मनचाही इच्छाएँ सदा पूरी होती रहें, ऐसा कोई विधान नहीं है। इसलिये अपनी आवश्यकता को घटाना चाहिए। 

     उन्नति की ओर से मुँह फेर कर एवं आलसियों की तरह निराश बैठ जाना बुरा है, परन्तु आवश्यकताओं की तृष्णा को बढ़ाते ही जाना, यह उससे भी बुरा है। यदि मनुष्य अपना एक लक्ष स्थिर कर ले तो शेष व्यर्थ की बातों पर मन ललचाना अपने आप रुक जाएगा।

      अपने से अधिक सुखी मनुष्यों को देख कर मन में ईर्ष्या उत्पन्न मत करो, वरन् अपने से गिरी हुई दशा के कुछ उदाहरणों को सामने रख कर उनकी और अपनी दशा का मुकाबला करो। तब तुम्हें प्रसन्नता होगी कि ईश्वर ने तुम्हें उनकी अपेक्षा कितनी सुविधाएँ दे रखी हैं। 

      एक बार महात्मा शेखसादी के पास जूते न थे। वे सर्दी-गर्मी और कुश-कंटकों से बड़ा कष्ट पाते और जूते के अभाव में दु:खी हो रहे थे। एक दिन वे घूमते-घूमते कोफा की मस्जिद में पहुँचे और देखा कि एक व्यक्ति वहाँ ऐसा पड़ा हुआ था, जिसके हाथ पैर किसी प्रकार कट गये थे, और वह चूतड़ों के बल घसीट-घसीट कर चलता था। 

     उसे देख कर शेखसादी ने परमात्मा को धन्यवाद किया कि मेरे पास जूता नहीं है, न सही, हाथ पैरों से आरोग्य तो हूँ। 

     संसार में असंख्य मनुष्य तुम से नीची दशा में पड़े हुए हैं। उन्हें देख कर सन्तोष करो और अपने को दुःखी मत होने दो। दूसरों को दु:ख न दोगे, तो तुम भी दु:खी न रहोगे, यह प्रकृति का अकाट्य नियम है। किसी का दिल मत दु:खाओ और न किसी के साथ अन्याय करो। 

    यदि किसी से तुम्हारी लड़ाई हो जाए और वह तुम से बोलना छोड़ दे, तो भी तुम उसकी ओर से मुँह न फेरो । जब कभी वह फिर से रास्ता चलते मिल जाए तो एक बार हँस पड़ो और उसे गले लगा लो या माफी माँग लो। यह न समझना चाहिए कि ऐसा करने से तुम्हें कायर समझा जाएगा। 

       उदारता कायरों से नहीं हो सकती, यह तो बलवान का लक्षण है। प्रेममय व्यवहार को कोई सच्चा मनुष्य चाहे वह कितना ही विरोधी हो, कमजोरी नहीं समझ सकता। 

     तुम्हारे प्रेममय व्यवहार से उसका हृदय उमड़ पड़ेगा और सारे बैर भाव को भुला कर सच्चा मित्र बन जायेगा।

     जब दु:खदायी परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होती हैं, तो मनुष्य को विशेष रूप से चिन्ता सताने लगती है। व्यापार में घाटा है, मित्रों ने धोखा दिया है, धन का अभाव है, कोई आकस्मिक विपत्ति आ गई है, कुटुम्बी जन कहना नहीं मानते, रोगों ने आ घेरा है, ऐसी स्थितियों में साधारण पुरुषों को बड़ा क्लेश होता है, किन्तु जिनका ईश्वर पर भरोसा है, वे इन परिस्थितियों में भी न तो घबराते हैं, और न दु:खी होते हैं, वे परमात्मा पर भरोसा रखने का कारण समझते हैं कि यह विपत्ति भी शीघ्र टल जाएगी और एक कर्तव्यपरायण वीर पुरुष की भाँति उनके निवारण का साहसपूर्वक उपाय करते हैं।

        विपत्तियों को परीक्षा समझ कर उस पर अपने को प्रसन्नतापूर्वक कसने देते हैं ताकि उनका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल और आनन्दमय बन जावे। दु:ख- सुख रोज आने वाली घटनाएँ है फिर क्यों उनके कारण अपने को दुखी बनाया जाए? भलाई और उपकार के विचार एवं कार्य दु:ख में भी सुख उत्पन्न करते हैं। 

     कोई व्यक्ति तुम्हारे साथ बुराई कर रहा हो तो तुम सच्चे हृदय से उसकी भलाई चाहो। 

      जिस समय दु:ख का वातावरण पैदा हो रहा है उस समय किसी दुःखी व्यक्ति की सेवा सहायता करने लगो या उपकार की महत्ता पर मन ही मन विचार करना आरम्भ कर दो। 

     भलाई के विचारों में एक ऐसी शक्ति है कि मन चाहे कितना ही भारी क्यों न हो रहा हो उसमें तुरन्त ही हलकापन आता है और शान्ति उपलब्ध होती है। पूजा पाठ, दान, धर्म, उपदेश, सेवा यह सब भलाई की श्रेणी ही में गिने जाते हैं।

      अपने आप को चिन्ता में से उबारने की शिक्षा दो। भुला देने का अभ्यास कर लेना बहुत बढ़िया उपाय है क्रोध या चिन्ता के विचारों पर जितना ही अधिक ध्यान दिया जाता है वे उतने ही अधिक भड़कते हैं और दुख को अधिकाधिक बढ़ाते जाते हैं, इसलिये जब कोई आवेश आ रहा हो या दिल टूट रहा हो तो उसे भुलाने का प्रयत्न करो। 

     दूसरे किसी प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले काम पर लगा दो और उस दु:खद प्रसङ्ग को बिलकुल भुला देने का प्रयत्न करो मानो उस प्रकार की कोई बात हुई ही न थी। 

    हँसो न आती हो तो भी हँसो, बनावटी हँसी हँसो। दर्पण में अपना हँसता हुआ चेहरा बार-बार देखो और मन ही मन प्रसन्नता प्राप्त करो।

      निम्न मंत्रों को बार-बार दुहराते रहने पर भी अप्रसन्नता की आदत छूट जाती है और प्रसन्न रहने का स्वभाव बन जाता है :

(1) मैंने सदा प्रसन्न चित्त रहने की प्रतिज्ञा कर ली है।

(2) मैं ईश्वर की दयालुता पर पूर्ण विश्वास करता हूँ।

(3) मेरी आत्मा आनन्द, आरोग्य और ऐश्वर्य स्वरूप है।

(4) मेरे मन में चिन्ता, दुख, शोक आदि शत्रुओं के लिए तनिक भी स्थान नहीं है।

(5) मैं आनन्दमय हूँ और हर स्थिति में आनन्द प्राप्त करता हूँ।

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