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शांतिदूत सुब्बाराव, उनके सान्निध्य में बिताए पल,जो भुलाए नहीं जा सकते

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*हरीश दुबे

चंबल के शांतिदूत डॉ एसएन सुब्बाराव के निधन की दुःखद खबर से मन बोझिल तो हुआ ही, उनसे जुड़ी कई पुरानी मधुर और निराश मन में जोश भर देने वाली यादें ताजा हो गईं।
उनसे जुड़ी पहली याद करीब 37 वर्ष पुरानी है जब उनके साथ पूरे सात दिन रहने और उनसे काफी कुछ सीखने का मौका मिला। 84 में दीवाली की छुट्टियां चल रही थीं। इसी वर्ष ग्वालियर के साइंस कॉलेज में प्रवेश लिया था। उम्र 15 वर्ष से भी कम, यानि कॉलेज में सबसे अल्पवय। कॉलेज में आने के साथ ही राष्ट्रीय सेवा योजना से जुड़ गए और इस तरह सुब्बारावजी के सान्निध्य में आए। वजह यह कि सुब्बाराव राष्ट्रीय सेवा योजना के फाउंडर थे। उस वक्त संगठन के सारे कार्यक्रम सुब्बाराव के मार्गदर्शन से ही तय होते थे। सुब्बारावजी ने दीवाली की छुट्टियों में “वृक्षगंगा साइकिल रैली” निकालने का कार्यक्रम दे दिया। ग्वालियर से शिवपुरी तक। करीब हफ्ते भर की इस साइकिल यात्रा में हम भी सहभागी बने। सबकी तरह हमने भी इस लंबी यात्रा के लिए साइकिल की ओवरहालिंग करा नटबोल्ट कसवा कर तैयारी कर ली थी। साइंस, एमएलबी, माधव, एसएलपी, पीजीवी समेत ग्वालियर के करीब दर्जनभर कॉलेजों के तीनसौ छात्र तय दिन साइंस कॉलेज के मैदान से साइकिल से शिवपुरी के लिए रवाना हुए। सुब्बारावजी इस पूरी यात्रा का अपडेट ले रहे थे।
साइंस कॉलेज मैदान से हम रवाना तो जोशखरोश से हुए लेकिन बेला की बावड़ी पहुंचकर हांफनी भर आईं। चक्कर आने व वोमेटिंग के चलते लस्त हो गए। साथ चल रही राष्ट्रीय सेवा योजना के अधिकारियों की जीप पर साइकिल सहित लद कर किसी तरह यात्रा के पहले पड़ाव नयागांव रेस्टहाउस पहुंचे। यहीं मुझे यात्रा में बनाए रखने या बैरंग वापस लौटाने का निर्णय होना था। तब तक तबियत सुधर गई थी, जोश भी लौटने लगा था। सुब्बारावजी को भी एक साथी के बीमार पड़ने की खबर भेज दी गई। ज्यादातर लोगों की राय थी कि मुझे अभी वापस कर दिया जाए ताकि आगे की सवासौ किमी की यात्रा में रायता न फैले लेकिन मेरी जिद यात्रा में साथ चलने की थी। रेस्टहाउस में फोन पर संपर्क में बने सुब्बारावजी ने मेरी इच्छा अनुसार निर्णय करने को कहा। राष्ट्रीय सेवा योजना के तत्कालीन अधिष्ठाता श्री नागर, डॉ. वीएम सहाय आदि ने मेरे स्वस्थ रहने की गारंटी पर साइकिल वापस थमा दी। फिर तो पूरी यात्रा में हमारी साइकिल ही सबसे आगे चली। रास्ते में घाटीगाँव, मोहना, सतनबाड़ा, सुभाषपुरा के रेस्टहाउसों पर विश्राम होता था।
यात्रा का मकसद था वृक्षारोपण करना और लोगों को जल, और जंगल बचाने के लिए प्रेरित करना। ग्वालियर से शिवपुरी के बीच हमने दर्जनों गांवों में वृक्षारोपण किया, ग्रामीणों को पेड़ न काटने की समझाइश दी, उन्हें खेतों की मेड़ और गांव की खाली जमीन पर लगाने के लिए पौधे बांटे। सारा इंतजाम, तैयारी व निर्देशन सुब्बारावजी का था, लिहाजा हर जगह हम साइकिल यात्रियों का गर्मजोशी से स्वागत हुआ।
चार दिन बाद यात्रा सफलापूर्वक पूरी कर शिवपुरी जिले की सीमा में प्रवेश करते ही पूरा शहर हमारी अगवानी के लिए उमड़ पड़ा, नेताओं से लेकर अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता तक। पहला बड़ा स्वागत शिवपुरी के प्रवेशद्वार पर कत्था मिल प्रबंधन ने किया, उसके बाद होटल वनस्थली पर शानदार आयोजन हुआ, कई संस्थाओं ने कार्यक्रम रखे। शहर में पहुँचते ही सुब्बारावजी ने मेरी कथित हिम्मत की तारीफ करते हुए जमकर पीठ ठोकी। शिवपुरी की सड़कों पर जब सुब्बारावजी के साथ सैकड़ों साइकिलों पर वृक्षारोपण और जल जमीन जंगल के नारे लगाते हुए हम यात्री निकलते थे तो ट्रैफिक थम जाता था। शिवपुरी के सरकारी डिग्री कॉलेज के विशाल सभागार में बड़ा कार्यक्रम हुआ, जिसमें जेयू के तत्कालीन कुलपति डॉ. केके तिवारी और उनकी धर्मपत्नी सिन्धु तिवारी भी शामिल हुईं। सिन्धु तिवारी उस वक्त की इंदिरा सरकार के केंद्रीय मंत्री वसंत साठे की बहन थीं और इस तरह के आयोजन उनके रुचिकर थे। कार्यक्रम में अपने उदबोधन में सुब्बारावजी ने पेड़ों का महत्व तो बताया ही, साइकिल रैली के सबसे अल्पवय यात्री का जिक्र करना नहीं भूले, सारा किस्सा सुनाया कि किस तरह यात्रा की शुरूआत में ही ग्वालियर में बीमार पड़ने के बावजूद वह शिवपुरी तक साथ चला है। भाईजी की कृपा से दूसरे दिन अखबार में छपी खबरों में हमें भी एक बॉक्स मिला। सुब्बारावजी को उनके प्रियजन भाईजी ही संबोधन देते थे।
उस वक्त शिवपुरी कॉलेज के प्राचार्य देश के शीर्षस्थ कवि रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’ थे, वे सुब्बारावजी के मित्र थे, लिहाजा दो दिन तक हम इस कॉलेज के मेहमान रहे। इस दौरान हम आसपास के तमाम गांवों में जाकर पौधे लगाते रहे, वृक्षारोपण करते रहे। अब ग्वालियर वापस लौटना था। पैर जवाब दे चुके थे। सुब्बारावजी और दीगर अधिकारी हमारी परेशानी समझ गए। प्रशासन से कहकर कुछ बसों और एक ट्रक का इंतजाम किया गया। बसों में हम लदे और ट्रक में हमारी साइकिलें। शिवपुरी का जो सफर हमने साइकिल से चार दिन में तय किया था, वापसी का वही सफर चार घँटे में पूरा हो गया।
पत्रकारिता में प्रवेश के बाद भी सुब्बारावजी का सान्निध्य मिलता रहा। उनके ग्वालियर आने का अर्थ एक बड़ी खबर का सृजन था। वे बहुत बड़ी शख्सियत थे, लेकिन उनसे मिलना बहुत आसान था, उनसे कुछ भी पूछा जा सकता था, कभी झल्लाहट नहीं।आखिरी बार पूरे एक दिन का सान्निध्य जौरा (मुरैना) के गांधी शांति आश्रम में उस वक्त मिला जब यहां चंबल के आत्मसमर्पित दस्यु सरदारों ने सरकार की वादाखिलाफी पर रोष जताने बड़ा सम्मेलन रखा। करीब डेढ़-दोसौ आत्मसमर्पित दस्यु इसमें शामिल हुए थे। इनमें से कुछ तो सरकार द्वारा पुरानी शर्तें न मानने पर बीहड़ में वापस लौटने की खुली धमकी तक दे रहे थे। कवरेज के लिए हम ग्वालियर से गए थे। पूरा दिन सुब्बारावजी के साथ ही बीता। यहां वे बीहड़ छोड़ शान्ति के पथ पर चलने वाले पुराने डकैतों को समझाते, उनकी मांगें व समस्याएं सरकार तक पहुंचाने का भरोसा देते घर के बड़े बुजुर्ग की मानिंद दिखे। मोहरसिंह, लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का, मलखान सिंह और रमेश सिकरवार जैसे तमाम बागी सरदार हथियार डाल चुकी अपनी गैंग के साथ इस सम्मेलन में आए थे। आश्रम में हर तरफ बंदूकें लहरा रही थीं लेकिन पुलिस को आश्रम में आने की इजाजत नहीं थी क्योंकि ज्यादातर बागियों की शिकायत ही पुलिस से थी, बागियों के मुताबिक पुलिस अफसर उनके पुराने केस उखाड़ रहे है। सरकार के प्रति नाराजगी के सुर लेकर आए इन बागी सरदारों को हमने सुब्बाराव के भरोसे पर यकीन कर गांधी शांति आश्रम से खुशी-खुशी वापस जाते हुए देखा।
बाद में प्रेस से चर्चा में सुब्बाराव द्वारा कहे ये शब्द हमें अब तक याद हैं कि अच्छे से अच्छा व्यक्ति भी बुरा हो सकता है और बुरे से बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन सकता है। हम सबका उद्देश्य होना चाहिए कि बुरे व्यक्ति को भी अच्छा बनायें और समाज के लिए उसका सदुपयोग करें। ऐसे थे शांतिदूत सुब्बारावजी। जिनकी बोली पर गोली भी पिघल जाती थी, जिन पर यकीन किया जा सकता था। वे पंडित नेहरू के सलाहकार रहे। इंदिराजी के विश्वस्त रहे तो लोकनायक जयप्रकाश के सहयोगी। चाहते तो राजनीति में काफी ऊंचा मुकाम हासिल कर सकते थे लेकिन उन्होंने कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर का पद छोड़कर अपना जीवन चंबल की भलाई के लिए समर्पित कर दिया। चंबल घाटी उनके अहसानों के बोझ तले दबी है जिसे सिर्फ चंबल की तरक्की का उनका संजोया सपना पूरा कर ही चुकाया जा सकता है। शांतिदूत को अश्रुपूरित नमन।💐🌺

                           -- *हरीश दुबे*

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