पिछले साल 26 नवंबर को किसान तमाम बाधाओं को पार करते हुए दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे थे। जब आये थे तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि वे एक ऐसी हुकूमत को चुनौती देंगे, जिसके पास सदन में प्रचंड बहुमत है। इस बहुमत का असर दमनात्मक कार्यवाहियों के दौरान क्रूरता के रूप में दिखी। लेकिन किसानों ने ऐतिहासिक सफलता भी हासिल की। बता रहे हैं सैयद जैगम मुर्तजा
बीते 19 नवंबर, 2021 को यानी किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने में ठीक सात दिन पहले ही सुबह नौ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीवी पर राष्ट्र के नाम अपना संबोधन शुरु किया, तब किसी को शायद ही मालूम होगा कि प्रधानमंत्री तीन विवादित कृषि क़ानून वापस लेने का ऐलान करने वाले हैं। यक़ीन की कोई ख़ास वजह लोगों या राजनीतिक विश्लेषकों के पास थी भी नहीं। हालांकि किसान आंदोलन से जुड़े लोग काफी दिन से लगातार कह रहे थे कि सरकार झुकेगी और कृषि क्षेत्र के कथित सुधार से जुड़े यह बिल वापस लेगी।
साल भर से सड़कों पर बैठे किसानों के पास अपने ऊपर यक़ीन करने के लिए कुछ वजहें थीं। एक तो यह पहली बार नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों से जुड़े मुद्दे पर आंदोलन ने अपने क़दम वापस लेने को मजबूर किया है। भूमि अधिग्रहण क़ानून पर तमाम फज़ीहत उठाने के बाद सरकार को ऐसा ही फैसला लेना पड़ा था। हालांकि इसके बावजूद भूमि अधिग्रहण क़ानून की धार सरकार ने पहले मुक़ाबले कुछ कुंद कर पाने में कामयाब रही है। किसान इस बार इसलिए भी आश्वस्त थे, क्योंकि उनको आंदोलन को अपेक्षा से ज़्यादा जनसमर्थन मिल रहा था। बढ़ती महंगाई पर क़ाबू कर पाने में सरकार की विफलता ने किसानों के उस दावे को मज़बूत ही किया, जिसमें कहा गया था कि यह क़ानून जमाख़ोरी, महंगाई और कालाबाज़ारी को बढ़ावा देंगे।
किसानों का आरोप है सरकार ने खेती लागत से जुड़ी चीज़ों, ख़ासकर बिजली, डीज़ल, खाद, कीटनाशक के मूल्यों को बढ़ जाने दिया है या बढ़ा दिया है। माल भाड़ा यानी कृषि उपज की खेत से ढुलाई का ख़र्च लगातार बढ़ रहा है।
किसान आंदोलन ने एक साल पूरा होने से पहले अपने एक लक्ष्य तक़रीबन हासिल कर लिया है। हालांकि अभी तीनों विवादित कृषि क़ानून ख़त्म होने की प्रक्रिया अभी शुरु ही हुई है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि संसद के शीतकालीन सत्र में यह क़ानून ख़त्म करने पर काम किया जाएगा। लेकिन किसान इस वायदे से अभी संतुष्ट नहीं हैं। किसान नेताओं का कहना है कि ईमानदार होती तो सरकार यह काम अध्यादेश लाकर भी कर सकती थी। संसद सत्र में अध्य़ादेश पर संसद की मंज़ूरी ले ली जाती।
विवादित क़ानून वापस लेना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। इसकी प्रक्रिया संसद में किसी भी क़ानून के पारित कराने की प्रक्रिया जैसी ही है। सरकार एक ही बिल के जरिए तीनों कृषि क़ानून वापस ले सकती है। संसद के दोनों सदनों में क़ानून निरस्तीकरण विधेयक पारित होने के बाद उसे मंज़ूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। विधेयक पर राष्ट्रपति के दस्तखत होने के बाद उसे राजपत्र में प्रकाशित किया जाएगा और इस तरह क़ानून वापसी की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। लेकिन किसानों को सरकार की नीयत पर न सिर्फ संदेह है, बल्कि क़ानून वापसी के ऐलान को किसान अपनी मांग पूरी होने के तौर पर नहीं देख रहे हैं। यही वजह है कि संयुक्त किसान मोर्चा ने अभी भी अपना आंदोलन जारी रखने का फैसला किया है।
दरअसल किसान अभी भी एमएमसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और कृषि उपज के दाम कृषि लागत से जोड़ने की मांग पर अटल हैं। किसानों का आरोप है सरकार ने खेती लागत से जुड़ी चीज़ों, ख़ासकर बिजली, डीज़ल, खाद, कीटनाशक के मूल्यों को बढ़ जाने दिया है या बढ़ा दिया है। माल भाड़ा यानी कृषि उपज की खेत से ढुलाई का ख़र्च लगातार बढ़ रहा है। इसके अलावा कृषि लागत में खेत में काम कर रहे किसान और उसके परिवार की मज़दूरी को जोड़ने का कोई तंत्र अभी तक नहीं है। ऐसे में खेती करना लगतारा घाटे का सौदा बना हुआ है।
इसके उलट उपज की सुरक्षा, ख़रीद और भंडारण जैसे मुद्दे अभी भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। सरकारों ने न सिर्फ इन तमाम मुद्दों की अनदेखी की है बल्कि किसानों को बाज़ार और दलालों के भरोसे छोड़कर अपने हाथ झाड़ लिए हैं। सरकार कृषि बीमा और खाद सब्सिडी पर सबसे ज़्यादा शोर मचाती है। मज़े की बात है कि सब्सिडी खाद बनाने वाली कंपनी को मिलती है और बीमा का पैसा बीमा कंपनी को। कृषि बीमा योजना में निजी बीमा कंपनियों को सरकार करोड़ों रुपये हर साल दे रही है लेकिन इसके उलट किसानों के पास उनके नुक़सान के बदले दावों का भुगतान न के बराबर है। ऐसे में किसान भला किसलिए सरकार की बात मानकर अपना आंदोलन वापस ले लें?
ध्यातव्य है कि 26 नवंबर 2020 को जब तमाम किसान संगठन मार्च करते हुए दिल्ली आए थे तो उनके मांगपत्र में सिर्फ कृषि क़ानून वापसी का मुद्दा नहीं था। कृषि क़ानून लाकर तो सरकार ने किसानों को सड़कों पर उतर आने के लिए मजबूर कर दिया वरना इस वर्ग में ग़ुस्सा लगातार पनप रहा था। कृषि क़ानून आंदोलन शुरु होने की वजह ज़रुर बने लेकिन ख़त्म होने की वजह नहीं बन पा रहे हैं। एक साल हो गया है किसानों को घर छोड़े हुए। इस बीच सरकार ने तमाम तरह के आरोप किसानों पर लगाए और उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए तमाम तरह की बातों को हवा दी। ऐसे में बिना कुछ हासिल किए घर वापसी किसानों के लिए क्या इतनी आसान है?
कुल मिलाकर, एक साल का लेखा-जोखा यही है कि सरकार को किसानों की बात सुनने के आख़िर में मजबूर होना पड़ा है। सरकार में शामिल तमाम लोग यह मानने लगे हैं कि लोकतंत्र में सबकी बात सुनी जानी चाहिए। यही इस आंदोलन की सफलता है। हालांकि प्रधानमंत्री ने जिस तरह कृषि क़ानून वापसी का ऐलान किया और उनके समर्थकों ने इसे मास्टरस्ट्रोक साबित करने की कोशिश की, उसका नुक़सान आख़िर में उनकी स्वयं की छवि को ही होना है। किसानों के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है जबकि पाने के लिए बहुत कुछ।