पेंशन, सब्सिडी, छुट्टियां, मंहगाई भत्ता, चिकित्सा सुविधाएं यह सब बड़े संघर्षों के बाद पाए अधिकार हैं. इन्हें भावुक बनाकर खत्म करना इनसे लाभान्वित हो रह रहे आम लोगों के साथ बहुत अन्याय है.
शकील अख्तर
एक बार अगर देश में अजेंडा सेट हो जाता है तो उसे तोड़ना बहुत मुश्किल होता है और अजेंडा हमेशा ताकतवर ही सेट करते हैं. सरकार, सरकारी पार्टी, पूंजीपति. फंसते इसमें भावुक लोग हैं. नया कुछ करने के इच्छुक लोग, मगर देश, जनता, समाज की गहरी जानकारी नहीं रखने वाले लोग. फिलहाल नए विद्रोही बने वरुण गांधी इस नए छोड़ो, त्याग करो के अजेंडे में फंसे हैं. उन्होंने सांसदों, विधायकों से पेंशन छोड़ने की अपील की है.
जाहिर के इस अपील में बहुत जज्बात हैं, इसलिए इसे आम लोगों का समर्थन भी मिल रहा है. मगर पेंशन देने के लिए किसी के पेंशन छोड़ने से कुछ नहीं होगा. वाजपेयी शासन में लाखों कर्मचारियों की पेंशन छीन ली गई थी, मगर उससे किसी गरीब को, युवा को कुछ दिया नहीं गया !
देश में पिछले कई सालों से एक माहौल बनाया जा रहा था कि सांसद, विधायक सब भ्रष्ट हैं. राजनीति खुद में बुरी चीज है. एक अखबार तो चुनाव में शीर्षक देता था डासिंग डेमोक्रेसी ! यह शीर्षक ही डेमोक्रेसी को अपने आप डाय्लूट कर देता है. हर संस्था पर सवाल उठाओ और सबको नकारात्मक छवि से भर दो, यह दक्षिणपंथी राजनीति का मूल नियम है. सेठ, साहूकार इसमें हमेशा सहयोग करते हैं. खुद लोकतंत्र पर सवाल और लोकतंत्र चलाने वाली राजनीति पर सवाल से उन्हें अपनी सामाजिक सत्ता बनाए रखने में आसानी होती है. और देश में असली लड़ाई सामाजिक सत्ता बनाए रखने की है। अगर ऐसा नहीं होता तो दलित पर शारीरिक हमले और पिछड़ों पर शाब्दिक हमले क्यों होते ?
ये जो त्याग की अपील है उसी धारा से फूटती है. आपके पास बहुत कुछ है, थोड़ा सा त्याग करने में कुछ नहीं जाता है. लेकिन जो माहौल आप रचते हैं उसमें गरीब का सब कुछ चला जाता है. कई हकीकतें हैं. पहले एक बताते हैं. 1962 के युद्ध में देश के लिए सोना, चांदी, जेवर देने की अपील हुई. गरीब औरत के पास चांदी का एक बिछुआ था, जो उसकी मां, दादी से होता हुआ उसके पास आया था.
सेना के लिए मांगते हुए शहर के प्रमुख लोगों का जुलूस जब बाजार में उसके सामने आया तो उसने उस दिन की मजदूरी के पैसों के साथ वह बिछुआ भी उतारकर फैली हुई चादर में डाल दिया. ऐसे ही कई सामान्य महिलाओं ने अपने शरीर पर मौजूद एक दो जेवर अंगुठी, पाजेब सब उतारकर डाल दी. और जब यही जुलूस शहर के धनाड्यों के मौहल्ले में पहुंचा तो महिलाएं कुछ टूटा, पुराना ढुंढती ही रह गईं. घर में मौजूद आदमियों ने भी कहा कि कोई बात नहीं हम बाद में देंगे.
पता है देश भर में हुए उस चंदे में सबसे ज्यादा क्या चीज निकलीं ? खोटी चवन्नियां. ऐसा नहीं है कि आम लोगों के अलावा बड़े लोगों ने कुछ नहीं दिया हो, मगर उनकी हैसियत, संपत्ति के मुकाबले वह बहुत कम था. गरीब ने सर्वस्व दिया. जितना जो पैसा, जेवर था वह दिया. और रेल्वे स्टेशनों पर ट्रेनों में सीमा की तरफ जाते हुए सैनिकों को रात दिन ड्यूटि देकर चाय पानी पिलाया. बहुत छोटे थे. बस सेल्यूट कर सकते थे. मगर इतना याद है कि फौजियों से भरी ट्रेन को देखते ही कैसे गरीब, सामान्य लोग हाथों में पानी की बाल्टी और किसी बर्तन डोलची, देगची, पतीली में चाय लेकर दौड़ते थे.
सेना भारतीयों के दिलों के हमेशा बहुत नजदीक रही है. वरुण गांधी ने पेंशन छोड़ने की जो अपील की है, वह सेना में भर्ती होने वाले अग्निवीरों के लिए है लेकिन सब जानते हैं कि सांसद, विधायकों द्वारा छोड़ा गया पैसा हजारों अग्निवीरों की पेंशन के लिए अपर्याप्त है. ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही होगा.
मगर मुद्दा यह नहीं है. अगर सरकार को देना हो तो वह कहीं से भी दे सकती है. अंबानी, अडानी को दी जाने वाली छूटें थोड़ी सी कम करके अग्निवीरों को सिर्फ पेंशन ही नहीं उनके वेतन के साथ महंगाई भत्ता भी जोड़ सकती है. वेतन थोड़ा सम्मानजनक बना सकती है. मगर सरकार अब युवाओं को परमानेंट नौकरी नहीं स्थाई भक्त बनाए रखना चाहती है. युवाओं की भीड़ ही भावुक राजनीति को गति देती है.
नफरत और विभाजनकारी राजनीति के लिए चार साल बाद 22-23 साल में रिटायर होकर बिना किसी आमदनी का आया हुआ युवा बहुत मुफीद होगा, सैन्य ट्रेनिंग लिए हुआ युवा. हाथ में कुछ पैसे और अनिश्चित भविष्य. अराजक माहौल बनाने के लिए यह सबसे खतरनाक वर्ग होता है, जिसे सेना विशेषज्ञ कह रहे हैं अधपका सैनिक. वह जोश में होगा, हिम्मती होगा मगर उद्देश्यहीन. राजनीति के लिए ऐसे युवा बहुत उपयोगी होंगे. तो भाजपा के पास इनके लिए राजनीतिक उद्देश्य का काम होगा इसलिए इन्हें पेंशन देकर सेटल हो जाने का कोई मौका नहीं दिया जाएगा.
अब एक और दूसरा बड़ा मुद्दा. वरुण और उन जैसे बहुत से साधन सम्पन्न सांसद, विधायकों को पेंशन की कोई जरूरत नहीं हैं मगर पूर्व सांसदों, विधायकों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसके जीवन निर्वाह का एक मात्र साधन यह पेंशन ही है, खासतौर पर कमजोर वर्ग के पूर्व सांसद, विधायक. सब्सिडी छोड़ने का जो उदाहरण उन्होंने दिया है वह भी खतरनाक है.
गैस पर, रेल्वे टिकट पर पहले कुछ लोगों की सब्सिडी छुड़वाई गई, फिर सबकी खत्म कर दी गई. वरिष्ठ नागरिक जो अकेले रहते हैं, रेल्वे सब्सिडी से कभी जरूरत पर अपने बच्चों या कहीं और जाने आने में सहुलियत हो जाती थी, वह खत्म हो गई. बिना पेंशन के बड़ी तादद में वरिष्ठ नागरिक देश में रहते हैं. आधा किराया होने से कभी वह देकर निकट के लोग उन्हें बुला लेते थे, अब उनका अकेलपन और बढ़ गया है.
एक उदाहरण और बताते हैं, सांसदों का ही. पार्लियामेंट में दूसरे आफिसों की तरह केंटिन में सब्सिडी होती थी मगर जैसे आफिसों में बड़े अफसर उसका उपयोग नहीं करते बल्कि सामान्य कर्मचारी ही उसका उपयोग करते हैं, ऐसे ही पार्लिंयामेंट में सांसद और मंत्री उसका उपयोग नहीं करते बल्कि आम कर्मचारी, सिक्योरटी के लोग, पत्रकार, सफाई कर्मचारी और कम वेतन वाले दूसरे लोग ही इसका उपयोग करते थे.
मगर एक दिन प्रधानमंत्री ने वहां लंच खाकर उसका बिल सार्वजनिक करके पार्लिंयांमेट की केटिंन की सब्सिडी की बहस को उसे खत्म करने तक पहुंचा दिया. अब वहां रेट चार से पांच गुना तक बढ़ गए हैं. और पैसे जो दस, बीस रुपए नगद देकर आप कुछ खा लेते थे वह नगद बंद कर दिया गया है. अब कार्ड हो तो उसी से पेमेंट होगा, नहीं तो आप चाय भी नहीं खरीद सकते. और यह सबको मालूम है कि नगद के मुकाबले कार्ड से ज्यादा पैसे खर्च होते हैं.
जहां पहले दस रुपए में एक चाय, दो स्लाइस में काम चला लेते थे, वहां तीस चालीस रुपए देना पड़ते हैं. और गरीब का सहारा स्लाइस बंद ही कर दिए गए हैं. कर्मचारियों को सस्ती दरों में चाय, खाना उपल्ब्ध करवाने के लिए ये केंटिन बनाए गए थे. जहां खाना गर्म करने की व्यवस्था, बैठने की व्यवस्था, रुमाल में रोटी घर से बांधकर लाने वालों को पांच, सात रुपए में दाल या सब्जी देने की व्यवस्था होती थी, यह सब खत्म किया जा रहा है. इससे सांसदों, अफसरों, मोटी तनखा वालों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
आपको बता दें केन्द्र सरकार के बड़े आफिसों, मंत्रालयों में कई केंटिन होती है. सब्सिडी वाली भी, बिना सब्सिडी वाली भी और अशोका होटल के आउटलेट भी, जहां से 100-150 रुपए का एक डोसा मंगाकर अफसर अपने मेहमानों को खिलाते हैं और करीब इतने ही पैसों की दार्जीलिंग की चाय की ट्रे आती है.
सेना की केंटिन भी एक ऐसी ही व्यवस्था हैं, जहां से सैनिक रियायती दरों पर अपनी जरूरत का सामान लेता है, जो उसके रिटायरमेंट के बाद भी मिलता रहता है. मगर अग्निवीरों को रिटायर होने के बाद केंटिन सुविधा से वंचित कर दिया जाएगा.
पेंशन, सब्सिडी, छुट्टियां, मंहगाई भत्ता, चिकित्सा सुविधाएं यह सब बड़े संघर्षों के बाद पाए अधिकार हैं. इन्हें भावुक बनाकर खत्म करना इनसे लाभान्वित हो रह रहे आम लोगों के साथ बहुत अन्याय है. एक बड़ा अफसर कहता है मैं छुट्टी नहीं लेता, वह तो दफ्तर में ही छुट्टी की तरह मौज करता है, मगर एक सामान्य कर्मी छुट्टी लेकर अपनी बीमार मां को दिखाने अस्पताल की लाइन में लगता है. पिता के साथ उनकी बरसों से चल रहे पेंशन के मुकदमे की तारीख पर अदालत जाता है. बच्चे की साइकल ठीक कराने, पत्नी की आंख दिखाने डाक्टर या चश्मे वाले तक के पास जाने का उसे समय नहीं होता.
बड़े लोग खुद चवन्नी छोड़कर गरीब का सर्वस्व छुड़ाने की साजिश करते हैं. विनोबा भावे के भूदान में कई गरीब ऐसे ही अपनी जमीनें देकर भूमिहीन हो गए जबकि बड़े जमींदारों ने ऊसर, विवाद की और जंगल, दलदल की जमीनें देकर भी खूब वाहवाही पाई.
वरुण शायद इन सब बातों को नहीं जानते. अनुभव और अध्ययन उन्हें सिखाएगा. जरूरत सही नीतियां बनाने के लिए सरकार पर दबाव डालने और जनता में जागरूकता पैदा करने की है, युवाओं को यह बताने की कि रोजगार उनका अधिकार है.