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दर्शन और विज्ञान : पदार्थ ‘ऊर्जा’ की कण- तरंग प्रकृति

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 (The Particle Wave Nature of Matter ‘Energy’)

       डॉ. विकास मानव 

     जब पदार्थ-ऊर्जा का द्वित्व (Duality) सिद्ध हो गया, तो जो स्वाभाविक निष्कर्ष निकला वह यह था कि मूल कण पदार्थ के रूप में तथा साथ ही साथ तरंगों में समाहित ऊर्जा के रूप में रहते हैं। 

      इसका अर्थ यह हुआ कि मूल कण एक अवस्था में केवल ऊर्जा तरंगों के रूप में तथा दूसरी अवस्था में मूल कण हैं। जहाँ एक ओर ऊर्जा-पदार्थ द्वित्व सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त वाली आइन्सटीन की परिकल्पना का सुस्पष्ट निष्कर्ष था, वहीं स्पेक्टम-विज्ञान के प्रायोगिक अध्ययनों और क्वांटम सिद्धान्त के गणितीय निष्कर्षों में कण-तरंग द्वित्व प्रदर्शित किया गया है।

*पदार्थ-ऊर्जा : Matter-Energy*

        मैं थोड़े इतिहास और थोड़े रसायनविज्ञान से अपनी बात आरम्भ करूँगा। 19वीं शताब्दी के अन्त तक ज्ञात ब्रह्माण्ड के निर्वात, तत्वों और यौगिकों तथा तत्वों और यौगिकों के मिश्रणों से युक्त होने का सिद्धान्त बनाया गया। यह भी माना गया कि तत्वों ने ब्रह्माण्ड के मूल निर्माण खण्डों और रसायन को आकार दिया।

       सरल शब्दों में, ब्रह्माण्ड को दो भागों में विभाजित किया जा सकता था, यथा-तत्व (पदार्थ) और निर्वात (शून्य)। शब्द ‘निर्वात’ (Vacuae) अपने आपमें उतना ही मस्तिष्क व्यग्र करने वाला हो सकता है जितना कि ‘शून्य’ (Space)।

       प्रारम्भ में हम अपना अध्ययन पदार्थ (Matter) के अध्ययन और यह निश्चित करने तक ही सीमित रख सकते हैं कि तत्व क्या हैं ? जिस तरह बीसवीं शताब्दी का एक स्कूली छात्र जिसे भौतिक विज्ञान और रसायनविज्ञान का आधारभूत ज्ञान है, यह समझता है कि तत्व पदार्थ के विशिष्ट उपखंड हैं जिनके विशिष्ट रासायनिक गुणधर्म होते हैं उसी तरह हमें भी यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

      नील बोर (Neil Bohr) ने अपने परमाणु के मॉडल में सैद्धांतिक रूप से तत्वों की संरचना की व्याख्या की है। चिरसम्मत (Classical) भौतिक विज्ञान में ‘परमाणु’ को तत्वों का मूल निर्माण-खण्ड माना जाता था। प्रत्येक परमाणु की एक विशिष्ट ‘परमाणु संख्या’ और विशिष्ट ‘परमाणु भार’ था। परमाणु के इस मॉडल में परमाणु के द्रव्यमान का अधिक भाग एक केन्द्रीय नाभिक में सांद्रित रहता है, जो धनात्मक आवेशयुक्त होता है (इस नाभिक का आवेश परमाणु की परमाणु संख्या सूचित करता है)।

       ऋणात्मक आवेशयुक्त कण जिन्हें इलेक्ट्रॉन कहते हैं, इस नाभिक की कक्षाओं में चक्कर लगाते हैं, जिन्हें बोर (Bohr) की कक्षायें अथवा बोर के ऊर्जा- स्तर का नाम दिया गया है। प्रत्येक इलेक्ट्रॉन में एक ऋणात्मक आवेश होता है। 

     बोर के इन ऊर्जा-स्तरों में नाभिक का चक्कर लगाने वाले इलेक्ट्रॉनों की भारी संख्या के कारण नाभिक का धनात्मक आवेश इन इलेक्ट्रॉनों के कारण निष्प्रभावी हो जाता है। इस प्रकार परमाणु विद्युत्-उदासीन हो जाता है और स्थिर होता है।

परमाणुओं (तत्वों) से पदार्थ की संरचना में अनेक जटिलतायें हैं। परमाणु अणुओं के निर्माण-खण्ड हैं। ये अणु एक ही तत्व अथवा भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणुओं से मिलकर बन सकते हैं। वे अणु जो भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणुओं से बनते हैं, पदार्थ के अधिक जटिल रूपों वाले निर्माण-खण्ड होते हैं, जिन्हें यौगिक कहा जाता है।

      ये यौगिक और यौगिकों के मिश्रण वे हैं जो पदार्थ में अंतर्विष्ट हैं। यह पदार्थ वृहत् (दृश्य) ब्रह्माण्ड की रचना करता है।

      इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कोई जटिलतायें नहीं थीं। लघुतम स्तर पर समस्त पदार्थ के संघटक परमाणु थे और विशालतम स्तरों पर पदार्थ के पिंडक (जैसे-पृथ्वी, चन्द्रमा, उपग्रह, ग्रहिकायें, धूल) पदार्थ के विशाल पिंडकों (जैसे-सूर्य और तारों) का परिक्रमण करते थे। ये परिक्रमण केपलर (Kepler) द्वारा बनाये गये नियमों अर्थात् ‘लाज ऑव प्लेनेटरी मोशन’ के अनुरूप थे। 

      इन नियमों में ये परिक्रमण निरपेक्ष (Absolute) माने जाने वाले आकाश (Space) में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम और न्यूटन के गति नियमों के अनुसार होते थे। ठीक समय पर उनकी गति भी अबाध मानी जाती थी और समय स्वयं निरपेक्ष माना जाता था। परमाणु स्वयं अधिक आपेक्षिक घनत्व वाले (Heavy) धनात्मक आवेशयुक्त नाभिकों से बने हुए माने जाते थे। 

      यह माना जाता था कि इन नाभिकों के चारों ओर ऋणात्मक आवेशयुक्त इलेक्ट्रॉन कक्षाओं (Orbits) में चक्कर लगाते थे, जिसके कारण परमाणु विद्युत्- उदासीन हो जाता था।

परमाणुओं से पदार्थ के विकसित होने की जटिलताओं के अध्ययन हेतु जो विषय हैं उसे रसायनविज्ञान का नाम दिया गया है। तथापि यहाँ पर जिस विषय में रुचि की आवश्यकता है, वह रसायनविज्ञान नहीं, बल्कि परमाणुओं का ही संघटन है। 

     इस विषय पर आने के पूर्व मैं पाठकों का परिचय विज्ञान के संसार और 20वीं शताब्दी के आरम्भ के भौतिक विज्ञान संसार के दो महान् विद्वानों से परिचय कराना आवश्यक समझता हूँ। ये विद्वान् थे-अल्बर्ट आइन्सटीन और मैक्स प्लांक। 

      जहाँ आइन्सटीन ने सन् 1905 में प्रकाशित अपने ‘सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त’ और सन् 1915 में प्रकाशित अपने ‘सापेक्षता के सामान्य सिद्धान्त’ से ब्रह्माण्ड के वृहत् दृश्य-चित्र, विशेषकर जिसका सम्बन्ध उस धारणा की भ्रांति से था कि ‘आकाश’ (दिक्) (Space) और ‘काल’ (Time) निरपेक्ष है, को बदल दिया, वहीं मैक्स प्लांक ने अपने क्वांटम सिद्धान्त से आणविक, परमाणविक तथा अव- परमाणविक स्तरों पर पदार्थ के उप-विभाजनों का सूक्ष्म दृश्य- चित्र बदल दिया।

वैज्ञानिक अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि समस्त परमाणु कणों (Particles) के विभिन्न संयोजनों से बने हैं, जिन्हें वर्तमान समय पर ‘मूल कणों’ का नाम दिया गया है। अब तक खोज किये गये मूल कणों की संख्या इतनी विशाल है और उनका व्यवहार इतना अनियमित और विलक्षण है कि वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्ड को क्वार्क्स, लेप्टान्स (इलेक्ट्रॉन्स), हिग्स-बोसन्स, पैंग-मिल्स पार्टिकल्स, ग्लुऑन्स, डब्ल्यू-बोसन इत्यादि जैसे अनोखे कणों का सत्वालय कहना आरम्भ कर दिया है। 

     बीसवीं शताब्दी के अन्त तक मूल कणों को मोटे तौर पर दो समूहों में वर्गीकृत किया जा चुका था, जो हैं- क्वार्क्स कुल (भिन्न-भिन्न वर्णों के रूप में वर्गीकृत उनके भिन्न-भिन्न विन्यासों समेत) और लेप्टान्स कुल (जैसे- इलेक्ट्रॉन्स, पोजीट्रॉन्स, न्यूट्रिनोज इत्यादि)। 

      ग्लुऑन्स कहे जाने वाले कणों द्वारा संगठित क्वार्क्स ने परमाणुओं का मुख्य द्रव्यमान स्थापित किया। क्वार्क्स की संख्या परमाणु के परमाणु भार पर निर्भर थी। परमाणु जितना भारी होता था, इसके नाभिक में अंतर्विष्ट क्वार्क्स की संख्या भी उतनी ही अधिक होती थी। इलेक्ट्रॉन्स के बारे में निस्संदेह रूप से माना जाता था कि वे नाभिक के चारों ओर कक्षाओं में या ऊर्जा स्तरों में चक्कर लगाते थे। 

     उस समय परमाणविक और अव-परमाणविक स्तरों पर पदार्थ की संरचना की यही समझ थी।

       ‘पदार्थ’ की संरचना के इस अध्ययन का उप-सिद्धान्त ‘ऊर्जा’ का अध्ययन है और इस तथ्य को समझना है कि हम उन निष्कर्षों पर किस प्रकार पहुँचते हैं कि पदार्थ का अस्तित्व द्वित्वयुक्त है, यथा-पदार्थ ऊर्जा द्वित्व (जैसा निष्कर्ष स्पेशल थ्योरी ऑव रिलेटिविटी में है) और कण-तरंग द्वित्व (जैसा निष्कर्ष क्वांटम थ्योरी में है)।

अति प्राचीन काल से हम दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा और तारों को विस्मय के साथ देखते और सोचते रहे हैं कि वह कौन-सी वस्तु है जो इनको दीप्ति और चमक प्रदान करती है। अंततः इसका उत्तर भौतिक विज्ञान के एक अध्ययनकर्ता द्वारा दिया गया कि यह सारी चमक कुछ और नहीं बल्कि प्रकाश है, जो ऊर्जा का एक रूप है।

      भौतिक विज्ञान में ‘ऊर्जा’ को किसी काया अथवा किसी उपकरण के कार्य करने की पूरी क्षमता के रूप में परिभाषित किया गया है। भौतिक विज्ञान की भाषा में ‘कार्य’ को काया पर प्रभाव उत्पन्न कर रहे ‘बल’ की तीव्रता तथा ‘दूरी’ जिसके माध्यम से उस काया को इस पर प्रभाव उत्पन्न कर रहे बल के कारण ‘शून्य’ में संचलन करना होता है, के उत्पाद के रूप में परिभाषित किया गया है।

      20वीं शताब्दी के आरम्भ में ज्ञात ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप थे- (1) यांत्रिक ऊर्जा- (क) स्थितिज ऊर्जा (ख) गतिज ऊर्जा (2) ताप ऊर्जा (3) ध्वनि ऊर्जा (4) प्रकाश ऊर्जा (5) चुम्बकीय ऊर्जा (6) वैद्युत् ऊर्जा।

ऊर्जा संधारण के वृहत् नियम में निर्दिष्ट है कि ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है। केवल इसकी अवस्था में परिवर्तन होता है। ऊर्जा की अवस्था में परिवर्तन के परिणामस्वरूप काया अथवा उपकरण कार्य करता है। 

      दूसरे शब्दों में फोटोइलेक्ट्रिक सेल तब कार्य करता है जब यह प्रकाश ऊर्जा को वैद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है; हर एक यांत्रिक उपकरण तभी ‘कार्य’ करता है जब यह ‘स्थितिज ऊर्जा’ को ‘गतिज ऊर्जा’ में अथवा विलोमतः परिवर्तित कर देता है; इलेक्ट्रिक बल्ब तभी कार्य करता है जब यह ‘वैद्युत् ऊर्जा’ को प्रकाश और ताप ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है; वाष्प इंजन तभी कार्य करता है जब यह वाष्प की ताप ऊर्जा को इंजन की गतिज ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है, इत्यादि। 

     पिछली शताब्दी के आरम्भ तक कार्य को बल द्वारा शून्य में तय की गई दूरी के द्वारा बहुगणित किये गये बल के रूप में परिभाषित किया गया था और किसी उपकरण के कार्य करने की पूर्ण क्षमता इसकी अन्तर्निहित ऊर्जा थी।

भौतिक विज्ञान के इस क्षेत्र में अल्बर्ट आइन्सटीन नाम के एक महान् विद्वान् का उदय हुआ जिन्होंने ‘सापेक्षता का विशेष सिद्धान्त’ (Special Theory of Relativity) का प्रतिपादन किया।

       यद्यपि हम लोग सापेक्षता के सिद्धान्त पर अलग से विचार करेंगे, तथापि सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त के मुख्य निष्कर्षों में से एक जो यहाँ पर संगत है, उसके अनुसार को ऊर्जा में और ऊर्जा को पदार्थ में परिवर्तित किया जा सकता है। दोनों के बीच का सम्बन्ध निम्नलिखित व्यंजक में स्पष्ट किया गया है-

                  E = mc²

उपर्युक्त व्यंजक में ‘m’ का अर्थ पदार्थ का द्रव्यमान (Mass) है और c उपर्युक्त प्रकाश की गति का प्रतीक चिह्न है। ‘E’ ऊर्जा है जो ‘m’ द्रव्यमान के पदार्थ को परिवर्तित करने में उत्पन्न होती है।

इसके पश्चात् ऊर्जा की एक नई अवस्था का पता लगाया गया जिसे ‘नाभिकीय ऊर्जा’ कहा गया है और अब ऊर्जा के संधारण के नियम को पदार्थ ऊर्जा का संधारण नियम कहा जा सकता है। नाभिकीय रिएक्टर से पदार्थ को ताप ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इस प्रकार उत्पन्न की गई ताप ऊर्जा का उपयोग कार्य करने के लिए किया जा सकता है तथा वैद्युत् ऊर्जा जैसी ऊर्जा को किसी अन्य अवस्था में परिवर्तित किया जा सकता है। 

    नाभिकीय ऊर्जा की विनाशकारी और निर्माणकारी क्षमतायें सुविख्यात हैं।

      बीसवीं शताब्दी के दौरान किये गये अनुसंधान से ज्ञात हुआ कि वास्तव में ऊर्जा की समस्त अवस्थायें ऊर्जा की तीन अवस्थाओं में से एक में अंतर्विष्ट हैं, यथा- (1) यांत्रिक ऊर्जा (स्थितिज ऊर्जा और गतिज ऊर्जा) (2) विद्युत्-चुम्बकीय ऊर्जा, और (नाभिकीय ऊर्जा) । ताप और ध्वनि ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं क्योंकि वे अणुओं की चाल की गतिज ऊर्जा हैं; अनियमित अणु गति के परिणामस्वरूप ताप उत्पन्न होता है और अणुओं की तरंगों में गति के परिणामस्वरूप ध्वनि उत्पन्न होती है। 

       प्रकाश ऊर्जा विद्युत्-चुम्बकीय ऊर्जा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अन्ततः ऊर्जा की तीसरी अवस्था जो परमाणविक और अव परमाणविक स्तरों पर ऊर्जा को पदार्थ में संयोजित करती है वह ‘नाभिकीय ऊर्जा’ है।

परमाणवीय और आणविक स्पेक्ट्रम विज्ञान ने प्रदर्शित किया है कि प्रकाश (विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों) का उत्सर्जन उन परमाणुओं और अणुओं के द्वारा किया जाता है जो स्थिर अवस्था से अधिक उत्तेजित अवस्था में होते हैं।

      इसी प्रकार परमाणु और अणु अपने ऊर्जा स्तरों को उन्नत करने के लिए प्रकाश (विद्युत्- चुम्बकीय तरंगों) को अवशोषित करते हैं। तथापि, परमाणुओं और अणुओं द्वारा उत्सर्जित/अवशोषित विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की आवृत्ति/तरंग दैर्ध्य वास्तव में तत्व/अणु पर निर्भर है।

     दूसरे शब्दों में प्रत्येक परमाणु और अणु का एक स्पेक्ट्रमी चिह्नक (Spectroscopic signature) होता है। परमाणु किस तत्व (Element) का है, या अणु किस यौगिक (Compound) का है, इसका निर्धारण इसके चिह्नक, प्रकाश के उत्सर्जन/अवशोषण या विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों का प्रेक्षण करके किया जा सकता है।

20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में स्पेक्ट्रमी अध्ययन के द्वारा मैक्स प्लांक ने क्वांटम सिद्धान्त की खोज की और इसका प्रतिपादन किया। यह सिद्धान्त प्रतिज्ञापित करता है कि विद्युत्- चुम्बकीय तरंगों में समाहित ऊर्जा एक सतत स्पेक्ट्रम के रूप में नहीं बल्कि पैकेटों अथवा क्वांटम में उत्सर्जित/अवशोषित होती है।    

      प्रकाशपुंज अथवा क्वांटम वे ऊर्जापुंज हैं जिनका परमाणुओं और अणुओं द्वारा उत्सर्जन अथवा अवशोषण होता है। 

      इस सिद्धान्त के विस्तार का अर्थ यह होगा कि किसी भी आवृत्ति (तरंगदैर्घ्य) वाली विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों में समाहित ऊर्जा-पुंजों (पैकेटों अथवा क्वांटम) में विद्यमान होती है। प्रयोगों से क्वांटम सिद्धान्त की सत्यता असंदिग्ध सिद्ध हुई है। 

    अतः क्वांटम सिद्धान्त के अनुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों में समाहित समस्त ऊर्जा, ऊर्जापुंजों की एक श्रृंखला से युक्त होती है। ऊर्जापुंजों की यह श्रृंखला एक-दूसरे का अनुसरण करती है या एक-दूसरे को अतिव्याप्त करती है और इसे प्रकाश की किरणों अथवा विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों के रूप में समझा जा सकता है।

      जर्मन भौतिक विज्ञानी श्रोयडिंगर द्वारा क्वांटम सिद्धान्त पर किये गये शोध से गणितीय समीकरणों की खोज हुई जो प्रत्येक तरंग पैकेट, किरण, परमाणु अथवा अणु को निर्धारित करने वाले थे या कर सकते थे।

       ये समीकरण श्रोयडिंगर समीकरणों के नाम से जाने गये।   

       प्रत्येक स्पेक्ट्रमी सिग्नेचर (निश्चित आवृत्ति/तरंग दैर्ध्य का तरंग पैकेट) का एक निश्चित श्रोयडिंगर समीकरण है। इस प्रकार, अणु के लिए एक अलग श्रोयडिंगर समीकरण था, हाइड्रोजन, बेरियम, बोरेन, ऑक्सीजन इत्यादि के प्रत्येक परमाणु के लिए पृथक् श्रोयडिंगर समीकरण था। 

     इसी तरह प्रत्येक मूल कण, जो वैज्ञानिकों को ज्ञात तरंग कणों अथवा पैकेटों के प्रारंभिक स्वरूप थे, के लिए एक श्रोयडिंगर समीकरण था।

श्रोयडिंगर के समीकरणों के हल से विभिन्न निष्कर्ष सामने आये हैं, जैसे कि आवेश के संधारण के नियम, संवेग के संधारण का नियम आदि।

       तथापि, इनमें बहुत बड़े योगदान की खोज जर्मन वैज्ञानिक हाइज़ेनबर्ग ने की और इसे ‘हाइज़ेनबर्ग अंनिश्चितता सिद्धान्त’ का नाम दिया गया है।

       मूल कणों से सम्बन्धित श्रोयडिंगर के समीकरणों को हल करते समय प्रायिकता के सिद्धान्त का सहारा लेना आवश्यक हो गया। 

        यदि मूल कणों (तरंग पैकेटों) की स्थिति ज्ञात होती थी, तो इसका वेग दो सीमाओं के बीच की प्रायिकता थी, अर्थात् यह अनिश्चित था कि दो सीमाओं के बीच इसका वेग क्या होगा।

       इसी प्रकार जब वेग का वास्तविक निर्धारण हो गया तो पाया गया कि आकाश (दिक्) में इसकी स्थिति दो सीमाओं के बीच की प्रायिकता है। दूसरे शब्दों में यदि किसी मूल तत्व (तरंग पैकेट) की स्थिति ज्ञात होती थी तो इसका वेग (अथवा संवेग अर्थात् द्रव्यमान और वेग का गुणनफल) अनिश्चित था, और यदि वेग (अथवा संवेग) ज्ञात होता था, तो इसकी स्थिति अनिश्चित थी।

      इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि मूल कणों का सुनिश्चित निर्धारण केवल उनकी स्थिति और वेग (अथवा संवेग) सुनिश्चित करके नहीं किया जा सकता था। इसे हाइज़ेनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धान्त का नाम दिया गया है। इस बिन्दु पर पहुँच कर भौतिक विज्ञान परास्त हो गया। इस अनिश्चितता के आगे अँधेरी खाई थी।

       हमने उनकी स्थिति का निर्धारण कर लिया था। पर वे काल्पनिक मेघ थे। और इस प्रक्रम पर दूसरा प्रश्न उभरा-इस प्रकार के पदार्थ-ऊर्जा अथवा मूल कणों (तरंगों) का अस्तित्व कहाँ पर था ? क्या उनका अस्तित्व निर्वात (शून्य) में था ? क्या उनका अस्तित्व ‘ईथर’ में था या उनका अस्तित्व ‘दिक्‌काल’ में था? 

     इस बिन्दु पर पहुँचकर हमें उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अल्बर्ट आइन्सटीन का मुखापेक्षी होने की आवश्यकता पड़ती है।

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