मनीष सिंह
बक्सर की लड़ाई हो चुकी थी. अंग्रेजों के कब्जे में अब उत्तर भारत का बड़ा इलाका था. एम्पायर के पाये, गंगा के मैदान पर जम चुके थे, अब उन्हें यहां लम्बा राज करना था..जिन पर राज करना हो, उनकी संस्कृति, मान्यताएं और संस्कृति को समझना पड़ता है. संघी यह नहीं समझते, अंग्रेज समझते थे, क्योंकि उन्हें राज करने का अनुभव था.
उनके पास एक अध्ययनशील और जिज्ञासु बुद्धजीवी वर्ग भी था. अंग्रेजों ने उसे रिसर्च करने दिया और भारतीय प्राचीन इतिहास की खोज शुरू हुई. कंपनी के सेवा में आये कई अंग्रेज, लिंग्विस्टिक, सिक्को, एनशिएंट टेक्स्ट में बड़ी रुचि रखते. विलियम जोन्स, कलकत्ते में बनी हाईकोर्ट के जज थे. खुद संस्कृत सीखी.
जहां नियुक्त होते, वहां से ऐसी सामग्रियों का संग्रह करते, दूसरे विद्वानों से शेयर करते. वे लोग इन्हें विश्व इतिहास के दूसरे अभिलेखों की रौशनी में देखते. ये ग्रुप, एशियाटिक सोसायटी बनकर सामने आया और भारतीय प्राचीन (वामपन्थी) इतिहास की रूपरेखा बननी शुरू हुई.
ग्रीक और लैटिन इतिहास में मेगास्थनीज नाम के व्यक्ति का उल्लेख है, उसकी लिखी क़िताब ‘इंडिका’ के उद्धरण मिलते हैं. इसमें एक सेन्द्रोकोटस नामक राजा, भारत में राज करता बताया गया है. जिसकी राजधानी, पालिबोतरा थी. पालिबोतरा, मेगास्थनीज के अनुसार दो नदियों के संगम पर है – गेंगेस और इरानबोस.
अब पालिबोतरा की खोज शुरू हुई. पहला कैंडिडेट इलाहाबाद था. गंगा, जमुना का संगम. पर यहां इसका पुराना नाम ‘प्रयाग’ टेक्स्ट में मिलता है. पालिबोतरा से ध्वनिक साम्य नहीं. दूसरा कैंडिडेट कन्नौज था. गंगा किनारे था, वहां पुराने राजसी अवशेष है, मगर दो नदियों का संगम नहीं. खारिज…
फिर एक जबर खोज हुई. मेजर जेम्स रेनेल बंगाल के सर्वेयर जनरल थे. नक्शा बनाना उनका काम था, और भारत का पहला सम्पूर्ण – नियर परफेक्ट नक्शा उन्होंने बनाया था. रेनेल ने ग्रीक इतिहासकार प्लिनी का एक विवरण पाया जिसमें बताया कि पालिबोतरा शहर, गंगा और यमुना के संगम से कोई 425 रोमन मील, डाउनस्ट्रीम है.
ये बड़ा क्लू था. रोमन मील, कोई डेढ़ किलोमीटर के बराबर होता है. आपको इलाहाबाद के संगम से 650-700 किमी आगे खोजना था. और यहां बसा था, अपने पलटू का पटना.
रेनेल ने पता किया कि यहां के लोग मानते हैं कि इस जगह किसी जमाने के ‘पाटेलपुत्त’ नाम का शहर था. ये नाम पालिबोतरा से मिलता जुलता था. अब एक चीज हल हुई. लेकिन नदियों का संगम ?? पटना में गंगा है, पर दूसरी नदी तो है नहीं. तो पटना शहर का जियोलॉजिकल सर्वे किया गया.
वहां फवारे नहीं मिले. मिला एक सूखा रिवरबेड, जो सोन नदी का था. ये नदी तो कोई 20-22 मील दूर है, पर सोन के नाम का ईरानबोस से कोई ध्वनिक साम्य नहीं.
सो अब भी डाउट था. इस डाउट को दूर करने के लिए जेम्स प्रिंसेप की एंट्री होती है. प्रिंसेप ने मुद्राराक्षस नाम के भारतीय प्राचीन टेक्स्ट के अनुवाद के समय पाया कि ‘…चंद्रगुप्त, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, वहां गंगा के अलावा दूसरी नदी का नाम था- हिरन्यबाहु. यानी, सोने के बांहों वाली नदी – सोन नदी.
आधुनिक पटना शहर का नाम, शेरशाह सूरी ने दिया. और इसकी खुदाई में प्रारंभिक साईट 1895 के आसपास खोदे गए. जमशेद जी टाटा को लगता था कि मौर्य ओरिजनली पारसी थे. और भारत के सबसे पुराने राज का कनेक्शन पारसियों से सिद्ध हो जाता, तो बड़े गर्व की बात होती.
डीबी स्पूनर नाम का अमेरिकी स्कॉलर इस खुदाई में लगाया गया. स्टैनफोर्ड से पढ़ा, जापान में रहा, संस्कृत सीखा हुआ ये बन्दा तब ब्रिटिश सरकार की ASI में नौकरी कर रहा था. उसने खुदाई शुरू की, और 7 फरवरी 1913…कुम्रहार में आज से ठीक 100 साल पहले उसने खोदकर अशोकन पिलर निकाले, और बहुत से आर्टिफेक्ट, तो साबित हो गया कि यही वह पाटलिपुत्र है, जो कभी भारतवर्ष की राजधानी था.
मगध की कथा, महाजनपद काल से शुरू होती है. राजधानी राजगृह थी, जिसे उठाकर हर्यक वंश उदायिन पाटलिपुत्र लाते हैं. सिंधु घाटी सभ्यता के 1000 साल बाद, बाद पहली बार, भारतीय इतिहास में फिर से नगरीकरण का नामोनिशान दिखता है. इसे नंद वंश के दौर में साम्राज्य का दर्जा मिलता है और उसे उखाड़कर मौर्यवंश, भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा एम्पायर निर्मित करते हैं.
इसके बाद शुंग और फिर गुप्तकाल में यह नगरी अपने वैभव का उरूज देखती है. यह आज से 1600 साल पुरानी बात है. इसके बाद पाटलिपुत्र अपने पराभव के दौर में प्रवेश कर गया. उसका इतिहास, टनो मिट्टी के नीचे दफन होता चला गया.
बिहारियों, मगधियों का गौरव भी..अब तो उनकी पहचान पलटीमार नवाब से है, जो राजकाल के आखरी दिनों में पाटलिपुत्र की पगड़ी दिल्ली के पैरों में रख, मनसबदारी बचाने की फिराक में है.