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राजनीति का अर्थ ही है ‘असंभव’ को संभव बनाने की कोशिश

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अरुण माहेश्वरी

सोशल मीडिया के ऐसे राजनीतिक टिप्पणीकार मसलन् पुण्य प्रसून वाजपेयी, विजय त्रिवेदी, राहुल देव तथा टीवी और यूट्यूब की बहसों में आने वाले पत्रकार, जिन्होंने आरएसएस और उसके तंत्र का बाक़ायदा अध्ययन किया है, उनमें अक्सर यह देखा जाता है कि वे संघ के तंत्र और उसके कट्टर स्वयंसेवकों की तादाद से इतने विस्मित रहते हैं कि उन्हें उनमें एक प्रकार की ईश्वरीय शक्ति नज़र आने लगती हैं। वे अनेक चुनावों में बार-बार इनकी करारी हारों के बावजूद हमेशा घुमा-फिरा कर चुनावों में इनकी चमत्कृत कर देने वाली शक्तियों की बात किया करते हैं। इनके मुताबिक, लाखों कार्यकर्ता घर-घर पहुंच रहे हैं, इनका पूरे प्रचारतंत्र पर ऐसा एकाधिपत्य है कि दिन को भी रात साबित कर सकते हैं। ये कार्यकर्ता अकल्पनीय रूप में निष्ठावान, बेहद अनुशासित और प्राणों पर खेल कर भी संघ-बीजेपी के हितों की रक्षा करने वाले ऐसे कार्यकर्ता हैं, जो सिवाय किसी नियमित फ़ौज के अन्यत्र नहीं पाए जाते हैं। सेना का लौह अनुशासन इनकी शक्ति है। और सबसे उपर यह कि, बीजेपी के पास हज़ारों-लाखों करोड़ रुपये की अतुलनीय ताकत है। इसीलिए इनकी नज़र में इनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाला हर दल बहुत तुच्छ और बौना साबित होता है और अंत में पराजित होने के लिए अभिशप्त भी । 

वे हमेशा यह भूल जाते हैं कि राजनीति का अर्थ ही है यथास्थिति को अर्थात् शक्तिवान को चुनौती देना। ‘असंभव’ को संभव बनाने की कोशिश। आम तौर पर दूर-दूर तक जो विकल्प नज़र न आता हो, उसे प्रत्यक्ष में साकार करना। राजनीतिक परिवर्तन की चपेट में बड़ी-बड़ी राजसत्ताओं के परखच्चे उड़ ज़ाया करते हैं, आरएसएस या कम्युनिस्ट पार्टी या किसी भी पार्टी का अपना तंत्र तो बहुत मामूली चीज हुआ करता है ।

ख़ास तौर पर चुनाव के मौक़ों पर जब ये महोदय आरएसएस और बीजेपी के ‘लाखों निष्ठावान कार्यकर्ताओं’ की चमत्कारी ताक़त का कृष्ण के विराट स्वरुप की तरह वर्णन करने लगते हैं तो यह वर्णन राजनीतिक चिंतन के पैमाने पर न सिर्फ़ फूहड़ और अश्लील जान पड़ता है, बल्कि विश्लेषक की समग्र बुद्धि पर भी तरस खाने का जी करने लगता है। गोपनीय रूप से काम करने वाले लोग आम तौर पर कायर होते हैं। आरएसएस के लोगों ने तो अतीत में अपनी कायरता के तमाम उदाहरण पेश किए हैं। ये कायरता और आत्म-समर्पण को ही असली राजनीति मानते हैं। विनय दामोदर सावरकर सहित आज़ादी की लड़ाई में संघ के लोगों की मुखबिरी के प्रमाणों को फ़ख़्र के साथ अपनी श्रेष्ठ चाल बताते हैं। ऐसे लोगों के समूह में किसी फ़ौजी अनुशासन और निष्ठा की कल्पना करना मातृभूमि के लिए प्राणों तक का उत्सर्ग करने वाले सेनानियों की मनोरचना के प्रति भी इनकी अज्ञानता का प्रमाण है ।

पर इनके साथ मुश्किल यह है कि इन्होंने आरएसएस का बाक़ायदा अध्ययन किया है। इनमें से अधिकांश खुद ईमानदार और जन-पक्षधर पत्रकार हैं, पर अपनी इस कथित ख़ास जानकारी से उत्पन्न अज्ञान के कारण ही कई जन-पक्षधर और सांप्रदायिकता- विरोधी विश्लेषक भी चुनाव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर अनायास ही संघ के विराट रूप की किसी न किसी प्रकार से आरती उतारते हुए दिखने लगते हैं ।

इनके इस रुझान से यह पता चलता है कि इन्होंने अपने अध्ययन से विषयों और परिस्थितियों के सिर्फ़ स्थिर, विश्वविद्यालयी क़िस्म का ज्ञान ही अर्जित किया है, राजनीति में मनुष्यों की भूमिका, परिस्थितियों की परिवर्तनशीलता, और इनसे जुड़ी वस्तु की आंतरिक गति के नियमों को नहीं जाना है । चीजों को उनके गतिशील रूप में न देख पाना इनके ज्ञान की सबसे बड़ी विडंबना है ।

इसके अलावा संघ वालों ने इन्हें जितना दिखाया उतना ही देख पाए हैं।अपनी दृष्टि को अधिक से अधिक यथार्थपरक दिखाने के लिए ही इन्होंने अपने आरएसएस संबंधी अध्ययनों में किसी भी फ़ासिस्ट संगठन की शक्ति और सीमा के सार्विक ज्ञान का उपयोग करने की भी जोहमत नहीं उठाई है। और इसी वजह से तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर वे अपने ही ऐसे प्रकृत ज्ञान का शिकार बनते हैं और समय-समय पर खुद को विराट और नगण्य सांस्कृतिक संगठन के रूप में पेश करने की आरएसएस की चालबाजियों के प्रचारक तक बन जाते हैं ।

इसे ही कहते हैं — अपने ही ज्ञान का शिकार भोला पंडित ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं।) 

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