(गोपेश्वर सिंह)
दलितों के लिए मानवोचित सम्मान तथा राजनीतिक अधिकार हासिल करना आम्बेडकर की पहली प्राथमिकता थी. वे यह भी जानते थे कि बिना आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुए न तो दलितों की मुक्ति की कल्पना की सकती है और न आधुनिक भारत की नीव रखी जा सकती है. ये सभी चीजें तभी प्राप्त की जा सकती हैं जब दलितों के पास राजनीतिक सत्ता हो. इसके लिए वे राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस करते थे. वे मानते थे कि दलितों की सारी समस्याएं इसलिए हैं; क्योकि उनके पास राजनीतिक सत्ता नहीं है.
पहले गोलमेज सम्मलेन (1930) में उन्होंने कहा था: ‘’… डिप्रेस्ड क्लासेज की समस्या तबतक हल नहीं हो सकती जबतक कि राजनीतिक सत्ता इस तबके के लोगों के हाथों में नहीं आ जाएगी.’’( 93) इस बात को ध्यान में रखते हुए 1936 में उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी – इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी ( आईएलपी) की स्थापना की. इस पार्टी में अस्पृश्य और मजदूर थे. उन्होंने कहा कि भारतीय मजदूर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों का एक साथ शिकार हैं. इस दल का उद्देश्य ब्राह्मण शाही और पूंजी शाही दोनों से एक साथ लड़ना था. मजदूरों के बीच तब मार्क्सवादी लोग सक्रिय थे.लेकिन उन्होंने मार्क्सवादियों से अपनी पार्टी को अलग रखा. प्रस्तुत पुस्तक के लेखक का कहना है कि एक तरफ़ तो आम्बेडकर मजदूरों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे थे और दूसरी तरफ़ वे वर्ग के विश्लेषण का महत्त्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और इस बात पर अड़े हुए थे कि हमारे समाज की बुनियादी इकाई जाति ही है.(96)
भारत के सन्दर्भ में आम्बेडकर मार्क्सवाद की वर्ग सम्बन्धी अवधारणा से सहमत नहीं थे. इसलिए कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे के साथ एक बार मंच साझा करने के बावजूद मार्क्सवादी पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रमों से आईएलपी की दूरी बनी रही. आम्बेडकर की इस राजनीतिक पार्टी को बहुत कम सफलता मिली. इस कई कारण थे. पार्टी के पास संसाधनों की कमी तो थी ही, जनाधार की भी कमी थी. उसके मुकाबले कांग्रेस पार्टी का व्यापक प्रचार और काम भी था. आम्बेडकर की स्वीकृति महाराष्ट्र की अन्य दलित जातियों में भी कम थीं. अन्य दलित जातियों की नज़र वे सिर्फ़ महारों के नेता थे. इसी के साथ इस पुस्तक से यह भी पता चलता है कि एक नेता में पार्टी को चलाने के लिए जिस लचीलेपन की ज़रूरत होती है, उसकी किंचित कमी भी उनमें थी.अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आम्बेडकर एक ऐसे राजनीतिक दल की ज़रूरत महसूस करने लगे थे जो ग़रीबी और जाति को एक इकाई मानकर चल सके.
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया’ की कल्पना को वे एक शक्ल दे चुके थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी का विकल्प तैयार करने में लगे थे.उनकी बेचैनी और सोच को इंन शब्दों में देखा जा सकता है: ‘’इसके पहले कि मैं मर जाऊँ, मुझे अपने लोगों को एक निश्चित राजनीतिक दिशा देनी चाहिए. वे हमेशा ग़रीब, उत्पीडित और वंचित रहे हैं.इसी कारण आज उनमें एक नयी चेतना और नया आक्रोश जन्म ले रहा है.’’(107) आम्बेडकर नहीं चाहते थे कि उनके लोग कम्युनिज्म और कम्युनिस्टों की ओर आकर्षित हों. इसलिए इन्होने राममनोहर लोहिया, पी के अत्रे और एस. एम. जोशी जैसे सोशलिस्ट नेताओं से बात की और साथ काम करने की दिशा में सोच- विचार किया.समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया अमीरी- गरीबी और जाति के सवाल को बड़े पैमाने पर उठा रहे थे. वे भी आम्बेडकर और उनके संगठन शेड्यूल कास्ट फेडरेशन से सहयोग- संवाद की इच्छा रखते थे. लेकिन इसके पहले कि उन दोनों की योजना मूर्त रूप ले पाती,आम्बेडकर का निधन हो गया.
आम्बेडकर- लोहिया के प्रसंग की चर्चा इस पुस्तक में तो है ही, लोहिया के पत्र से भी इस प्रसंग का पता चलता है. 1 जुलाई 1957 को मधुलिमये को लिखे एक पत्र में लोहिया आम्बेडकर की मृत्यु पर गहरा दुःख व्यक्त करते हैं और उनका महत्त्व ऊँचे शब्दों में स्वीकार करते हैं:” … मेरे लिए डॉ आम्बेडकर भारतीय राजनीति के बहुत बड़े आदमी थे और गाँधी को छोड़कर, उतने महान जितना कोई सबसे महान सवर्ण हिन्दू हो सकता है. इस तथ्य से मुझे हमेशा ही सांत्वना और विश्वास मिला कि हिन्दू धर्म की जाति- व्यवस्था को एक दिन ख़त्म किया जा सकता है.” पत्र में इसके आगे लोहिया ने जगजीवन राम और आम्बेडकर की तुलना की है और आम्बेडकर को ‘विद्वान, दृढ़ चरित्र वाला, साहसी और स्वतंत्र विचारों’ का व्यक्ति बताया है. ऐसा व्यक्ति जिसे ‘बाहर की दुनिया के सामने स्वाभिमानी भारत के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था.’ इसके साथ लोहिया ने यह भी लिखा है: “… किंतु वे कटु और ऐकान्तिक(एक्सक्लूसिव) प्रवृत्ति के थे. उन्होंने ग़ैर हरिजनों का नेता बनने से इनकार किया. मैं पिछले 5000 साल की पीड़ा और हरिजनों पर उसके प्रभाव की कल्पना कर सकता हूँ.”
लोहिया को उम्मीद थी कि एक दिन आएगा जब ‘ आम्बेडकर जैसा महान भारतीय’ इस स्थिति से ऊपर उठेगा और सम्पूर्ण राष्ट्र का नेतृत्व करेगा, ‘किंतु मृत्यु जल्दी आ गई.’ इसके आगे लोहिया अपने पत्र में यह भी लिखते हैं: ‘लेकिन डॉ आम्बेडकर के मॉडल में भी सुधार की ज़रूरत है.’ पत्र के अंत में आम्बेडकर के अनुसूचित जाति के अनुयायियों को ध्यान में रखते हुए वे लिखते हैं: “ .. मैं चाहता हूँ कि भारत की अनुसूचित जातियों को पिछले 40 वर्षों की भारतीय राजनीति तर्कपूर्ण मूल्यांकन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.मैं चाहता हूँ कि ये जातियाँ डॉ आम्बेडकर को अपनी श्रद्धा और अनुकरण का प्रतीक बनाए रखें, उनकी स्वतंत्रता के साथ किंतु कटुता के बिना, उस डॉ आम्बेडकर को जो केवल हरिजनों का ही नहीं सारे भारत का नेता बन सकता था”( रा. म. लो. रचनावली-3, पृष्ठ-२२4-25) अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आम्बेडकर की मृत्यु से भारतीय राजनीति की एक बड़ी संभावना ख़त्म हो गयी .
यह अनुमान का विषय है कि आम्बेडकर को पांच- दस साल का समय और मिला होता तो क्या होता. लेकिन यह तय है कि आम्बेडकर और लोहिया के साथ आने से भारतीय राजनीति में नयी संभावनाओं का रास्ता खुलता.जाति- भेद के साथ वर्ग- भेद की समाप्ति के अभियान का आधार मजबूत होता. लोहिया बहुत ही स्वप्नदर्शी और साहसी नेता थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने दुस्साहसी योद्धा के रूप में भाग लिया था. वे जनप्रिय, ईमानदार और सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले नेता थे. राजनीति के साथ आर्थिक, सामाजिक और सामाजिक मुद्दों पर उनकी दृष्टि बहुत साफ़ एवं रचनात्मक थी.
आम्बेडकर- लोहिया के वैचारिक मेल से भारतीय राजनीति का नया अध्याय शूरू होता, सवर्णों और दलितों के बीच की कटुता कम होती. इस तरह नेहरू और कांग्रेस का सार्थक और मजबूत विकल्प तैयार होता और सांप्रदायिक और दक्षिण पंथी ताकतों को उभरने का मौका नहीं मिलता.आम्बेडकर और लोहिया दोनों ने विदेशों में ऊँची शिक्षा पायी थी. दोनों डॉक्टर थे और कहलाते भी थे. एक सूट- टाई पहनता था, दूसरा धोती- कुर्ता. कोट- पैंट वाले आम्बेडकर और धोती- कुर्ता वाले लोहिया की एक साथ हाथ मिलाते हुए काश कोई तस्वीर होती और आज हम देख पाते !