डॉ. सुरेश खैरनार
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सरकार की दोहरी नीति! ‘कश्मीर फाइल्स‘ और ‘छावा‘ जैसी फिल्मों को समर्थन, लेकिन असहमतियों को कुचलने की प्रवृत्ति। क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी केवल सत्ता के अनुकूल विचारों के लिए ही है? पढ़िए मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार का लेख
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा चल रहा पाखंड !
कश्मीर फाईल्स फिल्म के प्रचार – प्रसार करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अभिव्यक्ति की आजादी की बात कही थी. और कहा “कि हर तरह के पहलुओं को जनता के सामने आने से रोका जाना ठीक नहीं है”. और वही बात आजकल महाराष्ट्र में भी छावा फिल्म के बारे में सत्ताधारी दल यही तर्क दे रहा है. भले ही उसके कारण सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए कुछ तत्वों को मौका मिल रहा होगा
आज एक हफ्ते बाद नागपुर में स्थिति सामान्य होने की बात, पुलिस- प्रशासन कर रहा है. उसी छावा फिल्म से प्रभावित होकर बजरंग दल और विहिप ने मिलकर औरंगजेब की कब्र के खिलाफ नागपुर में पिछले सोमवार को 17 मार्च को जुलूस निकाला था. जुलूस नागपुर में निकालने का औचित्य क्या था ? (हालांकि खुलताबाद/खुलदाबाद जहां पर औरंगजेब की कब्र मौजूद है. वह नागपुर से छह सौ किलोमीटर दूर है.) और उसके बाद नागपुर के कुछ इलाकों में हिंसक घटनाएं हुई. जिनके वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर वायरल किए गए हैं. कार्रवाई के नाम पर सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के सौ से अधिक लोगों पर विभिन्न धाराओं के अंतर्गत कार्रवाई शुरू की गई है. और कोई फहिम खान नामके तथाकथित मास्टर माइंड के घर पर बुलडोजर चलाने की कार्रवाई की गई है. और जिन लोगों ने औरंगजेब की कब्र के खिलाफ जुलूस निकाला था. वह जमानत पर रिहा कर दिए गए हैं.
उसी तरह कुणाल कामरा नामक कॉमेडियन ने अपनी कॉमेडी मे बगैर किसी का नाम लिए बिना, एक कॉमेडी शो किया, तो महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के समर्थकों ने उसके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. मतलब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सिर्फ वर्तमान सत्ताधारी दल के हिसाब से कश्मीर फाइल्स, छावा, उरी, सर्जिकल स्ट्राइक, सावरकर एकनाथ शिंदे जैसी बातों के लिए ही है.
वैसे भी भारत का अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का पिछले दस साल का रिकॉर्ड पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बदतर चल रहा है. ज्यादातर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सिर्फ सरकारी मीडिया बनकर रह गया है. इससे तो पचास वर्ष पहले का आपातकालीन स्थिति में हम लोग बुलेटिन निकाल सकते थे. और कुछ मीडिया ने भारी कीमत चुकाकर अभिव्यक्ति करने की कोशिश की है. लेकिन पिछले दस साल से भारत सिनेमा नाटक, गाने, पेंटिंग से लेकर मुख्य धारा का प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी तरह से सरकारी भाट बनकर रह गया है. जबकि आज न तो आपातकाल है, और न ही सेंसरशिप. लेकिन वर्तमान सत्ताधारी दल के नेतागण अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कैसा पाखंड कर रहे हैं. यह पूरी दुनिया देख रही है.
गुजरात के दंगों के ऊपर बनी फिल्म परजानिया को शुरू में ही गुजरात में प्रदर्शन होने से क्यों रोका गया था ? (उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.) उस समय नरेंद्र मोदी को अभिव्यक्ति की आजादी का ख्याल नहीं आया था ?
वैसे ही अभी अमेजन पर राणा अय्यूब की गुजरात फाईल्स नाम की किताब का नहीं मिलना महज टेक्निकल बात है ? या कोई बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा है ? वैसे तो इस किताब का प्रकाशन आज से 9 साल पहले ही हो चुका है. (2016) और भारत की सभी प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है. और अंग्रेजी और हिंदी के रिकॉर्ड ब्रेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं.
और होने भी चाहिए, क्योंकि भारत की मीडिया की संपूर्ण विश्व में विश्वसनीयता दांव पर लगी हुई है. ऐसे समय में राणा अय्यूब की शोध पत्रकारिता ने कुछ लाज बचाने का काम किया है. और राणा ने मैथिली त्यागी का नाम लेकर, अपनी जान जोखिम में डाल कर गुजरात में नौ महीने रहकर, गुजरात दंगों में शामिल, और उस समय के पुलिस – प्रशासन में शामिल जिम्मेदार लोगों को अपने, ऑडियो – वीडियो कैमरों में उतार लिया है. जिसमें अंतिम व्यक्ति तत्कालीन मुख्यमंत्री जो आज देश के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान है.
सत्तर के दशक में अमेरिका में वाटरगेट प्रकरण से भी संगीन अपराध गुजरात दंगों में लिप्त लोगों के साथ बातचीत के आधार पर लिखी गई गुजरात फाईल्स हैं. जिसमें डॉ. माया कोडनानी से लेकर बाबू बजरंगी तथा हरेन पंड्या की विधवा पत्नी जागृति पंड्या के अलावा गुजरात दंगों के समय सेवा में रहे हुए प्रशासनिक अधिकारियों के साथ की गई बातों पर यह किताब लिखी गई है. और सुना है कि इस किताब को इतना सब कुछ हो जाने के बाद, अगर अमेजन द्वारा उपलब्ध होने से, बैन लगाने की करतूत वर्तमान सरकार कर रही होगी तो नरेंद्र मोदी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने क्या हैं ?
क्योंकि गत दस साल से बगैर सेंसरशिप से भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया संस्थाओं ने कैसे घुटने टेक दिए ? यह संपूर्ण दुनिया देख रही है. अब अमेजन, फेसबुक, व्हाट्सअप, ट्विटर, इंस्टाग्राम और सभी तरह के सोशल मीडिया पर भी वर्तमान सरकार के मनमाने ढंग से कंट्रोल करने वाले आदमी को कश्मीर फाईल्स सिनेमा के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का ख्याल आया है. सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली.
27 फरवरी 2002 के गोधरा कांड के बाद गुजरात के दंगों में गुजरात के पुलिस – प्रशासन की भूमिका कितनी संगीन थी ? सबसे हैरानी की बात गोधरा की कलक्टर जयती रवि के मना करने के बावजूद मुख्यमंत्री श्री. नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में साबरमती एक्सप्रेस में जली हुई लाशों को गुजरात वीएचपी के अध्यक्ष को सौंपा जाना, और 28 फरवरी को उन लाशों को खुले ट्रकों के ऊपर रखकर अहमदाबाद के सड़कों पर जुलूस निकालने के पीछे कौन सी अभिव्यक्ति की आजादी का मामला था ? उस कारण सांप्रदायिक हिंसा करने के लिए संपूर्ण गुजरात की जनता को बहकावे में ले जाना, और उनके द्वारा निरीह परिवारों पर प्रायोजित प्रोगाम भारत के इतिहास में आजादी के बाद पहली बार किसी भारतीय राजनीतिक दल और उसके संबंधित संगठनों द्वारा किया गया मानवता के नाम पर कलंकित कृत्य कर के भारत के सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनाने की कवायद भारत के जनतंत्र का मखौल उड़ाने की कृत. बिल्कुल आज से सौ साल पहले यूरोपीय देशों में इटली और जर्मनी में यह प्रयोग हो चुका है. और उसके बाद सौ साल के भीतर ही हिंदुत्व के नाम पर भारतीय भूमि पर यह खेल लगातार जारी है. और कश्मीर फाईल्स, छावा नाम की की गई कोशिश उसी मानसिकता का परिचायक है. और प्रधानमंत्री को अभिव्यक्ति की आजादी का ख्याल आया है. अभिव्यक्ति न होकर इनके मनमर्जी का खिलौना हो गया है. क्योंकि दस सालों में इन्होंने कश्मीर से लेकर केरल, उरी, सर्जिकल स्ट्राइक, सावरकर, गोडसे और अब छावा जैसे फिल्म किस बात के परिचायक है ?
शायद मैं पहला पाठक होऊंगा जिसने 2016 में ही राणा अय्यूब की गुजरात फाईल्स, किताब पढ़ने के बाद तुरंत राणा अय्यूब के ऊपर कानूनी कार्रवाई करने की मांग की है. क्योंकि भारत के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए आदमी (तब तक नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे.) को सिलसिलेवार तरह से संपूर्ण किताब में 2002 के 28 फरवरी के बाद से ही कटघरे में खड़ा करती है. और अपनी प्रस्तावना में ही लिखती हैं, कि इस किताब में लिखा गया एक – एक अक्षर मेरे पास ऑडियो – वीडियो रिकॉर्ड में बंद हैं. गांधी नगर के मुख्यमंत्री आवास पर आखिरी मुलाकात नरेंद्र मोदी की सबसे आखिर के दो पन्नों में दर्ज है.
लेकिन इन आठ सालों में राणा अय्यूब के साथ-साथ, कुछ और भी किताबें तथा जांच रिपोर्ट, गुजरात के दंगों के ऊपर प्रकाशित हो चुके हैं. उदाहरण के लिए, गुजरात राज्य पुलिस के सबसे बड़े पदाधिकारी पूर्व डायरेक्टर जनरल आफ पुलिस (EX.DGP) श्री. आर. बी. श्रीकुमार की उसी साल 2016 में छपी Gujrat Behind the Curtain नाम की किताब, और उसका मराठी अनुवाद 2019 दोनों आर. बी. श्रीकुमार ने खुद मुझे समीक्षा के लिए विशेष रूप से अपने पत्र के साथ भेजे हैं.
और हमारी उनकी बीच-बीच में टेलिफ़ोन पर बात भी होती है. तो नरेंद्र मोदी को एसआईटी की क्लीन चिट देने के निर्णय को लेकर, उन्होंने कोर्ट में केस दर्ज की है. और खुद ही अपनी बेटी की मदद से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.
और वरिष्ठ पत्रकार श्री. मनोज मित्ता की The Fiction of Fact – Finding, Modi ? Godhra तो 2014 में ही Harper Collins जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से 259 पन्ने की किताब प्रकाशित कर चुके हैं. और मनोज मित्ता की खासियत है कि, उन्होंने 2007 में Tree Shook Delhi यह 1984 के सिख दंगे के ऊपर भी सहलेखक बनकर श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने कहा था कि “जब बड़ा पेड़ गिरता है तो उसके नीचे के छोटे – मोटे पेड़ों पर भी असर पड़ता है.” और इस लिये उन्होंने किताब का टाईटल भी वही रखा है. वैसे ही द वायर के संपादक श्री. सिद्धार्थ वरदराजन की Guajrat, The Making of a Tragedy, penguin प्रकाशन की किताबों के अलावा लेफ्टिनेंट जनरल जमीरूद्दीन शाह की ‘सरकारी मुसलमान‘ जिसमें उन्होंने कहा कि “28 फरवरी की रात को ही जैसलमेर सेक्टर की 3000 सेना के जवानों को इकट्ठा करके जोधपुर एअरपोर्ट से 60 फ्लाईटों के द्वारा अहमदाबाद के एअरपोर्ट पर 28 की रात और संपूर्ण एक मार्च का दिन सेना को बुलाया, लेकिन उसका गुजरात की कानून व्यवस्था के लिए इस्तेमाल नहीं करने की वजह से संपूर्ण राज्यक्षेत्र दंगे की चपेट में आ चुका था. इस कृति में भी कौन सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी ?
और यह सब कुछ हमारे देश के तत्कालीन रक्षामंत्री श्री. जार्ज फर्नांडिस के नाक के नीचे जारी था. क्योंकि 28 फरवरी को रात में जब जमीरूद्दीन शाह अपनी जिप्सी से गांधी नगर के मुख्यमंत्री आवास पर पहुंच कर देखते हैं कि रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस भी वहां पर मौजूद थे. लेफ्टिनेंट जनरल के शब्दों में उन्होंने कहा कि “आर्म फोर्स आकर काफी समय हो गया है. लेकिन गुजरात सरकार ने अभी तक लॉजेस्टिक नहीं देने के कारण हम लोग निठल्ले अहमदाबाद के एअरपोर्ट पर पडे हुए हैं.” 1 मार्च 2002 के सुबह जार्ज फर्नांडिस ने अहमदाबाद एअरपोर्ट पर आकर जवानों को संबोधित करते हुए कहा कि “गुजरात की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी आप लोगों को सम्हालने की है.” लेकिन वह भी दिन हमारे लिए एअरपोर्ट पर पड़े रहने के अलावा कुछ नहीं कर सके थे.
और भी बहुत सारी जानकारी गुजरात के 23 साल पहले के दंगे के ऊपर उपलब्ध है. जिसे नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक प्रचार – प्रसार के लिये उपयुक्त मानते हैं. विश्व के इतिहास में सौ साल पहले इसी मानसिकता के दो तानाशाह हुए हैं. भारत जैसे बहुआयामी संस्कृति के देश के लिए ऐसे किसी भी राजनेता का होना भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक है. ऐसे नरेंद्र मोदी आएंगे और जायेंगे, लेकिन भारत जैसे विविधता वाला देश इस तरह के मानसिकता वाले लोगों के कारण पुनः विखंडित होने की संभावना है. जो आदमी सिर्फ दंगों के ऊपर राजनीतिक करियर बनाता है. वह कश्मीर फाईल्स छावा जैसे सांप्रदायिक हिंसा की भूमिका बनाने के लिए उसे प्रमोशन के लिए अपनी शक्ति लगाता है. इससे ज्यादा प्रधानमंत्री पद की गरिमा की मट्टी – पलीत करने की कृति और कौन-सी हो सकती है ?
उसी तरह से Concerned Citizens Tribunal – Gujarat 2002 Two Volumes का जांच रिपोर्ट, जस्टिस कृष्ण अय्यर के नेतृत्व में जस्टिस पी. बी. सावंत, जस्टिस होस्बेट सुरेश, एडवोकेट के. जी. कन्नाबरियन, श्रीमती अरुणा राय, पूर्व डीजीपी डॉ. के. एस. सुब्रमण्यम, प्रोफेसर घनश्याम शाह तथा प्रोफेसर तनिका सरकार इन आठ लोगों ने मिलकर भारत के दंगों के बाद शायद पहली जांच रिपोर्ट होगी, जो इतनी तफसील से और ज्यादा से ज्यादा जघन्य घटना स्थल जाकर बनाने का काम किया है. और सैकड़ों लोगो का स्टेटमेंट लिया है. जिसमें दंगा पीड़ितों से लेकर दंगों को करने वाले विश्व हिंदु परिषद से लेकर आरएसएस तथा सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारियों से लेकर प्रशासन के तत्कालीन जिम्मेदार लोगों की गवाहियां लेकर रिपोर्ट बनाने का काम किया है.
और सबसे महत्वपूर्ण बात तत्कालीन मोदी सरकार में राजस्व मंत्री श्री. हरेन पंड्या ने इस आयोग के समक्ष जो गवाही दी, 27 फरवरी 2002 की शाम की गांधी नगर में मुख्यमंत्री के आवास पर हुई कैबिनेट मीटिंग में नरेंद्र मोदी ने कहा कि कल से हिंदुओं की तरफ से जो भी प्रतिक्रिया होगी उसे कोई भी नहीं रोकेगा और हरेन पंड्या ने कहा कि “मैंने इस बात का विरोध किया था.” जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान गंवाने तक देनी पड़ी? हालांकि इस आयोग ने उन्हें आगाह किया था. “कि आप को गवाही देने के लिए डर नहीं लग रहा है ?” और हरेन पंड्या ने कहा “कि ज्यादा से ज्यादा मेरी जान ही जायेगी ना ? मेरे मंत्री रहते हुए हजारों की संख्या में लोग मारे गए इसका क्या ?” और उन्होंने अपनी गवाही दी.
गुजरात दंगों की जांच करने के लिए गुजरात सरकार द्वारा बनाया गया नानावटी कमिशन को मैंने भी मेरे वकील दोस्त मुकुल सिन्हा के साथ मैंने तीन बार अटेंड किया है. मुकुलभाई को पहली ही बार देख कर और नानावटी के तेवर देखकर कहा था कि “आप अपने कीमती वक्त को जाया कर रहे हो, यह बंदा तो नरेंद्र मोदी को बरी करने के लिए तुला हुआ है”. मुकुलभाई ने कहा कि “मुझे इस बात का संज्ञान है, मैं तो सिर्फ नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट देने का समय बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ, क्योंकि गुजरात दंगों के बाद यह अपने आप को हिंदु हृदय सम्राट समझने लगा है. और अपने आपको देश का भावी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है.” समय की विडम्बना देखिए मुकुल सिन्हा 2014 के मई माह में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के एक या दो दिन पहले ही इस दुनिया से विदा होकर चले गए. आज भले ही नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने होंगे और भारत के कुछ प्रदेशों में अपने पार्टी की सरकारों को दोबारा जिताने में कामयाब हुए होंगे. लेकिन कश्मीर फाईल्स, छावा जैसे सिनेमा को प्रोजेक्ट करके वह अपने मातृ संगठन संघ के उग्र हिंदुत्व का प्रदर्शन करने का प्रयास कर रहे हैं. 135 करोड़ आबादी के भारत में गिनकर तीस से चालीस करोड़ की आबादी अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों की है. और गत तीस सालों से भी ज्यादा समय से उग्र हिंदुत्व के साथ भारत के सत्ता को हथियाने में भले ही कामयाब हो गए होंगे. लेकिन जिस बंटवारे का राग आलापते रहते हो वह 77 साल पहले क्यों हुआ ? इतना भर याद कर लो. तो भारत की एक चौथाई आबादी के साथ खिलवाड़ करना देश की एकता और अखंडता के लिए कितनी खतरनाक स्थिति बनते जा रही है. किसी भी व्यक्ति का बहुत लंबे समय तक असुरक्षित मानसिकता में रहना ठीक नहीं है. और यह तो एक मुल्क के साईज की जनसंख्या है. जिसे लगातार असुरक्षित मानसिकता में रखना समाज के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है.
संघ की शाखा में लाख अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ जहरीला प्रचार प्रसार किया जाता होगा. लेकिन 78 साल पहले के बंटवारे के बावजूद ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोगों ने भारत में ही रहने का निर्णय लिया. और वही बात कश्मीर के मुसलमानों को भी लागू होती है. इसलिए अल्पसंख्यक समुदायों को आप किसी भी दंगे या लड़ाई में मार नहीं सकते. तो आप लोगों को अच्छा लगे या नहीं लगे लेकिन अल्पसंख्यक समुदायों के साथ – साथ ही जीवन जीने का तरीका खोज निकालना होगा. और वह उन्हें डरा – धमकाते हुए बिल्कुल भी नहीं, प्यार – मोहब्बत से ही रहना होगा. और इस तरह की फिल्मों का प्रमोशन करना अविलंब रोकना होगा.
आप लोगों को मुस्लिम समुदाय को डराने धमकाने की आदत छोड़नी होगी. और इस देश के असली समस्याओं के समाधान के लिए विशेष रूप से कोशिश करनी होगी. अन्यथा चुनाव में जीत हासिल करने की साजिश उजागर होने में देरी नहीं है. जब इंदिरा गाँधी, राजीव गांधी और सीपीएम जैसे दलों की चालीस, पैंतीस साल की सत्ता में रहने के बावजूद लोगों ने उन्हें सबक सिखाने का काम किया है. तो आप धर्म के नाम पर कितना समय लोगों को बरगलाने का काम करोगे ?
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