राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)
एक बार आंँधी और मन्द वायु में भेंट हुई। आंँधी ने अपनी शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा- “देखो! मैं जब उठती हूंँ, तो दूर-दूर तक लोगों में हलचल मच जाती है। मनुष्य अपने घरों में घुस जाते हैं। पशु-पक्षी जान बचाकर भागते हैं।
बड़े-बड़े मकान और पेड़ों को बात की बात में तोड़-मरोड़ कर रख देती हूंँ। उस समय बाहर हर किसी की जबान पर मेरी ही चर्चा होती है और जब चली जाती हूंँ, तो भी वे मुझे बहुत दिन तक भूल नहीं पाते। क्या तुम मेरे जैसे शक्ति नहीं चाहती?”
मन्द वायु ने मुस्कुराकर कहा- “मुझे ऐसी शक्ति नहीं चाहिए! मुझे तो सेवा में ही बड़ा आनन्द आता है। जब वसन्त का सुखदायी सन्देश लेकर बहती हूंँ, तो नदी, तालाब, जंगल, खेत सभी मुस्कुराने लगते हैं।
चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ जाते हैं। सुगन्धि से दिशाएँ सुवासित हो उठती हैं। वृक्ष हरियाली से लद जाते हैं। पशु-पक्षी आनन्द की किलकारियांँ मारते-फिरते हैं। चारों ओर आनन्द ही आनन्द फूट पड़ता है।”
आंँधी से लोग डरते हैं और उसे बहुत समय तक याद रखते हैं । मन्द वायु से प्रसन्न होते हैं और कुछ समय बाद उसे भूल भी जाते हैं, फिर भी आंँधी और मलय- मरुत की तुलना नहीं हो सकती।
एक में शक्ति है, दूसरी में सेवा। शक्ति एक तड़क-झड़क है, जो कुछ घड़ी में नष्ट हो जाती है। सेवा में सादगी है, पर उसकी जड़ अमर लोक में है। शक्ति डराती है, किन्तु सेवा आनन्द की सृष्टि करती है। यदि सेवा न हो, तो यह दुनियाँ वीरान हो जाय।
लोग सत्ता, शक्ति, शासन, पैसा, अधिकार चाहते हैं, क्यों? इसलिए कि आंँधी की तरह लोगों को डरा सकें अथवा प्रदर्शन कर सकें और अपने नाम की चर्चा सुन सकें। उन्हें जानना चाहिए, कि इन वस्तुओं का मूल्य तूफानी-आंँधी जितनी है।
चाहने योग्य वस्तु तो सेवा है, जिससे अपने और दूसरों के हृदय में प्रसन्नता की बीन बजने लगती है।