विभांशु कल्ला
25 सितंबर 1975, देश में आपातकाल लागू हुए पूरे तीन महीने हो चुके थे। जेएनयू के गंगा हॉस्टल में रहने वाले छात्र प्रबीर को सुबह हॉस्टल से निकलने के समय इस बात का जरा भी अंदेशा नहीं था कि आज का यह दिन उनके लिए लम्बा खिंचने वाला है। दरअसल एक दिन पहले से उनके छात्र संगठन SFI की तरफ से हड़ताल जारी थी, मुद्दा था SFI की छात्र-नेता और उस समय प्रबीर की मंगेतर-साथी रही अशोका लता जैन को कॉउन्सलर के पद से निष्कासित किए जाने का।
अगर उस दौर के घटनाक्रम पर नज़र दौड़ाएं तो आपातकाल की शुरुआत से ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बंधित यह छात्र संगठन इमरजेंसी के विरोध की आवाज़ बनता जा रहा था, तब जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर SFI के ही नेता देवी प्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) थे। इमरजेंसी के महज तेरह दिन बाद 8 जुलाई को तड़के तीन बजे जेएनयू के 25 छात्र नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका था, जिनमें से अधिकतर SFI के सदस्य थे लेकिन डीपीटी उस गिरफ़्तारी से बच निकले थे।
उसके बाद डीपीटी सहित 19 विद्यार्थियों को राजनीतिक कारणों के चलते M.phil में दाख़िला देने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने मना कर दिया था। उसी के चलते जब अशोका लता जैन के नेतृत्व में छात्रों ने अपना विरोध प्रदर्शित किया तो उन्हें भी काउंसलर के पद से निष्कासित कर दिया गया। घटनाओं की इसी श्रृंखला में तीन दिन की हड़ताल जेएनयू के छात्रों द्वारा जारी थी।
25 सितंबर की सुबह हड़ताल कर रहे छात्र दूसरे छात्रों से कक्षाओं के बहिष्कार की अपील कर रहे थे। ठीक उसी समय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की पुत्रवधू और इमरजेंसी में सत्ता का केन्द्र बन चुके संजय गांधी की उन्नीस वर्षीय पत्नी मेनका गांधी जो उन दिनों स्कूल ऑफ लैंग्वेज से जर्मन में बीए कर रही थीं, आती हैं। अपनी काले रंग की एम्बेसडर से उतर कर जब वह लिफ़्ट के ज़रिए जा रही होती हैं, तभी हड़ताल कर रहे छात्र उनका रास्ता रोकते हैं, डीपीटी उनसे कहते हैं “आप हम में से एक हैं, मिसेज़ गांधी जूनियर”, इसके जवाब में मनेका गांधी कहती हैं “कुछ देर इन्तज़ार करों, तुम्हारे सिर ज़मीन पर लोट रहे होंगे”।
यह खबर प्रधानमंत्री भवन पहुंचते देर नहीं लगती, जल्दी से संजय गांधी के करीबी दिल्ली पुलिस के डी.आई.जी. प्रीतम सिंह भिंडर को तलब किया जाता है, और डीपीटी को गिरफ्तार करने के निर्देश दिए जाते हैं। कुछ ही देर में डीपीटी की खोज करते हुए भिंडर जेएनयू के पुराने परिसर पहुंचते हैं। उन्हें डीपीटी का हुलिया बताया जाता है और मालूम चलता है कुछ देर पहले ही डीपीटी को स्कूल ऑफ लैंग्वेज के सामने देखा गया था।
ठीक वैसी ही काले रंग की एम्बेसडर गाड़ी- जिसमें कुछ देर पहले मेनका गांधी आयी थीं- में बिना वर्दी अपने दो कॉन्स्टेबल के साथ भिंडर स्कूल ऑफ लैंग्वेज के सामने पहुंचते हैं। वहां पर खड़े प्रबीर पुरकायस्थ को वे जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष डीपीटी समझते हैं, पूछने पर मना करने के बावजूद बड़े ही नाटकीय अंदाज से प्रबीर को पकड़ लिया जाता है। गाड़ी तेज़ी से घूमती है और चली जाती है। पास खड़े छात्रों को लगता है प्रबीर को किसी ने किडनैप कर लिया है।
एक तरफ़ प्रबीर को पुलिस मुख्यालय ले ज़ाया जाता है, दूसरी ओर हौजखास थाने में उनके साथी किडनैपिंग की रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। पुलिस मुख्यालय में बिना प्रबीर की सुने उन्हें डीपीटी ही समझा जाता है, लेकिन कुछ घंटों बाद जब आख़िरकार खुलासा होता है कि प्रबीर डीपीटी नहीं हैं, तब डी.आई.जी. भिंडर अपनी किरकिरी होने से बचने के लिए प्रबीर पर भी एक झूठा मुक़दमा थोपते हैं। Maintenance of Internal Security Act (मीसा) के तहत प्रबीर के खिलाफ भी मुक़दमा चलता है, उन्हें पहले तिहाड़ और फिर आगरा की जेल में एकांत-कारावास के लिए भेज दिया जाता है।
बंगाल के मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे प्रबीर ने स्कूली पढ़ाई के बाद बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिया, यह दौर वियतनाम युद्ध का दौर था, उन्हीं दिनों प्रबीर का परिचय मार्क्सवादी साहित्य के साथ ही वियतनाम पर थोपे गए साम्राज्यवादी युद्ध पर विल्फ्रेड बर्चेट की रिपोर्टिंग से हुआ, और आगे चलकर इसी नींव पर उनकी वैचारिकी का निर्माण हुआ। कॉलेज के दिनों में ही वे SFI से जुड़ गए थे। कुछ महीनों की नौकरी के बाद उन्होंने इलाहाबाद के मोतीलाल इन्जीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिया। कलकत्ता के मार्क्सवादी छात्र आन्दोलन से अलग इलाहाबाद में लोहिया के ‘समाजवाद’ से प्रेरित छात्र आन्दोलन केन्द्रीय भूमिका में था।
प्रबीर ने इलाहाबाद में SFI से ही जुड़े रहकर छात्रों के बीच मार्क्सवाद से परिचय कराने की भूमिका अदा की, यहीं पर उनकी दोस्ती डीपीटी से हुई। उसके बाद कुछ समय आईआईटी दिल्ली में पढ़ने के बाद प्रबीर ने जेएनयू के साइंस पॉलिसी के पीएचडी कोर्स में दाख़िला लिया। पीएचडी के बाद प्रबीर कई जगहों पर एक इंजीनियर, एक विज्ञान नीति विशेषज्ञ के तौर पर नौकरियां करते रहे, लेकिन वे कभी भी सामाजिक सरोकारों से खुद को अलग नहीं कर सके।
नौकरियां जारी रखते हुए भी उन्होंने दिल्ली साइंस फ़ोरम की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका काम नागरिकों के बीच वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करना है। इसके साथ ही प्रबीर हमेशा से विज्ञान और तकनीक का उपयोग बाज़ारू मुनाफ़े के बजाय मानव जीवन को समृद्ध बनाने के लिए हो इसकी वकालात करते रहे। हाल ही में प्रकााशित हुई उनकी किताब ‘Knowledge as Commons: Towards a Inclusive Science and Technology’ में उन्होंने विज्ञान, तकनीक और पूंजीवाद की जटिल संरचना पर चर्चा करते हुए विज्ञान के जनवादी इतिहास और उसकी सम्भावना से हमें परिचित कराया है।
आज हम प्रबीर पुरकायस्थ के बारे में बात कर रहे हैं क्योंकि आपातकाल के 48 सालों बाद आज एक बार फिर से वे भारतीय राज्य की क़ैद में हैं। इस बार वे एक छात्र राजनेता होने के कारण नहीं एक पत्रकार होने के कारण जेल में है। आज भारतीय राज्य का चरित्र सिर्फ तानाशाही वाला नहीं रह गया, वह फासीवाद का रूप ले चुका है और इस बार उन्हें MISA से भी ज़्यादा अलोकतांत्रिक UAPA के तहत गिरफ्तार किया गया है। और इस बार भी डी.आई.जी. भिंडर की तरह भारत की सरकार मनगढ़ंत आरोप थोप रही है।
इस बार मामला न्यूजक्लिक का है। साल 2009 में बदलते समय को ध्यान में रखते हुए प्रबीर ने एक डिजिटल प्लेटफ़ार्म की तरह न्यूजक्लिक की स्थापना की थी। प्रिंट और टीवी की प्रमुखता वाले उस दौर में न्यूजक्लिक भारत के चुनिंदा डिजिटल न्यूज पोर्टल में शामिल था। अपनी शुरूआत से ही न्यूजक्लिक ने गम्भीरता और जन-पक्षधर पत्रकारिता के मानक स्थापित किए हैं। एक संस्थान के तौर पर न्यूक्लिक ने जहां एक और साम्राज्यवाद-फासीवाद-पूंजीवाद की समझ आम जनता के बीच बनाने का काम किया है तो वहीं दूसरी ओर भारत के तमाम जन-आन्दोलनों को आवाज़ देने का काम लगातार करता रहा है।
लेकिन भारत की फासीवादी सरकार को ऐसी मज़बूत और स्पष्ट पत्रकारिता रास नहीं आई। इस बार संयुक्त राज्य अमेरिका के अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट का आधार लेकर, न्यूजक्लिक पर चीन की सरकार से फंड लेकर भारत के खिलाफ काम करने के आरोप में यह कार्रवाई हो रही है। इसी के चलते 3 अक्टूबर की सुबह न्यूजक्लिक से जुड़े पत्रकारों के घर छापेमारी हुई। पत्रकारों की पूछताछ के बाद उनके मोबाइल व लैपटॉप ज़ब्त कर लिए गए और न्यूजक्लिक के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ के साथ ही वहां के मैनेजर अमित चक्रवर्ती को गिरफ्तार कर लिया गया।
आज के इस दौर में जहां एक तरफ़ बाज़ारू मीडिया का शोर बढ़ गया है, और उसे सरकार के पक्ष में लगातार बढ़ाया जा रहा है। वहीं असहमति की हर वैकल्पिक आवाज़ को ख़ामोश करने की कोशिश की जा रही हैं। लेकिन, आज जिस प्रकार आपातकाल के उस दौर की भयावहता को बताने के लिए छात्र प्रबीर का किस्सा सुनाया जाता है ठीक वैसे ही एक दिन हमारे समय के अन्याय को बताने के लिए पत्रकार प्रबीर पुरकायस्थ और न्यूजक्लिक का क़िस्सा दोहराया जाएगा।