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जैविक खेती: जलवायु पर्यावरण तथा प्राकृतिक खेती अपनाने में दिक्कतें 

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आशीष मित्तल

एनडीए की सरकार किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य व कर्ज मुक्ति की मांगों के विरुद्ध तो है ही, उसने अपने तीसरे कार्यकाल में खेती में कारपोरेट नियंत्रण और बढ़ाने की योजना पेश की है।वह “जैविक खेती”, “जलवायु प्रभाव से सुरक्षित“ और “लागत घटाने” के नाम पर ऐसा कर रही है। इस बजट में उसने घोषणा की है कि वह मौसम के प्रभाव से सुरक्षित फसलों और उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देगी। 

इसके लिए निजी क्षेत्र को वित्तीय सहयोग देने और अगले दो साल में एक करोड़ किसानों को प्रमाणपत्र और फसलों की ब्रांडिंग करने में सहयोग देकर जैविक खेती में लाने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसके अनुकूल 11 अगस्त को दिल्ली के पूसा परिसर से जलवायु दुष्प्रभाव से सुरक्षित 34  अनाज तथा 27 फल व सब्जियों के 109 नये  बीज देश को समर्पित किए।

जैविक खेती इस संकट के समाधान का लक्ष्य बताया गया है, जिससे खर्च भी घटेगा और जहरीले रसायनों से बचाव भी होगा। खेती के ये दोनों संकट विदेशी कम्पनियों द्वारा प्रोत्साहित, भारत सरकार द्वारा अमल में लायी गयी हरित क्रांति की देन हैं।

पर जैविक खेती के सरकारी प्रस्ताव में कोई कारगर योजना नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव है कि इसमें पैदावार वर्तमान की मात्र 60 फीसदी होती है। भारत में 10 लाख एकड़ पर की जा रही ऐसी खेती में भी पैदावार के प्रस्तुत आंकड़े बहुत ही कम हैं। 

खाद सब्सिडी में कटौती

ऐसा करना सरकार का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। रासायनिक खादों की कीमतें बहुत ज्यादा हैं, इजारेदार कम्पनियां मनमाना दाम वसूलती हैं, खाद उत्पादन में लगने वाली प्राकृतिक गैस के दाम भी इजारेदार तय करते हैं और सरकार गैस और खाद दोनों पर टैक्स वसूलती है। 

सन् 2021-22 में खाद सब्सिडी पर कुल सरकारी खर्च 2.55 लाख करोड़ रुपये था जो इस बजट में घटाकर 1.64 लाख करोड़़ कर दिया गया है। सरकार ने कुल सब्सिडी वाली खाद की आपूर्ति 30 प्रतिशत तक घटाने का प्रस्ताव किया है। इससे खुले बाजार में खाद के रेट बढ़ेंगे।

जैविक खेती 

कृषि मंत्रालय की वेबसाइट पर प्राकृतिक खेती के राष्ट्रीय मिशन की गाइडलाइन और जीरो बजट प्राकृतिक खेती के कई लेख मिलते हैं। वे रसायनमुक्त खेती के तहत विविधीकरण के साथ मिश्रित फसल उगाने और खेत में ही फसलों के अवशेष सड़ाकर मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरक क्षमता बढ़ाने की बात करते हैं।

वे फसल विविधीकरण के साथ नीमास्त्र, अग्नेयास्त्र, नीम अर्क और दशपरनी अर्क जैसे वनस्पति फार्मूलों के साथ कीट नियंत्रण प्रस्तावित करते हैं। 

वे इससे पशुपालन और गोबर तथा गौमूत्र में वृद्धि, पर्यावरण, भूजल और प्राकृतिक पौष्टिक स्रोत में वृद्धि; मृदा में वायु रिसाव, लागत के दाम घटाने और इस तरह किसानों की आय बढ़ाने और काम बढ़ने से रोजगार बढ़ने के लाभ इसमें दिखा रहे हैं। वे बीज के उपचार के लिए खेतों में ही बीजामृता और जीवामृता जैसे कीट फार्मूलों से मृदा समृद्धि का लाभ भी बताते हैं।

आन्ध्र प्रदेश सरकार ने इसके प्रोत्साहन के लिए रायतु सदिकारा संस्था बनाई थी। जैविक खेती में लगे परिवारों को गुजरात तथा हिमाचल सरकारों ने कुछ आर्थिक सहयोग भी दिया है। केन्द्र ने जैविक लागत तैयार करने के लिए 18,000 किसानों को प्रशिक्षण दिया है और प्रति किसान वह 600 रुपये इस मद में देती है। पर प्राकृतिक खेती क्षेत्रफल नहीं बढ़ा है।

जैविक कम्पोस्ट और केंचुआ कम्पोस्ट तैयार करने में कई महीने लगते हैं और बहुत महंगा है। इस दर से प्रति एकड़ खाद की कीमत कई गुना बढ़ जाएगी।

जलवायु पर्यावरण तथा प्राकृतिक खेती अपनाने में दिक्कतें 

देश के 86 फीसदी किसान छोटे व सीमान्त जमीन वाले हैं। अक्सर उन्हें दोष देते हुए कहा जाता है कि अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उन्हें कुछ प्राकृतिक खेती करनी चाहिए। पर प्राकृतिक खेती अपनाना काफी जटिल काम है क्योंकि इसकी प्रक्रियाएं अलग हैं और लागत के दाम बढ़ जाएंगे और पैदावार कम है। 

हाल में एकाएक गर्मी बढ़ने से गेहूं के दाने छोटे रह जाना, भारी बारिश और बाढ़ से देश व दुनिया में हुए फसलों को हानि, बेमौसम तूफान आदि समस्याओं ने रासायनिक खेती पर ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि जलवायु को क्षति पहुंचाने वाली ग्रीन हाउस गैस (ओजोन परत को भेदने वाली) में से एक तिहाई आधुनिक रासायनिक खेती के क्षेत्रों से पैदा होती है। दावा है कि रासायनिक खेती रोकने से ये प्रभाव उलट जाता है।

आन्ध्र प्रदेश की रसायनिक खेती में 8 लाख किसान जुटे हैं और इसका प्रबंधन सामुदायिक स्तर पर किया जाता है। इसकी सफलता की कहानी के प्रचार के साथ गंगा घाटी के क्षेत्र में नदी के दोनों तरफ 5 किलोमीटर रासायनिक खेती कराने का प्रस्ताव है।

परन्तु सारे मूल्यांकन में यह आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि प्रति एकड़ पैदावार कितनी होती है।

जैविक खेती को प्रोत्साहन देने में केन्द्र सरकार को इससे जुड़ी बहुत सारी तकनीकी व व्यवस्थाएं खुद विकसित करनी होंगी, जिन्हें सरकार सम्बोधित नहीं करना चाहती। जैविक खेती के प्रभावशाली  बीज निर्मित करने होंगे, अन्य लागत सामग्री की व्यवस्था करानी होगी, उससे जुड़ी मशीनरी व अन्य सामग्री, शिक्षा व शोध योजना, तकनीकी सेवाएं, प्रसंस्करण सुविधाएं, बिक्री तथा आर्थिक छूट, यानि सब्सिडी का प्रबंध करना होगा। 

कृषि वैज्ञानिक देवेन्द्र शर्मा लिखते हैं कि “जब हरित क्रांति लायी गयी तो उसका पूरा ईको सिस्टम बनाया गया जिसमें सघन खेती कराने की योजनाबद्ध प्लानिंग की गयी।

इसमें कई कृषि विश्वविद्यालय, स्पेशलाइज़्ड शोध संस्थाएं, सुविधाओं का व्यवस्थित जाल, किसानों को कर्ज की व्यवस्था, फसल की बिक्री, आदि व्यवस्था बनायी गयी। सब्सिडी भी शुरु की गयी और निवेश भी आया। 

बाद में  खाद व कीटनाशक दवाओं की फैक्ट्रियां और बीज विकास की भी व्यवस्था बनी। जितना सहयोग हरित क्रांति को दिया गया, प्राकृतिक खेती में सहयोग उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है।”

भारत सरकार तथा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने उपरोक्त व्यवस्थाएं कराकर हरित क्रांति तकनीकी को बढ़ावा दिया था। इसमें ट्रैक्टर, टिलर, पम्पिंग सेट, दवाएं, रासायनिक खाद, सब उपलब्ध कराये गये थे और इसने खेती के रुप को बदल दिया।

देश और किसानों को खाद्य संकट के दौरान ज्यादा पैदावार का ‘लाभ’ हुआ। शुरु में किसानों को कुछ बचत भी हुई, जो बाद में गायब हो गयीं। कम्पनियां शुरु से अंत तक लाभ कमाती रहीं और लागत के बढ़े दाम तथा मानव स्वास्थ्य की क्षति का सारा बोझ किसानों पर लदता रहा।

नए बीज, मूल्य वृद्धि तथा कारपोरेट लाभ

प्रधानमंत्री ने नए बीजों से खेती में मूल्य वृद्धि होने का दावा किया है। उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि फसलों के जिन धंधों में मूल्य वृद्धि होती है, वे सभी कारपोरेट के नियंत्रण में हैं और ये सभी विदेशी कम्पनियों से सम्बद्ध हैं। बिरले ही ऐसी कोई फसल बची हो, जिससे देश के किसान व उद्यमी कमाई कर सकें। 

फुटकर व्यापार में विदेश निवेश को दिया गया बढ़ावा, जिसका पहले आरएसएस-भाजपा विरोध करते थे, का भी इस पर बड़ा असर है। आज आरएसएस के ‘स्वदेशी’ शासन में कृषि उत्पादों का भी सीधा आयात हो रहा है। वाजपेयी शासन में ही कई फसलों के आयात पर लगे ऊंचे कर व मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिये गये थे। 

मोदी द्वारा घोषित इन नए बीजों की धूमधाम में ‘प्राकृतिक खेती के लाभ और लोगों का जैविक खेती के प्रति आकर्षण’ की बड़ी चर्चा की गयी, पर यह नहीं बताया कि इन बीजों का जैविक खेती से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह भी नहीं बताया कि जैविक खाद्य के प्रति आकर्षित लोग ज्यादातर अमीर हैं, जो महंगे खाने पर खर्च कर सकते हैं।

कृषि विज्ञान केन्द्रों की भी बहुत चर्चा की गयी और कहा गया कि यह जैविक खेती की जागृति पैदा करेंगे, पर यह नहीं बताया कि इन केन्द्रों को किसानों की पैदावार व आमदनी बढ़ाने वाले जैविक खेती के बीज व विधियों का विकास करना चाहिए। 

नए बीजों के गुण गिनाते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि ये मौसम के उतार चढ़ाव से प्रभावित नहीं होंगे, इनमें खाद्य सुदृढ़ीकरण का गुण है, किसानों की लागत घटेगी और आमदनी बढ़ेगी, पर एक बार भी नहीं कहा कि ये बिना रसायनों के जैविक विधि से उगाये जाएंगे।

आईएआरआई ने बाजार में कई नए  बीज जारी किये हैं, जो खरपतवारपनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ाते हैं। ये हैं पूसा, बासमती, 1979, 1985 और गैर बासमती, ‘सवा 134’ व ‘सवा 127’, जिनमें रोपाई नहीं की जाती। इन्हें डीएसआर (डायरेक्ट सीडिंग राइस) कहा जाता है जिसकी नई मशीनें आ गयी हैं।

इनके लिए जमीन का लेज़र द्वारा समतलीकरण भी जरूरी है, जिसकी मशीनें भी आ गयी हैं। इन बीजों में आनुवंशिक संशोधन कर इनमें खरपतवारनाशक दवा, इमेजथैपिर को सहने की क्षमता विकसित की गयी है। 

इनसे किसानों को रोपाई और खेत में पानी भरे रखने के खर्च की बचत होगी पर 2 इंच  पानी भरे रखने से जो जंगली घास नहीं उगती, अब उसे मारने के लिए इमेजथैपिर छिड़कना होगा जिसका खर्च उठाना होगा।

इसी तरह से बिना जुताई वाले गेहूं के बीज ‘गोल’ और ‘मुकुट’ भी हैं पर ये भी जैविक खेती के बीज नहीं है। इन सभी में रासायनिक खाद इस्तेमाल होगा।

प्रधानमंत्री ने किसानों को क्या दिया है? आधिकारिक प्रेस नोट नहीं कहता कि ये बीज रासायनिक खाद व दवा का इस्तेमाल नहीं करेंगे या कम करेंगे। सम्भवतः ये बीज भिन्न मौसम व जमीन में खारेपन से सम्बन्धित हैं।

धान की किस्मों की पैदावार 34 से 48 कुन्तल प्रति हेक्टेयर बताई है, जो वर्तमान पैदावार जैसी ही है। अभी तक इनके खेतों में प्रयोग के सभी पहलुओं के आंकड़े प्रस्तुत नहीं किये गये हैं। ऐसा लगता है कि सरकार फील्ड ट्रायल का खर्च किसानों पर ही लादेगी। 

रसायनिक खाद व दवाओं का मिट्टी पर बुरा असर पड़ता है। जैविक खेती की चर्चा में हमेशा यह कहा जाता है कि रासायनिक खाद से प्रदूषण फैल रहा है। ऐसे शोध उपलब्ध नहीं हैं कि मानव स्वास्थ्य के लिए रासायनिक खाद ज्यादा हानिकारक हैं या दवायें, पर तर्कगत बात यही है कि खाद की तुलना में दवा ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।

रासायनिक खाद और द्विफसली खेती से मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरक क्षमता घट जाती है। 

यह भी जानकारी है कि रासायनिक खाद ग्रीन हाउस गैस, नाइट्रस आक्साइड और अमोनिया प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। हाल में एक शोध में यह दर्शाया गया है कि ऐसे बीज विकसित किये जा सकते हैं जो कम या ज्यादा यूरिया की खपत करते हैं।

यह भी बताया गया है कि यह जरूरी नहीं है कि कम यूरिया खपत वाला बीज कम पैदावार देगा। यानी ऐसे भी बीज विकसित हो सकते हैं जो कम यूरिया खपाएं और ज्यादा पैदावार दें। 

विदेश कम्पनियों व कारपोरेट का नियंत्रण 

ऐसी रिपोर्ट है कि भारतीय कृषि शोध संस्थान, आईसीएआर ने बहुराष्ट्रीय कम्पनी बायर के साथ एक समझौता किया है जिसमें सन् 2030 तक 10 लाख हेक्टेयर पर डीएसआर खेती करायी जाएगी।

इसमें वे आर्थिक समाधान, फसलों की रक्षा (यानी ज्यादा खरपतवारनाशक दवा) तथा यंत्रीकरण (बुआई व लेज़र समतलीकरण मशीनें) विकसित करेंगे।1980 के दशक में ही साबित हो गया था कि ज्यादा पैदावार के लिए रोपाई जरूरी नहीं है। 

अब डीएसआर तकनीकी को बढ़ावा देने के लिए अमेरिकी शहर टेक्सास स्थित कम्पनी राइसटेक और भारतीय मेहको के बीच  50-50 फीसदी मालिकाना वाली एक नई कम्पनी ‘पार्यान एलायंस’ हाल ही में बनी है।

भारत का मेहको मोनसेन्टो बायोटेक भी मेहको और बायर ग्रुप के मानसाण्टो इनवेस्टमेंट की एक संयुक्त कम्पनी है जो जीएम कपास ‘बोलगार्ड’ तथा ‘बोलगार्ड-2’ तकनीकी 45 भारतीय  बीज कम्पनियों को बेच रही है।

समाधान 

खेती के इस संकट का वास्तविक समाधान ऐसे बीजों का विकास करना है। जो डीएसआर तकनीक का इस्तेमाल कर सकें ताकि खेतों में पानी भरा रखने की ज़रूरत किसानों को ना पड़े; ऐसे बीज जिनमें रासायनिक खाद तथा रासायनिक खरपतवारनाशकों की जरूरत न पड़े।

सरकार को ऐसे हाईब्रिड या उच्च पैदावार वाली जैविक फसल की किस्मों का विकास करना चाहिए जो भिन्न-भिन्न मिट्टी वाली भूमि और भिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए उचित हों। इन सभी फसलों की आश्वस्त पैदावार तथा सी2$50 फीसदी दर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी आश्वस्त सरकारी खरीद द्वारा करनी चाहिए। यही आगे का रास्ता है। 

प्रतीत होता है कि जो फसलें प्रधानमंत्री ने देश को समर्पित की हैं, वे जैविक खेती की फसलें नहीं हैं और इनका मुख्य लाभ रासायनिक दवा बेचने वाली कम्पनियों को होगा। किसानों के लागत के खर्च बढ़ेंगे और खेती में कारपोरेट नियंत्रण बढ़ेगा।

(आशीष मित्तल का यह लेख भाकपा माले एनडी के हिन्दी मुखपत्र, प्रतिरोध में प्रकाशित हुआ था।)

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