“मुझे इस हद तक प्रताड़ित किया गया कि मेरी मां की मौत के बाद उसे आखिरी बार देखने भी नहीं दिया गया, जिसने मुझे पढ़ा लिखाकर प्रोफेसर बनाया”। यह कहना है दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा।
वह बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद सात मार्च को सात साल बाद नागपुर जेल से रिहा हुए। इस रिहाई के बाद उन्होंने दिल्ली के सुरजीत भवन में प्रेस कांफ्रेंस के दौरान इतने सालों के दर्द को बयां किया।
माओवादियों को सहयोग करने के मामले में जेल में सजा काट चुके प्रोफेसर ने जेल की उस दशा के बारे में बताया जो सरकार के बड़े-बड़े दावों की पोल खोलती हैं।
प्रोफेसर जी एऩ साईबाबा का 90 प्रतिशत शरीर दिव्यांग है। उन्हें हर काम के लिए दूसरे की सहायता लेनी पड़ती है। इतने दिनों में उऩकी पत्नी वसंता ने उनका पूरा साथ दिया। शुक्रवार को सुरजीत भवन प्रेस कांफ्रेंस के लिए वह ही अपने पति को लेकर आई थीं।
उन्हें व्हील चेयर पर लाया गया। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान वह अपने सात साल की कैद को याद करते हुए कई बार भावुक भी हुए।
लेकिन उन्होंने सबसे ज्यादा दुख अपनी मां की अंत्योष्ठि में नहीं पहुंच पाने का जताया। नम आंखों के साथ अपनी मां को याद करते हुए वह कहते हैं कि “एक दलित महिला बस यही चाहती है कि उसके बच्चे पढ़ लिखकर नौकरी करें, उन्हें जमीन जायदाद नहीं बस उनके बच्चों की नौकरी चाहिए। मेरी मां ने भी मेरे लिए यही सोचा, मेरा आधा से ज्यादा शरीर पोलियो के कारण विकलांग है मेरी मां ने मुझे गोद में उठाकर काम कराया है। फिर भी मुझे मेरी मां की आखिरी विदाई में जाने नहीं दिया गया”।
सात मार्च को नागपुर सेंट्रल जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने कहा कि इलाज कराने से पहले एक बार मीडिया के सामने अपनी बात रखेंगे। इसके लिए दिल्ली में आज प्रेस कांफ्रेंस की गई। जिसमें उन्होंने इस लड़ाई में जीत के लिए यूनाइटेड नेशन, ह्यूमन राइट्स कमीशन और अपने शुभ चिंतकों का धन्यवाद प्रकट किया।
माओवादियों के साथ संबंध के शक के आधार पर की गई गिरफ्तारी को लेकर उन्होंने कहा कि यह शक बेबुनियाद निकला। पिछले दस सालों में मैंने जो प्रताड़ना झेली है वह मैं कभी नहीं भूल सकूंगा। मुझे माता सीता की तरह बेगुनाही को साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा है।
प्रोफेसर को नागपुर जेल के अंडा सेल में रखा गया था। जहां उन्हें कोई सुविधा नहीं दी गई थी। उन्होंने बताया कि मुझे बाथरूम जाने के लिए व्हील चेयर तक नहीं दी गई थी। मेरे दो साथी मुझे व्हील चेयर के अभाव में उठाकर लेकर जाते थे। मुझे अलग से बाथरूम भी नहीं दिया गया था। जबकि मेरा 90 प्रतिशत शरीर विकलांग है।
आगे वह बताते हैं कि जेल में मेरी मेडिकल जांच भी अच्छी से नहीं होती थी। जिसके कारण इस कई तरह की बीमारियां हो गई हैं।
“मई 2014 में जब मैं जेल गया तो एक स्वस्थ इंसान था। मुझे सिर्फ पोलियो था। लेकिन अब हार्ट अटैक, पैंक्रियाज और मसल में कई तरह की समस्या हो गई है”।
जेल में ही डॉक्टर ने मुझे ऑपरेशन कराने के कहा था, लेकिन कुछ हुआ नहीं।
मेरा हार्ट सिर्फ 55 प्रतिशत ही काम करता है। हैरानी की बात यह है कि डॉक्टर के बताने के बाद भी मेरा इलाज नहीं कराया गया। मैं जेल से जिंदा वापस आ गया हूं, यही बहुत बड़ी बात है।
अपनी गिरफ्तारी के समय को याद करते हुए वह कहते हैं कि साल 2014 में पुलिस ने गिरफ्तारी के दौरान मेरे बाएं हाथ को पकड़ कर घसीटते हुए बाहर किया। जिसके कारण आज भी मेरे हाथ में दर्द है। इस हाथ से अब कोई काम नहीं कर सकता हूं। फिर भी मेरा इलाज नहीं करवाया गया।
इन अत्याचारों के पीछे बस एक ही कारण था मैं दलित, आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाता था। उनके हक के लिए लड़ता था। मैंने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि शक के आधार पर मुझे गिरफ्तार किया जाएगा।
देश में जेलों की स्थिति का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि 1500 की क्षमता वाले जेलों में 3300 लोगों को रखा गया है। रोज वहां सोने से लेकर बाथरूम जाने तक के लिए लड़ाई होती है। लोगों के पास सोने के लिए जगह नहीं है।
जेल दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों से भरे पड़े हैं। उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है।
आपको बता दें प्रोफेसर जीएन साईबाबा को साल 2014 मे गढ़चिरौली पुलिस ने माओवादियों के साथ संपर्क के मामले में गिरफ्तार किया था। इससे पहले वह दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे। गिरफ्तारी के बाद उन पर गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत दोषी ठहराया गया और साल 2017 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके साथ ही पांच अन्य लोगों को भी सजा सुनाई गई। जिसमें से पांडु नरोटे की हिरासत में इलाज के अभाव में मौत हो गई थी।
एक लंबे संघर्ष के बाद अब बीते मंगलवार को बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने गढ़चिरौली की निचली अदालत के फैसले की सुनवाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष उनके (प्रोफेसर जी एन साईबाबा और पांच अन्य लोग) खिलाफ आरोपों को साबित करने में विफल रहा है। इसलिए अदालत ने आजीवन कारावास की सजा को रद्द करने के साथ यूएपीए के तहत अभियोजन की मंजूरी को अमान्य ठहराया।