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बिल्ली को दे रहे हैं दही की रखवाली-प्रोफ़ेसर रतन लाल

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दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर रतन लाल इन दिनों अपने तमाम सभाओं में उन दलित बहुजन नेताओं के खिलाफ़ निंदा प्रस्ताव पास करवा रहे हैं जो दलित बहुजन विरोधी भाजपा और एऩडीए के साथ खड़े हुए हैं। पेश है इस मसअले पर उनसे पत्रकार सुशील मानव की बात-चीत का संपादित अंश:

पिछले दिनों प्रोफ़ेसर रतन लाल का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। एक जनसभा में वह लोगों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं- “ग़ुलाम वो नहीं, ग़ुलाम हमारा समाज है। बीजेपी के साथ कोई यादव नेता चला गया तो उसके पीछे आप चले जा रहे हो तो बेईमान कौन है, आप हो बेईमान। बिल्ली को दे रहे हैं दही की रखवाली। जब चुनाव आयेगा तो हम हिन्दू हैं, हिन्दू के नाम पर वोट दोगे। ऐसे नेताओं के ख़िलाफ़ आज एक प्रस्ताव दे रहा हूं। बीजेपी आरएसएस ने आपके लिए कोई काम नहीं किया है, उलटा आपके ख़िलाफ़ काम किया है। ऐसे में अगर आपका नेता बीजेपी आरएसएस के साथ जा रहा हैं तो सभी सभाओं में उऩके खिलाफ़ निंदा प्रस्ताव पास होना चाहिए। उनका धिक्कार होना चाहिए। फिर चाहे वो नीतीश कुमार हो, चाहे चिराग पासवान, चाहे जीतनराम मांझी हों, या रामदास आठवले।”

सवाल: आपके वीडियोज सोशल मीडिया पर वायरल हैं। जिनमें आप किसी जनसभा में लोगों से भाजपा और एनडीए के साथ जाने वाले दलित बहुजन नेताओं का बहिष्कार करने की अपील कर रहे हैं?

प्रो. रतन लाल: हां। सब जातीय सभाओं में, बहुजन सभाओं में जहां भी मैं जाता हूं वहां कार्यक्रम में जो भी लोग शामिल होते हैं उनको शपथ दिलवाता हूं। निंदा प्रस्ताव पास करवाता हूँ उन दलित बहुजन नेताओं का बहिष्कार करने का जो भाजपा एनडीए के साथ गये हैं या जा रहे हैं। बाक़ी मेसेज तो वीडियो के ज़रिए पहुंच ही रहा है।

सवाल: यह विचार कहां से आया?

प्रो. रतन लाल: हम लोगों का काम ही सोचना और बोलना है। नेता तो हम लोग हैं नहीं तो ऐसे ही दिमाग में आया कि ये दलित बहुजन समाज के नेता कभी इधर भाग जाते हैं कभी उधर भाग जाते हैं। सोचते-सोचते दिमाग में विचार आया कि कुछ किया जाये। इऩके ख़िलाफ़ एक जन-मुहिम ज़रूरी है। इसके लिए जनता भी जिम्मेदार है कि वो गया तो ये उसके साथ क्यों जाते हैं।

सवाल: यह विशुद्ध अवसरवाद है या फिर इसके पीछे की मुख्य वजह वो डर है, साथ न आने पर जिस तरह से केंद्र सरकार सीबीआई, आयकर, प्रवर्तन आदि को पीछे लगाकर प्रताड़ित करती है, लालू प्रसाद यादव, हेमंत सोरेन, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह कई उदाहरण हैं?

प्रो. रतन लाल: सब कुछ घालमेल है। डर भी है, अवसर भी है। सब कुछ है।

सवाल: व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो क्या प्रताड़ित होने की तुलना में सत्ता में भागीदार हो जाना बेहतर विकल्प नहीं लगता है?

प्रो. रतन लाल: हां वो बात तो है ही, लेकिन व्यक्तिगत मुक्ति की महत्वाकांक्षा भी है मंत्री बनने की।

सवाल: आज जितनी जातियां उतने दल, लगभग इसी सिद्धांत पर क्षेत्रीय पार्टियों का गठन हो रहा है विशेषकर उत्तर प्रदेश में कुछ सीमांत जातियों को छोड़ दें जो बहुत ही ज़्यादा हाशिये पर हैं जहां लीडरशिप तैयार नहीं हुआ है तो लगभग सारी बड़ी दलित बहुजन जातियों की पार्टियां हैं। क्या जातीय आधार पर पार्टियों के गठन की ये विसंगति है?

प्रो. रतन लाल: सबको राजनीतिक चस्का लग गया है, पर एजेंडा ग़ायब है। केवल राजीनीति बचा हुआ है। लेकिन अगर छः हजार जातियां हैं तो छः हजार नेता नहीं हो सकता है ना। 545 सांसद ही हो सकता है, यूपी में केवल 403 विधायक ही हो सकता है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि एजेंडा कहां है।

सवाल: जातीय अस्मिता से अलग इसे कहां देखा जाना चाहिए?

प्रो. रतन लाल: ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, भूमिहार कहां कह रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री है तो हमको कष्ट है। वो समझता है कि उसका एजेंडा तो आगे बढ़ा रहा है ना। सारे संसाधनों पर उनका क़ब्ज़ा हो रहा है, वहीं दलित पिछड़ों में कोई नेता हो जाये वो उसी में खुश है। भले उसका स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी सब खत्म कर दे। उनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर कोई सवर्ण जातियों का एजेंडा पुश कर रहा है तो वो दलित हो बहुजन हो इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। जबकि दलित बहुजन में उनकी जाति का नेता होना ज़रूरी है एजेंडा चाहे ग़ायब हो जाये। ज़्यादातर लोग ऐसे ही सोचते हैं इसी का फ़ायदा भाजपा उठी रही है।

सवाल: जनता भी तो दुविधा में है कि किसको वोट दे। वो एक नेता को, एक पार्टी को वोट देता है, बाद में वो नेता या दल उसी पार्टी के साथ चला जाता है जिसके ख़िलाफ़ जनता ने उसे वोट दिया होता है। चुनाव के बाद पूरा दल या कुछ विधायक या सांसद ख़रीद लिये जाते हैं तो जनता के पास विकल्प ही क्या है?

प्रो. रतन लाल: जनता के पास दुविधा इसलिए है क्योंकि वो नेता के पास सामाजिक एजेंडा लेकर नहीं जाते हैं बल्कि व्यक्तिगत कार्य के लिए जाते हैं। अगर पूरा का पूरा गांव नेता का बहिष्कार कर दे कि वो उनको घुसने नहीं देंगे अपने क्षेत्र में तो पोलिटिकल क्लास पर एक दबाव बनेगा। पर आज कोई सामाजिक दबाव तो बना नहीं रहे हैं नेता पर। जब जनता का एक कलेक्टिव प्रेशर होता है तो नेता भी प्रेशर में होता है कि उसे जनता को जवाब देना है। अगर 10 जगह इस तरह से बहिष्कार हो जाये तो नेता पर प्रेशर आएगा। जनता को भी विकल्प तलाशना होगा, कलेक्टिव प्रेशर बनाना होगा। नहीं तो नेता भी कुछ लोगों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, एडमिशन, ठेका, आदि व्यक्तिगत काम करवाकर आपको चलता करेगा। दूसरी बात है कि परफेक्शन तो रजानीति में होता नहीं है। तो जो दल अभी भी सामाजिक न्याय, जातीय जनगणऩा आदि के मुद्दे पर बात कर रहा है उसकी बात को गांव-गांव जन-जन तक पहुंचाना होगा और दलित बहुजन जनता को उनके साथ जाना होगा, तभी राजनीति के केंद्र में वो आ सकेंगे।

सवाल: जिसको आप जनता बोल रहे हैं वो भी वर्गीकृत है। जो सुविधासंपन्न वर्ग है सारी राजनीति उसी के इर्द गिर्द घूमती है। जो अभाव में जी रहा है उसके लिए तो पांच किलो राशन ही बहुत है। उसे लगता है गैस चूल्हा और सिलेंडर मिल गया तो कोई सपना पूरा हो गया। तो क्या पूंजी चुनाव प्रक्रिया और जनादेश को भी प्रभावित कर रहा है। इसका समाधान आप कहां देखते हैं?

प्रो. रतन लाल: भाई, सबका समाधान तो मेरे पास है नहीं। मोदी जी से पहले फ्री शिक्षा था कि नहीं था। दलित समुदाय को स्कॉलरशिप मिलता था कि नहीं। राशन की दुकान से सस्ता अनाज, कॉपी, चीनी, केरोसीन मिलता था कि नहीं। हम लोग फ्री में ही पढ़े हैं। हमें नौकरियां मिली कि नहीं मिली। तो मुद्दों को जनता के पास लेकर जाना होगा कि क्या पहले राशन नहीं मिलता था। उनके बच्चे मुफ्त में नहीं पढ़ते थे।

सवाल: तब पार्टियां इसके बदले वोट नहीं मांगती थी?

प्रो. रतन लाल: लेकिन अब तो करना पड़ेगा, बोलना पड़ेगा।

सवाल: अतीत में बुद्धिजीवियों का समाज में बड़ा दख़ल रहा है। राजनीति में किसे चुनें किससे बचें इस तरह की बातों के लिए जनता उनकी राय को तवज्जो देती थी। तो यह जो अभियान आप चला रहे हैं इसका असर ग्राउंड पर कुछ दिख रहा है क्या?

प्रो. रतन लाल: जितना मेरा दायरा है उतने में कोशिश कर रहा हूं। तो कितना पहुंच रहा है कितना असर हो रहा है अभी ये बताना मुश्किल है।

सवाल:आपके इस मुहिम में दूसरे क्षेत्र के बुद्धिजीवी भी जुड़े हुए हैं क्या?

प्रो. रतन लाल: मेरी जानकारी में तो नहीं है। लेकिन मैं जो कह रहा हूं सब सुन रहे हैं। आगे बढ़ रहे हैं सब अपने-अपने तरीके से।

सवाल: आप हर जगह तो नहीं पहुंच सकते। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इस मुहिम के लिए हर क्षेत्र के बुद्धिजीवियों का एक लिंक बने और वो लोग भी अपने अपने समाज और क्षेत्र की जनता को पुशअप करें?

प्रो. रतन लाल: मैं हर जगह बोल रहा हैं। लेकिन मैं कोई टीम नहीं बना रहा हूं, संसाधन नहीं हैं। इंटेलेक्चुअल घर-घर जाकर थोड़ी ही समझाएगा, बताएगा। ये दूसरे लोगों की जिम्मेदारी है कि मेरी बातों को जन-जन तक ले जायें।

नचौक से साभार

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