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मूलवासी बचाओ मंच पर पाबंदी का किया विरोध

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नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता के बुनियादी उसूलों के खिलाफ

नई दिल्ली। पचास से ज्यादा नागरिक संगठनों, कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार संगठनों और उनसे जुड़े लोगों ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) पर लगाए गए प्रतिबंध का विरोध किया है। इन संगठनों की ओर से एक हस्ताक्षरित बयान जारी किया गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005 (सीएसपीएसए) के तहत गैरकानूनी संगठन घोषित किया जाना न केवल कानूनी रूप से गलत है बल्कि नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता के बुनियादी उसूलों के भी खिलाफ है।

उन्होंने कहा है कि उन्हें इस बात की गहरी चिंता है कि इस प्रतिबंध का उपयोग एमबीएम के सदस्यों और वैध प्रदर्शनों में भाग लेने वाले शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की मनमानी गिरफ्तारियों और उत्पीड़न को सही ठहराने के लिए किया जाएगा।

आपको बता दें कि 30 अक्टूबर, 2024 को जारी यह अधिसूचना, 8 नवंबर 2024 को गजट में प्रकाशित हुई और 18 नवंबर, 2024 को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई गई। संगठनों ने कहा कि यह आदेश राज्य की शक्ति का खतरनाक दुरुपयोग है, जिसका उद्देश्य शांतिपूर्ण असहमति को दबाना और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला करना है। बयान में उन्होंने कहा है कि “सार्वजनिक व्यवस्था” और “राज्य सुरक्षा” को खतरे के कमजोर आधार पर इसे उचित ठहराना संविधान और मौलिक अधिकारों पर सीधा हमला है।

मूलवासी बचाओ मंच (MBM)

मूलवासी बचाओ मंच (MBM) छत्तीसगढ़ में आदिवासी अधिकारों की रक्षा और अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहा है। यह संगठन 2021 में सिलगेर प्रदर्शन से उत्पन्न हुआ था, जहां सुरक्षा कैंप के निर्माण के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान चार लोगों की मौत हो गई थी। यह आंदोलन, जो आदिवासी भूमि पर अतिक्रमण के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध के रूप में शुरू हुआ, अब सैन्यीकरण, विस्थापन, और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण के खिलाफ व्यापक अभियान में बदल गया है।

हजारों आदिवासियों ने, विशेष रूप से युवा नेताओं ने, भारी पुलिस प्रतिबंधों के बावजूद अपने गांवों में या उनके पास धरने और प्रदर्शन किए। ये प्रदर्शन राज्य की बस्तर क्षेत्र में अपनाई गई नीतियों के खिलाफ व्यापक असंतोष को दर्शाते हैं। MBM ने लगातार संवैधानिक सुरक्षा उपायों जैसे कि वन अधिकार अधिनियम (2006) और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (1996) के उल्लंघनों को उजागर किया है। इसने मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए जवाबदेही की मांग की है, अर्धसैनिक कैंपों को बंद करने की वकालत की है और आदिवासी स्वायत्तता की रक्षा की है।

उनका कहना था कि MBM ने स्कूल, स्वास्थ्य सेवाओं की मांग की है, जान-माल की हानि की क्षतिपूर्ति और जन-केंद्रित विकास का आह्वान किया है। सरकार ने इसके वैध मुद्दों को “विकास विरोधी” करार देकर इसे गैरकानूनी ठहराने की कोशिश की है।

हस्ताक्षर करने वाले संगठनों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि एमबीए पर यह आरोप लगाना कि वह “विकास कार्यों” का विरोध करता है, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना है। आदिवासी समुदायों ने एमबीएम के नेतृत्व में सुरक्षा कैंपों का विरोध किया है, क्योंकि वे इन्हें सैन्यीकरण और विस्थापन के उपकरण मानते हैं।

इसके साथ ही उनका कहना है कि MBM ने न्याय प्रणाली की विफलताओं को उजागर किया और सुधार की मांग की। इसने अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण, विस्थापन और मानवाधिकार हनन के मामलों में न्याय की मांग की है। यह न्याय प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं, बल्कि शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देता है।

उनका कहना है कि MBM का शांतिपूर्ण विरोध और समुदाय का जागरूकता अभियान लंबे समय से स्थापित है। प्रशासन यह साबित करने में विफल रहा है कि एमबीएम की गतिविधियों ने कभी भी सार्वजनिक शांति या राज्य सुरक्षा को कोई खतरा पहुंचाया है।

दरअसल बस्तर क्षेत्र में “विकास” के नाम पर बड़े पैमाने पर सैन्यीकरण हुआ है। बस्तर भारत के सबसे सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक बन गया है, जहां हर नौ नागरिकों पर एक सशस्त्र बल तैनात है। सुरक्षा कैंप अक्सर बिना किसी परामर्श के रातों रात स्थापित किए जाते हैं, जो संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

MBM के विरोध को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसका उद्देश्य खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के पर्यावरणीय और मानव लागत को उजागर करना है।

नतीजे के तौर पर इन संगठनों का कहना है कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मूलवासी बचाओ मंच (MBM) पर प्रतिबंध लगाना एक शांतिपूर्ण संगठन को चुप कराने का प्रयास है। यह कदम लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करता है।

सच्चा विकास तब होता है जब यह समुदायों के अधिकारों और चिंताओं को ध्यान में रखता है। एमबीएम के उठाए गए मुद्दों का समाधान खुले संवाद और परामर्श के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि उन्हें दबाकर।

इसी के साथ हस्ताक्षरित बयान के आखिर में उन्होंने अपनी मांगें भी रखी हैं। उन्होंने कहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार एमबीए पर लगाए गए प्रतिबंध को तत्काल वापस करे। इसके अलावा एमबीए के सदस्यों और समर्थकों के खिलाफ उन्होंने दमनात्मक कार्रवाई को बंद करने की मांग की है। आखिरी मांग के तौर पर उन्होंने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम (सीएसपीएसए) को तत्काल रद्द किए जाने की मांग की है।

हस्ताक्षर करने वालों में छत्तीसगढ़ में शांति और न्याय के लिए अभियान (सीपीजेसी) की नंदिनी सुंदर, पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ इकाई से जुड़े कलादास डेहरिया और जुनास तिर्की; छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन (CBA) से जुड़े मनीष कुंजाम, आलोक शुक्ला, सुदेश टीकम, नंद कश्यप, रमाकांत बंजारे और शालिनी गेरा (समन्वय समिति -CBA)। इसके अलावा न्याय, जवाबदेही और अधिकारों के लिए राष्ट्रीय गठबंधन (NAJAR) से जुड़ी अधिवक्ता गायत्री सिंह, अधिवक्ता प्रियंका सिन्हा, अधिवक्ता कात्यायनी चंदोला, अधिवक्ता पूर्बयन चक्रवर्ती अधिवक्ता इंदिरा उन्निनायर (राष्ट्रीय कार्यकारिणी ग्रुप – NAJAR) ने भी इस पर हस्ताक्षर किया है। साथ ही जन आंदोलनों के लिए राष्ट्रीय गठबंधन (NAPM) की मेधा पाटकर, प्रफुल्ल सामंतरा, अरुंधति धुरु; अखिल भारतीय नारीवादी गठबंधन (ALIFA) की सुनीथा अच्युति और प्रकृति; पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति (PBKMS) से जुड़े संदीप सिंघा, मंजुश्री गायेन; श्रमजीवी महिला समिति (SMS) के रेहाना खातून, अमिता सिंघा; मानवाधिकार मंच से जुड़े वीएस कृष्णा, एस जीवन कुमार ने भी इस बयान पर अपना हस्ताक्षर किया है।

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