*-निर्मल सिरोहिया*
महाराष्ट्र व झारखंड में विधानसभा के चुनाव और देश के कई राज्यों में हुए उपचुनाव के परिणाम भले ही चौंकाते न हो, लेकिन लोकतंत्र की परिपक्वता का अभाव जरूर दर्शाते हैं। देश की आज़ादी के सात दशक बाद भी जनमानस अपना जनप्रतिनिधि चुनने को लेकर जागरूक नहीं है। यही वजह है कि महाराष्ट्र व झारखंड के परिणाम एक-दूसरे के विपरीत आते हैं, अर्थात दोनों ही राज्यों में मतदाताओं ने जरुरी मुद्दों को नज़रअंदाज किया। महाराष्ट्र में सत्ताधारी गठबंधन ने महिलाओं को ‘लाड़की बहिन’ योजना के जरिए आर्थिक लाभ देकर अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, वहीं मतदाताओं को धार्मिक आधार पर डराकर और बांटकर अपने लिए सत्ता की राह आसान की।
झारखंड की जेएमएम गठबंधन की सरकार भी कुछ इसी तरह येन केन प्रकारेण सत्ता में लौट आई। कई राज्यों के उपचुनाव के अधिकांश परिणाम भी सत्ताधारी दलों के ही पक्ष में रहे। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिस विपक्ष के पास लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक करने की जिम्मेदारी है, वह खुद संविधान की कोरे पन्नों की किताब लिए घूम रहा है। सवाल यह है कि आखिर भारतीय जनमानस सात दशक बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने अधिकार और कर्तव्य को लेकर जागरूक क्यों नहीं है ? क्यों वह स्थानीय निकाय और विधानसभा चुनाव में क्षेत्र अथवा राज्य के अपने हित के अनुरूप जनप्रतिनिधि चुनने को लेकर उतना जागरूक नहीं है, जितना उसे होना चाहिए। मतदाता महाराष्ट्र में सत्ता के लिए बने दोनों पक्षों के गठबंधन में से एक को सही और दूसरे को गलत मानने के लिए कौनसा मानक अपनाता है, समझ से परे है।
झारखंड में वह ऐसे ही दूसरे गठबंधन के साथ खड़ा नज़र आता है। यानि आंकलन का आधार सिर्फ और सिर्फ तात्कालिक नज़र आता है, जिसमें एक भेड़चाल के सिवाय कुछ और दिखाई नहीं दे रहा। शायद यही वजह है कि राजनीतिक दल समय, काल और परिस्थिति अनुरूप चुनाव के दौरान एक ‘नैरेटिव’ तय करते हैं और मतदाता उसमें उलझकर ईवीएम का बटन दबाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। यह कहा जाए कि इस देश का मतदाता अपने भविष्य की बजाय राजनीतिक दलों और उनके नुमाइंदों के भविष्य को लेकर अधिक चिंतित है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जबकि पिछले एक दशक की राजनीति में एक बात स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों ने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सभी नैतिक मापदंडों को तिलांजलि देकर सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए गठबंधन का रास्ता अख़्तियार कर लिया है। इसके लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
मप्र से लेकर राजस्थान, कर्नाटक, दिल्ली, पंजाब, झारखंड और महाराष्ट्र तक मुफ्त की ‘रेवड़ी’ बांटने के चलन ने तो अब बेशर्मी ओढ़ ली है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी दिल्ली की आप सरकार का स्वयंभू मुखिया बेशर्मी के साथ मीडिया के समक्ष मुफ्त ‘रेवड़ी’ बांटने की बात कुछ इस तरह करता है, जैसे जनमानस के लिए स्वाभिमान से जीने को कोई इबारत लिख रहा हो। यह बात और है कि यह मुफ्तखोरी इसी जनता के लिए एक दिन घातक सिद्ध होगी। संभव है भविष्य में ठोकर खाकर जनता जागरूक हो भी जाए, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। खैर, फ़िलहाल तो आप (राजनीतिक दल) जश्न मनाइये कि ‘जन’ अपने ‘मत’ की ताकत को लेकर भ्रमित है।
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