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वैदिक दर्शन : धारा के विपरीत है राधा

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        अनामिका, प्रयागराज 

     “दो-पाया पशुमात्र सावित होकर जड़ताजनित-घामड़ताग्रसित कूपमंडूकों की भीड़ का हिस्सा बनकर जीना धारा होना है. धारा नीचे गिरती है – गिराती है. ऊंचाई के लिए, परम आनंद का शिखर पाने के लिए धारा के विपरीत चलना होगा. राधा बनना होगा. मात्र चौबीस घंटे के लिए समग्रत: खुद को मुझे देकर आप मंज़िल पा सकते हैं.” ~डॉ. विकास मानव.

         राधा शब्द को भागवत पुराण में सिद्ध करने की अशास्त्रीय चेष्टाओं की बहुत चर्चा हुई है। अंग्रेजी शासन के बाद यह परम्परा हो गयी है कि किसी शास्त्र का जो विषय नहीं है, वैसा शब्द उसमें खोजते हैं, तथा नहीं मिलने पर यह सिद्ध कर देते हैं कि यह भारत में नहीं था। सांख्य दर्शन की पुस्तक में चावल का वर्णन नहीं है, अतः यह सिद्ध हो गया कि भारत में चावल नहीं होता था।

     ऐसे तर्कों के अनुसार भारत में करोड़ों व्यक्ति कई हजार वर्षों तक बिना भोजन जीवित रहे। सांख्य दर्शन यान्त्रिक विश्व का वर्णन करता है जिसमें पुरुष के ब्रह्म-जीव भेद की चर्चा नहीं है। अतः कुछ लोगों ने सेश्वर तथा निरीश्वर सांख्य की कल्पना की है।

     परम पुरुष रूप भगवान् श्रीकृष्ण की व्याख्या के लिए भागवत पुराण लिखा गया है। इस अर्थ में वह वेद की व्याख्या तथा भूमिका है। उसमें प्रकृति तत्त्व की आवश्यकता नहीं थी, अतः इसमें प्रकृति रूपिणी राधा का वर्णन नहीं है। 

    ब्रह्म का विवर्त्त यह विश्व है। विश्व रचना प्रकृति द्वारा होती है, अतः ब्रह्म वैवर्त्त पुराण में राधा का वर्णन है। 

    केवल राधा के वर्णन के लिए देवी भागवत पुराण लिखा गया है, उसमें मूल प्रकृति रूप राधा तथा उनसे उत्पन्न अन्य प्रकृति रूपों का विस्तार से वर्णन है।

    कृष्ण की तरह राधा के भी २ रूप हैं। भगवान् कृष्ण परब्रह्म भी हैं तथा उनके मनुष्य अवतार भी। राधा परम प्रकृति भी हैं, उनका मनुष्य अवतार भी।

    परम प्रकृति रूप में राधा का वर्णन वेदों में भी है, उसे मनुष्य वर्णन के साथ जोड़ना उचित नहीं है। 

कुछ उद्धरण :
“गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिव:।”
~ऋग्वेद (१/१०/७)
“दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्।”
(ऋग्वेद १/३२/११)
“त्वं नृचक्षा वृषभानु पूर्वी: कृष्णास्वग्ने अरुषो वि भाहि।”
(ऋग्वेद ३/१५/३)
“तमेतदधारय: कृष्णासु रोहिणीषु।”
(ऋग्वेद ८/९३/१३)
“कृष्णा रुपाणि अर्जुना वि वो मदे।”
(ऋग्वेद १०/२१/३)
“ब्राह्मणादिन्द्रराधस: पिबा सोमं।”
(ऋग्वेद १/१५/५)
“कथं राधाम सखाय:।”
(ऋग्वेद १/४२/७)
“अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु।”
(ऋग्वेद १/१७/१)
“इन्द्रावरुण वामहं हूवे चित्राय राधसे।।”
(ऋग्वेद १/१७/७)
“मादयस्व शवसे शूर राधसे।”
(ऋग्वेद १/८/१८)
“तुभ्यं पयो यत् पितरावनीतां राध:।”
(ऋग्वेद १/१२१/५)

इनमें प्रकृति के विभिन्न रूपों तथा कर्मों आ वर्णन है।

मनुष्यों की रासलीला एक नृत्य है जिसमें एक व्यक्ति केन्द्र में रहता है, बाकी उसकी परिक्रमा करते हैं। विश्व के विभिन्न स्तरों पर सृष्टि इसी प्रकार की क्रिया से होती है। ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड उसके केन्द्र में स्थित कृष्ण विवर के आकर्षण में बन्ध कर घूम रहे हैं-
“आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च॥”
~यजुर्वेद (३३/४३)

पिण्डों के अतिरिक्त वह केन्द्र प्रकाश का भी आकर्षण करता है, अतः कृष्ण का अर्थ आकर्षण तथा कृष्ण रंग (प्रकाश का अभाव) भी है। पूरा ब्रह्माण्ड अपेक्षाकृत स्थायी है जिसमें सूर्य जैसे ताराओं का जन्म मरण होता रहता है। अतः ब्रह्माण्ड को अमृत और सौरमण्डल को मर्त्य कहा गया है। विष्णु पुराण अध्याय (२/७) में इनको अकृतक और कृतक कहा गया है।
सौर मण्डल में भी सूर्य केन्द्र के आकर्षण में ग्रह घूम रहे हैं। आकर्षण बल से ग्रहों को कक्षा में बान्ध रखना विष्णु रूप है। सूर्य से तेज निकल कर शून्य में भी भर जाता है, वह इन्द्र है। दोनों के कारण पृथ्वी पर जीवन चल रहा है, वह विष्णु का जाग्रत रूप जगन्नाथ है (चण्डी पाठ, अध्याय १)। इसमें सूर्य कृष्ण है, ग्रह गोपियां हैं, जो गो या किरण का पान करती हैं। जीवन का आधार या पद पृथ्वी ही राधा है।
:चन्द्र तथा कुछ १/४ भाग सूर्य आकर्षण के कारण पृथ्वी का अक्ष २६,००० वर्ष में एक परिक्रमा करता है जिसे ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९) में मन्वन्तर कहा गया है।
यह ऐतिहासिक मन्वन्तर है। ज्योतिषीय मन्वन्तर ३०.६८ करोड़ वर्ष का है जो ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण काल है। ऐतिहासिक मन्वन्तर में जल प्रलय का चक्र होता है जो इतिहास का बृहत् रास है।
इसका आरम्भ विन्दु कृत्तिका को माना गया है-
“तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम् …. दूरमस्मच्छत्रवो यन्तु भीताः।
तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ॥११॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्॥१२॥”
~तैत्तिरीयोपनिषद (३/१/१)

देव कामना पूर्ण करते हैं, इन्द्राग्नि (कृत्तिका) से विशाखा (नक्षत्रों की पत्नी) तक बढ़ते हैं। तब वे पूर्ण होते हैं, जो पूर्णमासी है। तब विपरीत गति आरम्भ होती है। यह गति नाक (पृथ्वी कक्षा का ध्रुव) के चारो तरफ है।
शासन या हर व्यवस्था में एक केन्द्रीय व्यक्ति सञ्चालन करता है, बाकी उसके चारों तरफ घूमते हैं-सांकेतिक रूप से।
मनुष्य के सेल (कोषिका) तथा परमाणु में भी एक केन्द्रीय नाभि होती है। मनुष्य शरीर में तथा हर मशीन में एक केन्द्रीय हृदय रहता है जो सञ्चालन करता है।
“एषः प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मैतत् सर्वम्। तदेतत् त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। द इत्येकमक्षरं ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य एवं वेद॥”
~बृहदारण्यक उपनिषद् (५/३/१)

यह हृदय ही प्रजापति है, तथा ब्रह्म और सर्व है । इसमें ३ अक्षर हैं। एक हृ है जिसमें अपना और अन्य का आहरण होता है। एक ’द’ है जो अपना और अन्य का देता है । एक ’यम्’ है जिसे जानने से स्वर्ग लोक को जाता है।
हृदय = हृ + द + यम्; हृ = आहरण , ग्रहण; द = दान, देना।
यम् = यमन्, नियमन्-यम नियम अष्टाङ्ग योग के प्रथम २ पाद। यम = नियन्त्रण। यम-निषेध।
नियम = पालन। यह क्रियात्मक विश्व है, जिसका नियन्त्रक प्रजापति हर हृदय में रहता है-
“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।”
~गीता (१८/६१)
अर्थात्, हृदय वह क्षेत्र (देश) है जिसमें ३ क्रिया हो रही हैं-हृ = लेना, द = देना, यम् = नियम के अनुसार काम करना। नियम का बार बार पालन होता है अतः यह चक्र में होता है। उत्पादक कर्म यज्ञ भी चक्र में होता है।

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